शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

यश का ‘मर्डर’


यदि यश चोपडा की जब तक है जान देखते हुए महेश भट्ट की मर्डर की याद आए तो यह मानने में कतई संकोच नहीं होता कि समय से आगे बढने की कोशिश में यश चोपडा रोमांस की बनाई अपनी ही इमारत को यहां  ध्वस्त कर लेते हैं। यश चोपडा के लिए जो प्यार अभी तक रुहानी था, जब तक है जान में वह पूरी तरह जिस्मानी हो जाता है ,जो यश चोपडा को राम गोपाल वर्मा और महेश भट्ट के रोमांस के करीब ले जाती है, जिनके रोमांस की शुरुआत जिस्म से शुरु होती है और जिस्म पर ही  खत्म हो जाती है। प्यार का अहसास भर होते ही समर (शाहरुख खान) और मीरा (कटरीना कैफ) जिस तरह लंदन की सडकों पर एक दूसरे में समाने के लिए बेचैन दिखते हैं , जिस उत्तेजना में चौराहे पर लगे टेलीफोन बूथ से लेकर उंची मकानों के खुली छत पर मिलते उन्हें दिखाया जाता है, यश के प्रेम को भी जिस्मानी बना देता है। यश चोपडा प्रेम के इस स्वरुप पर अकीरा (अनुष्का शर्मा) के बहाने अपनी सहमति भी जाहिर करते हैँ, जब बम डिफ्यूजल को शूट करने के दौरान समर के साथ पुल से लटकी अकीरा कहती है, अभी मैं नहीं मरने वाली,अभी तो ढेर सारे काम करने हैं, अलग अलग प्रोफेशन से जुडे लोगों से सेक्स करना है। वह आगे भी कहती है हमारे जेनरेशन में सेक्स पहले हो जाता है, प्यार के बारे में बाद में सोचते हैं। हो सकता है आज कहीं, किसी का यह सच हो, लेकिन क्या इसे समय का सच माना जा सकता है। यदि हो भी तब भी यश चोपडा की फिल्म में यह सच देखने की उम्मीद नहीं होती, क्यों कि यश की फिल्म में हम सच देखने नहीं जाते, कहानी देखने जाते हैं, ऐसी कहानी जिसमें मानवीय कमजोरियों से परे, संवेदनाओं का उत्कर्ष दिखे। सच के नाम पर विद्रुपता दिखाने की छूट सिर्फ अनुराग कश्यप को हासिल है। यश चोपडा के नाम के साथ यदि किंग आफ रोमांस का तमगा जुडा रहा है तो उसका कारण है,उनकी फिल्मों में दिखता रोमांस का उच्चतम स्वरुप,यदि दुनियावी प्यार ही देखना हो तो फिर यश की क्या जरुरत, अनुराग को ही क्यों न देखें।
                  वर्जिन लोकेशन और विजुअल खूबसूरती यश चोपडा की फिल्मों की विशेषता हुआ करती थी, लेकिन यहां पूरी फिल्म में ये दोनों ही चीजें ढूंढती रह जानी पडती है।रिलीज के पहले लद्दाख के शूटिंग की काफी चर्चा थी, लेकिन यश वहां से कुछ भी मौलिक लाने में असमर्थ दिखते हैं। सफेद पत्थरों के पास से बहती नीली नदी को देख भला किसे थ्री इडियट्स की याद नहीं आ जाएगी। जिस विलक्ष्णता के साथ लम्हें और चांदनी में यश  राजस्थान की खूबसूरती और उसकी व्यापकता को समेट सके थे, लद्दाख और कश्मीर को समेटने में यहां चूकते दिखते हैं। कश्मीर के नाम पर  2012 में भी जब शिकारे पर नाचती हिरोइन ही दिखाई जाय तो यश की सीमा समझी जा सकती है।
                 जब तक है जान को यश चोपडा ने अपनी आखिरी फिल्म घोषित की थी। शायद फिल्म के पूरा होते होते उन्हें अहसास हो गया था कि उनकी रचनाशीलता में वह धार नहीं बची जिसके लिए वे जाने जाते रहे।निश्चय ही यदि इस फिल्म के साथ यश चोपडा, शाहरुख कान, कटरीना कैफ का नाम नहीं जुडा होता तो हरेक हफ्ते रिलीज होने वाली प्रेमकथाओं की भीड में इसे भी भूल गए होते। लेकिन हिन्दी सिनेमा के साथ, हिन्दी सिनेमा समीक्षा की भी मुश्किल है कि यह सिनेमा पर बात करने के पहले उसके बैनर और सितारों पर गौर करना जरुरी समझती है।जाहिर है सिनेमा समीक्षा के सिद्धान्त के खिलाफ जाकर भी जब तक है जान पर एक बडी फिल्म के रुप में विचार करना जरुरी हो जाता है। यह अलग बात है कि फिल्म रेत की तरह हाथों से फिसलती चली जाती है।
                    कहने को कहा जाता है कि इसकी कहानी ग्राहम ग्रीन के उपन्यास द एंड आफ अफेयर से चुरायी गई है, जिस पर हालीवुड में दो बार इसी नाम से फिल्म बनायी गई,1955 में, फिर 1999 में, और दोनों ही बार फिल्म काफी सफल रही।यह संयोग ही हो सकता है कि जब तक है जान और द एंड आफ अफेयर दोनों में ही नायक प्रेमिका से दूर होने के बाद फौज में चला जाता है, यह भी संयोग ही हो सकता है कि दोनों में ही प्रेमी की जान बचाने लिए प्रेमिका इश्वर को वचन देकर दूर चली जाती है। क्यों कि लंदन की पृष्ठभूमि में अमीर लडकी और गरीब लडके की कहानी के लिए भला ग्राहम ग्रीन की क्या जरुरत। हरेक साल हिन्दी की चार सौ में से साढे तीन सौ फिल्में ऐसी ही कहानियों पर बनती हैं। यूं भी आदित्य ने यदि ग्राहम ग्रीन को पढ लिया होता तो निश्चित रुप से फिल्म में कुछ कहानी भी होती।  हिन्दी का पुराना मुहावरा है, जूते के नाप से पैर बनाना। जब तक है जान देखते हुए भी यही लगता है कि फिल्म के स्टार कास्ट पहले तय कर लिए गए, संगीत पहले तैयार हो गया, विजुअल्स और सीन भी पहले तैयार कर लिए गए , फिर उसके लिए एक कहानी तैयार की गई।
                जाहिर है यश चोपडा की फिल्में जिस तार्किक नैरेशन के लिए याद की जाती रही हैं, उसका अभाव इस तीन घंटे लंबी फिल्म पर बहुत भारी पडता है। फिल्म कहीं से भी किसी भी तरह शुरु हो जाती है, और वैसे ही निपट जाती है।समर की इंट्री भारतीय सेना के एक मेजर के रुप में होती है, जो बम निरोधक दस्ते में काम कर रहा है। बमों को डिफ्यूज करना एक गंभीर काम है, उससे अपनी ही नहीं, अपने आस पास के सैकडों लोगों की जिंदगियां जुडी होती है। लेकिन बम डिस्पोजल के दृश्य कई बार दिखाने के बावजूद एक बार भी उसकी गंभीरता का अहसास दर्शक नहीं कर पाते। मेजर किसी राहगीर की तरह अपनी मोटर साइकिल पर आता है, और मजे से बम डिस्पोज कर चला जाता है।दर्शकों के लिए वाकई यह समझना मुश्किल होता है कि मोटर साइकिल पर अपना बिस्तरा लादे मेजर आखिर सैकडों किलोमीटर की यात्रा पूरी कर नदी किनारे पहुंच कर अकेला क्यों डेरा डालता है। क्या कश्मीर में, जहां एक ओर यश चारों तरफ बम प्लान्ट दिखाते हैं, वहीं सेना के एक होनहार मेजर का निहत्थे अकेला विचरते दिखना तार्किक माना जा सकता है। भारत में यूं भी कायदे कानून कम चलते हैं, इसीलिए यहां जब मेजर सादे ड्रेस में बम डिफ्यूज करने का आनंद ले रहा होता है तब तो बात समझ में आती है, लेकिन उसी मेजर को जब लंदन में भी सिविल ड्रेस में ही ट्रेन में लगे बम डिफ्यूज करने की अनुमति मिल जाती है तो बात समझ से परे हो जाती है।
                     यश जी ने शायद मान लिया था कि शाहरुख और कटरीना की एक्सक्लूसिव जोडी, और बोनस में मिली अनुष्का के बाद भला कौन मूढ दर्शक कहानी और कहानी में तर्क की तलाश करेगा।निश्चिन्त होकर इस फिल्म के लिए वे सब कुछ फिल्माते गए, जो उन्हे अच्छा लगा.चाहे वह कहानी से जुडी थी या नहीं। कहानी फ्लैसबैक में जाती है तो पता चलता है समर एक गरीब भारतीय है जो लंदन में अपने गुजारे के लिए कई तरह के काम करता है। कई तरह के मतलब गराज में गाडी धोने, रेस्टोरेंट में खाना खिलाने से लेकर ठेला खींचने और फिर अच्छे कपडे पहन कर लंदन की सडकों पर वायलिन हाथों में लिए पंजाबी गीत गाकर कटोरे में पैसे बटोरने का भी। इस पर बंदे का आत्म विश्वास इतना बुलंद कि एक करोडपति की बेटी से प्यार करने में जरा भी नहीं हिचकता, कोई अमीरी गरीबी का डायलाग नहीं ।जितनी सहजता से मीरा उसे स्वीकार करती है,उतनी ही सहजता से समर भी। मीरा के पिता लंदन के बडे उद्योगपति हैं, पंजाब से गए अपने पिता को जन्मदिन के तोहफे के रुप में पंजाबी गीत सुनाने की कोशिश में मीरा समर से गीत सिखाने का अनुरोध करती है, बदले में समर उससे अंग्रेजी सीखता है। दोनों की मुलाकातों में, यश चोपडा के अनुसार मीरा को गरीबी में मिलते खुलेपन का अहसास होता है। वह भी कथित मजदूर लडकियों की तरह लडकों के झुंड में कपडे उतार कर डांस करने लगती है, और जैसा कि होता आया है समर से प्यार कर बैठती है।
                           फिर अजीब से घटनाक्रमों की शुरुआत होती है, जिसकी उम्मीद कम से कम यशराज के बैनर से तो नहीं की जा सकती, तब तक, जब तक नील और निकी या टशन की याद न आ जाए। चर्च में मीरा समर के साथ प्यार में लाइन क्रास नहीं करने का वचन लेती है। संयोग कि लाइन क्रास करने के बाद समर का एक्सीडेंट हो जाता है और एक बार फिर मीरा समर की जान के एवज में इश्वर को समर से दूर रहने का वचन देती है। यश चोपडा की फिल्में प्रेम दोस्ती जैसी संबंधों की संवेदना के कारण जानी जाती रही हैं।वीर जारा की बात करें या दिल तो पागल है की उनकी फिल्में स्त्री पुरुष संबंधों को शरीर से परे ही देखती रही है। यहां यश पूरे संबंधों पर शरीर को हावी कर देते हैं। मीरा हो या अकीरा कोई भी समर के साथ दोस्त का संबंध नहीं रखना चाहती। संबंधों की अद्भुत व्याख्या देते हैं यश कि संबंध या तो जिस्मानी हों या न हों। आश्चर्य नहीं कि महेश भट्ट से विचार आयातित करते यश दृश्य तक आयात कर लेते हैं।वाकई अनुराग बसु के लिए यह सुखद आश्चर्य ही होगा कि मर्डर के एक पूरे दृश्य को यश शाहरुख और कटरीना पर फिल्माने से संकोच नहीं करते।
                       लेकिन यह भी सच है कि हिन्दी सिनेमा को सौन्दर्य की जो समझ यश चोपडा ने दी है, उसे इस फिल्म से भुलाना संभव नहीं होगा। जब तक है जान को हम भले ही भूल जाना पसंद करें, यश को भुलाना संभव नहीं होगा।

                    कहने को कहा जाता है कि इसकी कहानी ग्राहम ग्रीन के उपन्यास द एंड आफ अफेयर से चुरायी गई है, जिस पर हालीवुड में दो बार इसी नाम से फिल्म बनायी गई,1955 में, फिर 1999 में, और दोनों ही बार फिल्म काफी सफल रही।यह संयोग ही हो सकता है कि जब तक है जान और द एंड आफ अफेयर दोनों में ही नायक प्रेमिका से दूर होने के बाद फौज में चला जाता है, यह भी संयोग ही हो सकता है कि दोनों में ही प्रेमी की जान बचाने लिए प्रेमिका इश्वर को वचन देकर दूर चली जाती है। क्यों कि लंदन की पृष्ठभूमि में अमीर लडकी और गरीब लडके की कहानी के लिए भला ग्राहम ग्रीन की क्या जरुरत। हरेक साल हिन्दी की चार सौ में से साढे तीन सौ फिल्में ऐसी ही कहानियों पर बनती हैं। यूं भी आदित्य ने यदि ग्राहम ग्रीन को पढ लिया होता तो निश्चित रुप से फिल्म में कुछ कहानी भी होती।  हिन्दी का पुराना मुहावरा है, जूते के नाप से पैर बनाना। जब तक है जान देखते हुए भी यही लगता है कि फिल्म के स्टार कास्ट पहले तय कर लिए गए, संगीत पहले तैयार हो गया, विजुअल्स और सीन भी पहले तैयार कर लिए गए , फिर उसके लिए एक कहानी तैयार की गई।
                जाहिर है यश चोपडा की फिल्में जिस तार्किक नैरेशन के लिए याद की जाती रही हैं, उसका अभाव इस तीन घंटे लंबी फिल्म पर बहुत भारी पडता है। फिल्म कहीं से भी किसी भी तरह शुरु हो जाती है, और वैसे ही निपट जाती है।समर की इंट्री भारतीय सेना के एक मेजर के रुप में होती है, जो बम निरोधक दस्ते में काम कर रहा है। बमों को डिफ्यूज करना एक गंभीर काम है, उससे अपनी ही नहीं, अपने आस पास के सैकडों लोगों की जिंदगियां जुडी होती है। लेकिन बम डिस्पोजल के दृश्य कई बार दिखाने के बावजूद एक बार भी उसकी गंभीरता का अहसास दर्शक नहीं कर पाते। मेजर किसी राहगीर की तरह अपनी मोटर साइकिल पर आता है, और मजे से बम डिस्पोज कर चला जाता है।दर्शकों के लिए वाकई यह समझना मुश्किल होता है कि मोटर साइकिल पर अपना बिस्तरा लादे मेजर आखिर सैकडों किलोमीटर की यात्रा पूरी कर नदी किनारे पहुंच कर अकेला क्यों डेरा डालता है। क्या कश्मीर में, जहां एक ओर यश चारों तरफ बम प्लान्ट दिखाते हैं, वहीं सेना के एक होनहार मेजर का निहत्थे अकेला विचरते दिखना तार्किक माना जा सकता है। भारत में यूं भी कायदे कानून कम चलते हैं, इसीलिए यहां जब मेजर सादे ड्रेस में बम डिफ्यूज करने का आनंद ले रहा होता है तब तो बात समझ में आती है, लेकिन उसी मेजर को जब लंदन में भी सिविल ड्रेस में ही ट्रेन में लगे बम डिफ्यूज करने की अनुमति मिल जाती है तो बात समझ से परे हो जाती है।
                     यश जी ने शायद मान लिया था कि शाहरुख और कटरीना की एक्सक्लूसिव जोडी, और बोनस में मिली अनुष्का के बाद भला कौन मूढ दर्शक कहानी और कहानी में तर्क की तलाश करेगा।निश्चिन्त होकर इस फिल्म के लिए वे सब कुछ फिल्माते गए, जो उन्हे अच्छा लगा.चाहे वह कहानी से जुडी थी या नहीं। कहानी फ्लैसबैक में जाती है तो पता चलता है समर एक गरीब भारतीय है जो लंदन में अपने गुजारे के लिए कई तरह के काम करता है। कई तरह के मतलब गराज में गाडी धोने, रेस्टोरेंट में खाना खिलाने से लेकर ठेला खींचने और फिर अच्छे कपडे पहन कर लंदन की सडकों पर वायलिन हाथों में लिए पंजाबी गीत गाकर कटोरे में पैसे बटोरने का भी। इस पर बंदे का आत्म विश्वास इतना बुलंद कि एक करोडपति की बेटी से प्यार करने में जरा भी नहीं हिचकता, कोई अमीरी गरीबी का डायलाग नहीं ।जितनी सहजता से मीरा उसे स्वीकार करती है,उतनी ही सहजता से समर भी। मीरा के पिता लंदन के बडे उद्योगपति हैं, पंजाब से गए अपने पिता को जन्मदिन के तोहफे के रुप में पंजाबी गीत सुनाने की कोशिश में मीरा समर से गीत सिखाने का अनुरोध करती है, बदले में समर उससे अंग्रेजी सीखता है। दोनों की मुलाकातों में, यश चोपडा के अनुसार मीरा को गरीबी में मिलते खुलेपन का अहसास होता है। वह भी कथित मजदूर लडकियों की तरह लडकों के झुंड में कपडे उतार कर डांस करने लगती है, और जैसा कि होता आया है समर से प्यार कर बैठती है।
                           फिर अजीब से घटनाक्रमों की शुरुआत होती है, जिसकी उम्मीद कम से कम यशराज के बैनर से तो नहीं की जा सकती, तब तक, जब तक नील और निकी या टशन की याद न आ जाए। चर्च में मीरा समर के साथ प्यार में लाइन क्रास नहीं करने का वचन लेती है। संयोग कि लाइन क्रास करने के बाद समर का एक्सीडेंट हो जाता है और एक बार फिर मीरा समर की जान के एवज में इश्वर को समर से दूर रहने का वचन देती है। यश चोपडा की फिल्में प्रेम दोस्ती जैसी संबंधों की संवेदना के कारण जानी जाती रही हैं।वीर जारा की बात करें या दिल तो पागल है की उनकी फिल्में स्त्री पुरुष संबंधों को शरीर से परे ही देखती रही है। यहां यश पूरे संबंधों पर शरीर को हावी कर देते हैं। मीरा हो या अकीरा कोई भी समर के साथ दोस्त का संबंध नहीं रखना चाहती। संबंधों की अद्भुत व्याख्या देते हैं यश कि संबंध या तो जिस्मानी हों या न हों। आश्चर्य नहीं कि महेश भट्ट से विचार आयातित करते यश दृश्य तक आयात कर लेते हैं।वाकई अनुराग बसु के लिए यह सुखद आश्चर्य ही होगा कि मर्डर के एक पूरे दृश्य को यश शाहरुख और कटरीना पर फिल्माने से संकोच नहीं करते।
                       लेकिन यह भी सच है कि हिन्दी सिनेमा को सौन्दर्य की जो समझ यश चोपडा ने दी है, उसे इस फिल्म से भुलाना संभव नहीं होगा। जब तक है जान को हम भले ही भूल जाना पसंद करें, यश को भुलाना संभव नहीं होगा।

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