रविवार, 21 अप्रैल 2024

हिंदी सिनेमा की लोकतंत्र की कच्ची समझ

 


दो किस्म के नेता होते हैं

इक देता है इक पाता है

एक देश को लूट के खाता है

इक देश पे जान लुटाता है

राम न करे मेरे देश को

कभी भी ऐसा नेता मिले

जो आप भी डूबे देश भी डूबे

जनता को भी ले डूबे...

 

अंतरा भले ही याद न हो,1970 में रिलीज मनोज कुमार की फिल्म यादगार के इस गाने के बोल अवश्य आपको याद होंगे,एकतारा बोले तुन तुन तुन...। 50 साल से अधिक हो गए,समय के साथ हिंदी सिनेमा ने देश पर जान लुटाने वाले नेताओं की चर्चा ही बंद कर दी,और अपनी सारी तवज्जो एक ही किस्म के नेता पर केंद्रित कर दिया,जो देश को लूट के खाता है बंटी और बबली जैसी हास्य फिल्म हो,या फिर इन्क्लाब और इंडियन जैसी एक्शन फिल्म या फिर सत्याग्रह और राजनीति जैसी गंभीरता से मुद्दे रखने की कोशिश करती फिल्में,ये और इस तरह की तमाम फिल्में सिरे से जनप्रतिनिधियों को भ्रष्ट और अपराधी चित्रित करने में कोई संकोच नहीं करती। यदि हर वर्ष बनने वाली भारतीय फिल्मों के आधार पर कोई अध्ययन हो तो सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि भारत के सभी राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं,अपराधी हैं,वहां जनतंत्र की कोई संभावना नहीं।सारा समाधान हथियारों से ही संभव है।

क्या आश्चर्य कि प्रकाश झा जैसे जवाबदेह फिल्मकार अन्ना आंदोलन को केंद्र में रख कर सत्याग्रह बनाते हैं। सत्याग्रह दर्शकों को यह लगातार मनवाने की कोशिश में दिखती है कि कोई भी जन आंदोलन अब स्वतः खडा नहीं हो सकता। उसे आधुनिक गिमिकस के सहारे ही खडा किया जा सकता है।भ्रष्टाचार के विरोध में आमरण अनशन पर बैठे द्वारिका आनंद की हालत नाजुक हो रही है,सरकार झुकने के लिए तैयार नही।एक व्यक्ति समर्थन में आत्मदाह कर लेता है, किसी भी जन आंदोलन की इससे गलीज भूमिका नहीं दिखाई जा सकती, कि आंदोलन का नेतृत्व मौत से संवेदनहीन उस लाश के राजनीतिक उपयोग पर विमर्श में लगा दिखता है।नायक कहता है सरकार पर दवाब बनाने के लिए अब लोगों का सडकों पर निकलना जरुरी है।और देखते देखते आंदोलनकारी हाथों में ए के 47 और तलवारों के साथ दौडते दिखाई देने लगते है। प्रकाश झा अलग क्यों दिखें,जब हिन्दी सिनेमा की प्रजातंत्र के प्रति यही समझ है।

अपने समय की सबसे चर्चित फिल्म रंग दे बसंती भी इससे अलग कहां हो पाती। पांच खिलंदड़े युवक, समाज और समझ से बेपरवाह। भगत सिंह और उनके साथियों को एक फिल्म के लिए अभिनित करते उनकी समझ गंभीर होती है। यह गंभीरता और घनी हो जाती जब उनके एक महिला साथी का मंगेतर प्लेन क्रैश में मारा जाता है। सरकार उसकी मौत को उसकी लापरवाही से जोड़ती है, जबकि सच्चाई यह है कि प्लेन की खरीद में भ्रष्टाचार हुआ था और गड़बड़ी प्लेन में थी। सरकार के इस स्टैंड के खिलाफ वे लोग एक व्यापक शांति पूर्ण आंदोलन की शुरूआत करते हैं ताकि मृतक पायॅलट को कम से कम वाजिब सम्मान मिल सके। लेकिन सत्ता इस विरोध का दमन करती है। अब उन पांचों मित्रों को कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखाई देता। वे रक्षा मंत्री की हत्या कर देते हैं और एक रेडियो स्टेशन पर कब्जा कर जनता तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करते हैं। अंततः कमांडो कारवाई होती है और वे मारे जाते हैं।युवाओं से संवाद करती यह फिल्म सीधे सीधे बैलेट नहीं,बुलेट के विकल्प को प्रेरित करती है।

हाल ही में आयी फिल्म ‘बस्तर में एक पुलिस अधिकारी अपने दम पर नक्सलियों से युद्ध लड रही है,और अपने आरामदेह कमरे में बैठ मंत्री भरसक उसकी लडाई को कमजोर करने में लगा है।मीटिंग में गृहमंत्री पूछता है,हमारे 76 जवान मारे गए,इसके लिए कौन जवाबदेह है? अधिकारी एक शब्द में उत्तर देता है,आप। और उसके बाद गृहमंत्री किसी सडकछाप शोहदे की तरह गाली गलौच पर उतर जाते हैं।कैसे भरोसा करे कोई अपने राजनीतिक नेतृत्व पर जो नक्सलवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर भी अपने लाभ के गुणा भाग में लगा है।

वर्षो पहले आयी अमिताभ बच्चन के ‘इन्कलाब’ को यदि भूल भी गये हों तो उसके अंतिम दृश्य को भुलाना शायद ही संभव है, जब अमिताभ बच्चन स्टेनगन से पूरे कैबिनेट को भून डालते हैं,क्योंकि सभी के सभी भ्रष्ट थे। ऐसा ही कुछ ‘शूल’ में भी देखा गया था जब अपराधियों को मिल रहे राजनीतिक संरक्षण से निराश होकर एक पुलिस अधिकारी हथियार उठा लेता है। हिन्दी सिनेमा में लगातार खून का बदला खून की कहानियां को देखते हुए हम इतने कंडीशंड हो चुके हैं कि ऐसी कहानियां हमें बेचैन नहीं करती। हम इसे सहजता से स्वीकार करते हैं। हम थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं कि ये सामान्य बदले की कहानियां नहीं हैं, ये ऐसी कहानी है जो हमारे प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है। जिसका प्रभाव तुरंत ही हमारे मन पर भले ही नहीं पड़ता हो, लेकिन कहीं न कहीं एक अविश्वास की गांठ जरूर मन में बना जाती है, और आश्चर्य नहीं कि हमारी सामान्य बात-चीत में लोकतंत्र के प्रति अविश्वास दिखने लगता है और तदन्तर हम आम चुनावों जैसे महत्वपूर्ण अवसर के प्रति भी निरपेक्ष हो जाते हैं।यही समय होता है जब डर्टी पालटिक्स जैसी फिल्में बनने लगती है।

मतलब उस दौर में सिनेम की भरसक कोशिश रही कि राजनीति से हम दूर रहें।सिनेमा किस तरह आम चुनावों से हमारा मोह भंग करते रही वह इससे भी समझ सकते हैं कि 2004 में 50 प्रतिशत से भी कम वोट डाले गए थे,जबकि 2014 में सबसे अधिक 66 प्रतिशत वोट डाले गए,और 2019 में 68 प्रतिशत।यह वही समय है जब राजनीति के प्रति देश भर में एक सकारात्मक वातावरण बनने की शुरुआत हुई थी।लोगों का अपने जनप्रतिनिधियों पर विश्वास बढ रहा था,जिससे सिनेमा भी अछूता नहीं रहा। उरी-द सर्जिकल स्ट्राइक,आर्टिकल 370 जैसी फिल्म ने भरोसा दिलाया कि हमारे जनप्रतिनिधि देशहित में किस तरह आगे बढ कर निर्णय लेने में समर्थ हैं।क्या आश्चर्य कि आम चुनाव के महत्व को रेखांकित करती कोई फिल्म भी शायद पहली बार आती है 2017 में,न्यूटन।आमतौर पर याद करना मुश्किल है कि किसी फिल्म में आम चुनाव जैसे अवसर को उसकी पूरी गरिमा के साथ चित्रित किया गया हो।

वास्तव में जब कोई चीज हमें मिल जाती है तो उसके महत्व से हम निरपेक्ष हो जाते हैं। मतदान की कीमत जाननी हो तो हमें उन मुल्कों के लोगों से रू-ब-रू होने की जरूरत है, जिन्होंने मतदान का स्वाद ही नहीं चखा।यह हमारी मानस, हमारी समझ का सम्मान है इसका विकल्प संभव नहीं। जरुरत है कि आर्टिकल 370 और न्यूटन जैसी फिल्में लगातार बने ताकि मतदान में भागीदारी के लिए आमजन को प्रोत्साहित करने में सिनेमा भी अपनी भूमिका का सार्थक निर्वहन कर सके।

रविवार, 31 मार्च 2024

नकली छवि पर भारी असली चेहरा




 बांग्ला देश के पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्र रहमान पर बांगलादेश फिल्म डेवलेपमेंट कारपोरेशन 83 करोड में फिल्म बनाती है,मुजीब-द मेकिंग आफ ए नेशन,जिसमें आधा बजट यानी लगभग 40 करोड रुपए भारत सरकार देती है।फिल्म का निर्देशन अपनी खास शैली के लिए के लिए प्रतिष्ठित श्याम बेनेगल करते हैं।हालीवुड की तो बात ही छोड दें, इसी के बरक्स देखें तो देश के सबसे सम्मानित राजनेता भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी पर केंद्रित फिल्म मैं अटल हूं 10 करोड में और देश के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बायोपिक पीएम नरेन्द्र मोदी लगभग 8 करोड में बनती है।...और हम कहते हैं कि भारत के राजनेताओं पर अच्छी बायोपिक क्यों नहीं बनती है..भारतीय नेताओं पर बनी बायोपिक को दर्शक क्यों अस्वीकार कर देते हैं।

रिचर्ड एटनबरो की गांधी अभी भी स्मृतियों में है,आज से 42 साल पहले वह फिल्म 2.2 करोड डालर के बजट से बनायी गई थी,जितने में दसियों शोले बनायी जा सकती थी।गांधी ने 8 आस्कर ही नहीं जीते,आज भी यह फिल्म टेलीविजन पर आने लगती है तो दर्शक ठहर जाते हैं।30 साल पहले 1993 में सरदार वल्लभ भाई पटेल पर बायोपिक सरदार लगभग 2 करोड के बजट में बनती है, और 2000 में डा.बाबा साहेब अम्बेदकर पर जब्बार पटेल 9 करोड में फिल्म बनाते हैं। यह सही है कि सिर्फ बजट से ही अच्छी फिल्म नहीं बनती,लेकिन यह भी सच है कि अच्छी फिल्म बनाने के लिए बजट की भी आश्यकता होती है।

किसी व्यक्ति पर जब कोई बोयोपिक बनाना आप तय करते हैं तो सबसे पहली चीज होती है,रिसर्च और फिर पटकथा।और कमाल यह कि सबसे कम खर्च हम इसी दोनों पक्ष पर करते हैं,बस अखबारी कतरनों के सहारे कोई कालजयी फिल्म की कल्पना भी कैसे की जा सकती है।आप फिल्म उतना भर ही दिखा कर नहीं बना सकते जो पब्लिक डोमेन पर वर्षों से घूम रही है।खास कर आज के सूचनाओं के इस दौर में जब लोगों के पास जानकारियों का अंबार है,आखिर कुछ तो ऐसा हो जो दर्शकों को सिनेमा घर तक आने के लिए उत्साहित कर सके।पौराणिक और ऐतिहासिक कथानक को हम बार बार देख सकते हैं,लेकिन समकालीन खबरों से हम इतने विज्ञ होते हैं कि उसके प्रति रुचि बनाने के लिए कुछ खास करना जरुरी होता है,जहां हिंदी फिल्में कमजोर पड जाती हैं। बायोपिक में भी उसका जोर कथा से अधिक सूचनाओं पर होता है,किसी के जीवन को कथा में ढालने के लिए श्रम और समय की आवश्यकता होती है,हिंदी सिनेमा जिसकी जरुरत ही नहीं समझ पाती।

अटल बिहारी वाजपेयी देश के सर्वमान्य नेताओं में रहे हैं।वे सत्ता में रहे,नहीं रहे,उनकी लोकप्रियता अप्रभावित रही।एक सर्वे के अनुसार देश के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री के रुप में नरेन्द्र मोदी पहले नंबर पर हैं,तो वाजपेयी जी अभी तक तीसरे नंबर पर अपनी जगह सुरक्षित रखी है।एक राजनेता के साथ उनकी पहचान एक संवेदनशील कवि की भी रही है।जमीन से उठकर दुनिया भर में अपने विचारों के साथ अपनी पहचान बनाने वाले इस विराट व्यक्तित्व को बायोपिक के नाम पर निबटाने की कोशिश की जाती है तो भला दर्शक क्यों स्वीकार करे।ठीक है,पंकज त्रिपाठी जैसे सिद्धहस्त अभिनेता उनके व्यक्तित्व को साकार करने में जी जान लगा देते हैं,लेकिन कहने के लिए बात ही नहीं हो तो अभिनेता क्या कर सकता।

ऐसा ही कुछ पीएम नरेन्द्र मोदी के साथ दिखा।क्या आश्चर्य नहीं कि नरेन्द्र मोदी जैसे जादुई व्यक्तित्व को साकार करने की जवाबदेही दी जाती है,हिंदी सिनेमा में हाशिए पर पडे अभिनेता विवेक ओबेराय को। यहां तक कि पटकथा और संवाद लिखने में भी विवेक हाथ आजमाते हैं।  जिस व्यक्ति को देखने और सुनने दुनिया के किसी भी कोने में लाखों की संख्या में लोग टूट पडते हैं,उस पर इतने अनमने तरीके कोई कैसे फिल्म परिकल्पित कर सकता है।फिल्म 2019 के चुनाव के पहले रिलीज की कोशिश की जाती है ,लेकिन होती चुनाव के बाद है।नरेन्द्र मोदी तो अपार बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनते हैं,लेकिन पीएम नरेन्द्र मोदी पूरी तरह खारिज कर दी जाती है।वाकई जब वास्तविक नरेन्द्र मोदी का जादुई आकर्षण सामने है ,तो कोई एक कमजोर सी नकल क्यों देखे।

वास्तव में बायोपिक के साथ फिल्मकार को अक्सर यह भ्रम होता है कि फिल्म तो उनके नाम पर चलेगी,जिन पर फिल्म बनी है।इसीलिए फिल्मकार का सारा जोर बस चरित्र के लुक की नकल उतारने पर रहता है।वे यह भूल जाते हैं कि धोनी और सुशांत सिंह के लुक में कोई समानता नहीं थी,मैरी काम और प्रियंका चोपडा एकदम अलग दिखते थे,बावजूद पटकथा और परिदृश्य जिसे निर्देशक ने रचा था,का कमाल यह था कि फिल्म शुरु होने के बाद कहीं अहसास ही नहीं होता कि परदे पर धोनी या मैरी काम नहीं है।शायद फिल्मकार यह समझ नहीं पाते कि दर्शक चेहरा देखने नहीं,कहानी देखने आ रहा है।दर्शक को सिनेमा में सिनेमा दिखाने की जवाबदेही तो सर्वप्रथम है,राजनेताओं पर बने बायोपिक में अक्सर यह चूक होती है।

बाल ठाकरे पर केंद्रित दो फिल्म बनती है,एक रामगोपाल वर्मा बनाते हैं सरकार,दूसरी उनकी बायोपिक के रुप में बनती है ठाकरेसरकार पसंद की जाती है और ठाकरे नकार दी जाती है।शायद इसलिए कि सरकार; एक औपान्यसिक कृति की तरह तैयार होती है,जबकि ठाकरे शुष्क जीवनी की तरह।अमिताभ बच्च्न ठाकरे नहीं लगते हुए भी ठाकरे की भूमिका में स्वाकीर्य होते हैं,नवाजुद्दीन ठाकरे लगते हुए भी अस्वीकर्य। कंगना काफी शिद्दत से जयललिता का बायोपिक थलाइवी बनाती है,लेकिन जयललिता की अपार लोकप्रियता भी फिल्म को नहीं बचा पाती।आश्चर्य नहीं नितीन गडकरी की बायोपिक गडकरी सिर्फ महाराष्ट्र के सिनेमाघरों में रिलीज की जाती है।

भारत में समकालीन राजनेताओं पर बन रही बायोपिक की असफलता की सबसे बडी वजह ईमानदारी का अभाव दिखता।हम इसलिए नरेन्द्र मोदी या अटल बिहारी वाजपेयी पर फिल्म नहीं बनाते कि उनके प्रति हमारी श्रद्धा है,या उनके विचारों के प्रति विश्वास।इसलिए बनाते हैं कि हमें उम्मीद होती है कि जैसे तैसे भी फिल्म बन जाएगी तो उनकी लोकप्रियता फिल्म को संभाल लेगी।

रविवार, 21 जनवरी 2024

सिनेमा से अनुपस्थित रहे हैं, हमारे मंदिर

 



मंदाकिनी नदी के किनारे हिमालय की पहाडियों से घिरे केदारनाथ मंदिर अपने स्थापत्य के कारण ईश्वरीय सत्ता को मानने को बाध्य करता है,इसलिए भी कि 2013 में केदार नाथ में आए भीषण सैलाब में जब सब कुछ बह गया था,मंदिर की रक्षा के लिए उसके सामने एक चट्टान आ गया और सैलाब की धारा बदल गई,मंदिर पर खरोंच तक नहीं आई। इसके पहले के वैज्ञानिक शोध भी बताते हैं कि लगभग 400 वर्षों तक यह मंदिर ग्लेशियर में दबा रहा।अंदाजा भी नहीं लगा सकते इस विलक्ष्ण मंदिर का निर्माण कब हुआ होगा,क्या वे मानव ही रहे होंगे जिन्होंने हजारों वर्षों पहले जब वहां तक पहुंचने की कोई सुविधा नहीं होगी,उस समय हिमालय की गोद में इसका निर्माण किया होगा। संतोष कर सकते हैं कि करोडों लोगों के आस्था के इस अद्भुत निर्माण को केन्द्र में रख कर केदारनाथ फिल्म भी बनी,गौरतलब है सिर्फ एक।इसके अतिरिक्त शायद ही किसी फिल्मकार ने इसके प्राकृतिक सौंदर्य या विलक्ष्ण स्थापत्य को दिखाने की आवश्यकता समझी।

इसके बरक्स हूमायूं का मकबरा याद करें तो बजरंगी भाईजान,कुरबान,वीरजारा,फना,झूम बराबर झूम,मेरे ब्रदर की दुल्हन और पी के जैसी 100 से भी अधिक फिल्मों में यह पूरी भव्यता के साथ दिखाया गया।पचासों गाने फिल्माए गए।इसका निर्माण 1570 में हुमायूं की विधवा हमीदा बेगम ने करवाया था।लाल बलुआ पत्थर से निर्मित इस मकबरे को 1993 में यूनेस्को ने वर्ल्ड हेरिटेज में भी शामिल किया। कहा जाता है,इसी मकबरे से प्रेरित होकर शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल की याद में ताजमहल का निर्माण करवाया,जिसे दुनिया के आश्चर्य में गिना जाता है,क्यों गिना जाता,यह अलग विमर्श का विषय है।सच यह है कि हिंदी सिनेमा भी खूबसूरत स्थापत्य के नाम पर ताजमहल से आगे कभी नहीं सोच सका।1941 में नानू भाई,1963 में एम सादिक और 2005 में अकबर खान के ताजमहल के कथानक पर बनी फिल्म के साथ लगभग 500 से भी अधिक फिल्मों में ताजमहल की भव्यता को किसी न किसी रुप में दिखाने की बात कही जा सकती है,बंटी और बबली जैसी कुछेक फिल्मों में सोद्देश्य तो अधिकांश में निरुद्देश्य ही,बस इसलिए कि एक खूबसूरत लोकेशन उन्हें दिखाने की जरुरत होती है।

किंचित आश्चर्य कि हिंदी सिनेमा को जब भी खूबसूरत लोकेशन की आवश्यकता होती है,उसके जेहन में आमतौर पर मकबरों का ही ख्याल आता है।कभी सिनेमा में मुंबई की पहचान ही हाजी अली से होती थी।सुभाष घई की फिल्म परदेस आई लव माई इंडिया... के लिए ही याद नहीं किया जाता,दो दिल मिल रहे हैं...के लिए भी याद किया जाता है।जिस गाने में पूरे विस्तार से फतेहपुर सिकरी के मस्जिद की भव्यता दिखाई गई है।जिसका निर्माण अकबर ने सलीम चिश्ती के लिए करवाया था,जिसने उसके पिता बनने की भविष्य की थी।सलीम चिश्ती के नाम पर ही अकबर ने अपनी पहली संतान का नाम भी सलीम रखा था।मस्जिद के उत्तर में सलीम चिश्ती की दरगाह भी है। कहते हैं इसका निर्माण मक्का की मस्जिद के नकल पर किया गया था। कोई शक नहीं कि न हिंदू बनेगा,न मुसलमान बनेगा की बात करने वाला हिंदी सिनेमा मस्जिदों, दरगाहों पर तो सहज रहता, मंदिरों को दिखाने के नाम पर असहज हो जाता।

जबकि सौंदर्य की दृष्टि से हों,धरोहर की दृष्टि से हों,पौराणिक महत्व की दृष्टि हों या फिर आस्था की दृष्टि से भारत में सौ से अधिक ऐसे मंदिर होंगे,जिनका सौंदर्य और स्थापत्य अतुलनीय माना जा सकता है।दुनिया भले ही नजरें चुरा रही हो,अपनी कारीगरी से वे हजारों साल बाद भी देखने वालों को विस्मित कर रही हैं।50 रुपए के नोट पर छपे हम्पी के मंदिर की ही बात करें,विजयनगर साम्राज्य के समृदधि और स्थापत्य के प्रतीक के रुप में इस मंदिर को देखा जा सकता है।यूनेस्को ने भी इसे वर्ल्ड हेरिटेज में शामल किया है।द्रविड स्थापत्य शैली में बना भगवान शिव का यह मंदिर अपनी भव्यता और महीन कारीगरी के लिए आज भी चकित करता है। कर्नाटक में ही होयसलेश्वर मंदिर के अद्भुत स्थापत्य की कल्पना बगैर देखे नहीं की जा सकती। सोपस्टोन से बना यह मंदिर अपनी मूर्तियों, महीन नक्काशी, विस्तृत चित्र श्रंखला के साथ-साथ अपने इतिहास, प्रतिमा विज्ञान, उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय लिपियों में शिलालेखों के लिए विश्व भर के पुरातत्व प्रेमियों को आकर्षित करता है।

हिंदी सिनेमा का मंदिरों से एक हद तक परहेज इसी अर्थ में समझा जा सकता है कि किसी मकबरे की शूटिंग के लिए वे पूरे क्रू के साथ हजार किलोमीटर की यात्रा कर सकते,लेकिन नजदीक के मंदिर को वे महत्व देना नहीं चाहते।क्या कमाल है मंदिर के लिए फिल्मिस्तान के मंदिर से काम से चल जाता,मस्जिद तो अजमेर शरीफ का ही जाहिए। वास्तव में हिंदी फिल्मकारों के कई पूर्वाग्रहों में एक यह भी है कि सूफी, कव्वाली, मकबरा, दरगाह जैसे इस्लाम से जुडी चीजें तो आम दर्शकों को स्वीकार्य होंगी,लेकिन हिंदू धर्म से जुडे पहचान उनकी छवि खराब कर देंगे। वे भूल जाते हैं कि यही दर्शक हैं जिसने शोले के साथ जय संतोषी मां को भी सरमाथे पर बिठाया था।

इस पूर्वाग्रह में निश्चित रुप से अहम भूमिका वामपंथी इतिहासकारों और स्वतंत्रता के बाद की सरकारों की भी मानी जा सकती है,जिन्होंने मात्र ताजमहल,कुतुब मीनार जैसे कथित इस्लामिक स्थापत्य को भारतीय पहचान के रुप में स्थापित किया,जबकि मंदिरों के स्थापत्य को भरसक छिपाए रखने की कोशिश की। खजुराहो मंदिर, कोणार्क मंदिर, कांची मंदिर, दिलवाडे का मंदिर, एलोरा का कैलाश मंदिर, मीनाक्षी मंदिर, तंजावुर मंदिर, रामेश्वरम, सोमनाथ देश के हर क्षेत्र में अपने अप्रतिम सौंदर्य और हजारों वर्षों के भारतीय स्थापत्य और ज्ञान की विरासत अपने में समेटे मंदिर उपस्थित हैं।हिंदी सिनेमा की सीमा वह नहीं देख पाती,या देखना नहीं चाहती।

ऐसे में अभिषेक वर्मन की फिल्म 2 स्टेट्स की याद आना स्वभाविक है,जिसके अंतिम दृश्यों में महाबलीपुरम का आठवीं शताब्दी में निर्मित तटीय मंदिर कहानी को पूर्णता देता है,जहां नायक कृष(अर्जुन कपूर) और नायिका अनन्या(आलिया भट्ट) का विवाह हो रहा होता है।एक सामान्य से विवाह के दृश्य को एक प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर की उपस्थिति कितना भव्य बना देती है,आने वाले दिनों में हिंदी सिनेमा शायद यह समझने को तैयार हो सके।