रविवार, 21 अप्रैल 2024

हिंदी सिनेमा की लोकतंत्र की कच्ची समझ

 


दो किस्म के नेता होते हैं

इक देता है इक पाता है

एक देश को लूट के खाता है

इक देश पे जान लुटाता है

राम न करे मेरे देश को

कभी भी ऐसा नेता मिले

जो आप भी डूबे देश भी डूबे

जनता को भी ले डूबे...

 

अंतरा भले ही याद न हो,1970 में रिलीज मनोज कुमार की फिल्म यादगार के इस गाने के बोल अवश्य आपको याद होंगे,एकतारा बोले तुन तुन तुन...। 50 साल से अधिक हो गए,समय के साथ हिंदी सिनेमा ने देश पर जान लुटाने वाले नेताओं की चर्चा ही बंद कर दी,और अपनी सारी तवज्जो एक ही किस्म के नेता पर केंद्रित कर दिया,जो देश को लूट के खाता है बंटी और बबली जैसी हास्य फिल्म हो,या फिर इन्क्लाब और इंडियन जैसी एक्शन फिल्म या फिर सत्याग्रह और राजनीति जैसी गंभीरता से मुद्दे रखने की कोशिश करती फिल्में,ये और इस तरह की तमाम फिल्में सिरे से जनप्रतिनिधियों को भ्रष्ट और अपराधी चित्रित करने में कोई संकोच नहीं करती। यदि हर वर्ष बनने वाली भारतीय फिल्मों के आधार पर कोई अध्ययन हो तो सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि भारत के सभी राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं,अपराधी हैं,वहां जनतंत्र की कोई संभावना नहीं।सारा समाधान हथियारों से ही संभव है।

क्या आश्चर्य कि प्रकाश झा जैसे जवाबदेह फिल्मकार अन्ना आंदोलन को केंद्र में रख कर सत्याग्रह बनाते हैं। सत्याग्रह दर्शकों को यह लगातार मनवाने की कोशिश में दिखती है कि कोई भी जन आंदोलन अब स्वतः खडा नहीं हो सकता। उसे आधुनिक गिमिकस के सहारे ही खडा किया जा सकता है।भ्रष्टाचार के विरोध में आमरण अनशन पर बैठे द्वारिका आनंद की हालत नाजुक हो रही है,सरकार झुकने के लिए तैयार नही।एक व्यक्ति समर्थन में आत्मदाह कर लेता है, किसी भी जन आंदोलन की इससे गलीज भूमिका नहीं दिखाई जा सकती, कि आंदोलन का नेतृत्व मौत से संवेदनहीन उस लाश के राजनीतिक उपयोग पर विमर्श में लगा दिखता है।नायक कहता है सरकार पर दवाब बनाने के लिए अब लोगों का सडकों पर निकलना जरुरी है।और देखते देखते आंदोलनकारी हाथों में ए के 47 और तलवारों के साथ दौडते दिखाई देने लगते है। प्रकाश झा अलग क्यों दिखें,जब हिन्दी सिनेमा की प्रजातंत्र के प्रति यही समझ है।

अपने समय की सबसे चर्चित फिल्म रंग दे बसंती भी इससे अलग कहां हो पाती। पांच खिलंदड़े युवक, समाज और समझ से बेपरवाह। भगत सिंह और उनके साथियों को एक फिल्म के लिए अभिनित करते उनकी समझ गंभीर होती है। यह गंभीरता और घनी हो जाती जब उनके एक महिला साथी का मंगेतर प्लेन क्रैश में मारा जाता है। सरकार उसकी मौत को उसकी लापरवाही से जोड़ती है, जबकि सच्चाई यह है कि प्लेन की खरीद में भ्रष्टाचार हुआ था और गड़बड़ी प्लेन में थी। सरकार के इस स्टैंड के खिलाफ वे लोग एक व्यापक शांति पूर्ण आंदोलन की शुरूआत करते हैं ताकि मृतक पायॅलट को कम से कम वाजिब सम्मान मिल सके। लेकिन सत्ता इस विरोध का दमन करती है। अब उन पांचों मित्रों को कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखाई देता। वे रक्षा मंत्री की हत्या कर देते हैं और एक रेडियो स्टेशन पर कब्जा कर जनता तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करते हैं। अंततः कमांडो कारवाई होती है और वे मारे जाते हैं।युवाओं से संवाद करती यह फिल्म सीधे सीधे बैलेट नहीं,बुलेट के विकल्प को प्रेरित करती है।

हाल ही में आयी फिल्म ‘बस्तर में एक पुलिस अधिकारी अपने दम पर नक्सलियों से युद्ध लड रही है,और अपने आरामदेह कमरे में बैठ मंत्री भरसक उसकी लडाई को कमजोर करने में लगा है।मीटिंग में गृहमंत्री पूछता है,हमारे 76 जवान मारे गए,इसके लिए कौन जवाबदेह है? अधिकारी एक शब्द में उत्तर देता है,आप। और उसके बाद गृहमंत्री किसी सडकछाप शोहदे की तरह गाली गलौच पर उतर जाते हैं।कैसे भरोसा करे कोई अपने राजनीतिक नेतृत्व पर जो नक्सलवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर भी अपने लाभ के गुणा भाग में लगा है।

वर्षो पहले आयी अमिताभ बच्चन के ‘इन्कलाब’ को यदि भूल भी गये हों तो उसके अंतिम दृश्य को भुलाना शायद ही संभव है, जब अमिताभ बच्चन स्टेनगन से पूरे कैबिनेट को भून डालते हैं,क्योंकि सभी के सभी भ्रष्ट थे। ऐसा ही कुछ ‘शूल’ में भी देखा गया था जब अपराधियों को मिल रहे राजनीतिक संरक्षण से निराश होकर एक पुलिस अधिकारी हथियार उठा लेता है। हिन्दी सिनेमा में लगातार खून का बदला खून की कहानियां को देखते हुए हम इतने कंडीशंड हो चुके हैं कि ऐसी कहानियां हमें बेचैन नहीं करती। हम इसे सहजता से स्वीकार करते हैं। हम थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं कि ये सामान्य बदले की कहानियां नहीं हैं, ये ऐसी कहानी है जो हमारे प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है। जिसका प्रभाव तुरंत ही हमारे मन पर भले ही नहीं पड़ता हो, लेकिन कहीं न कहीं एक अविश्वास की गांठ जरूर मन में बना जाती है, और आश्चर्य नहीं कि हमारी सामान्य बात-चीत में लोकतंत्र के प्रति अविश्वास दिखने लगता है और तदन्तर हम आम चुनावों जैसे महत्वपूर्ण अवसर के प्रति भी निरपेक्ष हो जाते हैं।यही समय होता है जब डर्टी पालटिक्स जैसी फिल्में बनने लगती है।

मतलब उस दौर में सिनेम की भरसक कोशिश रही कि राजनीति से हम दूर रहें।सिनेमा किस तरह आम चुनावों से हमारा मोह भंग करते रही वह इससे भी समझ सकते हैं कि 2004 में 50 प्रतिशत से भी कम वोट डाले गए थे,जबकि 2014 में सबसे अधिक 66 प्रतिशत वोट डाले गए,और 2019 में 68 प्रतिशत।यह वही समय है जब राजनीति के प्रति देश भर में एक सकारात्मक वातावरण बनने की शुरुआत हुई थी।लोगों का अपने जनप्रतिनिधियों पर विश्वास बढ रहा था,जिससे सिनेमा भी अछूता नहीं रहा। उरी-द सर्जिकल स्ट्राइक,आर्टिकल 370 जैसी फिल्म ने भरोसा दिलाया कि हमारे जनप्रतिनिधि देशहित में किस तरह आगे बढ कर निर्णय लेने में समर्थ हैं।क्या आश्चर्य कि आम चुनाव के महत्व को रेखांकित करती कोई फिल्म भी शायद पहली बार आती है 2017 में,न्यूटन।आमतौर पर याद करना मुश्किल है कि किसी फिल्म में आम चुनाव जैसे अवसर को उसकी पूरी गरिमा के साथ चित्रित किया गया हो।

वास्तव में जब कोई चीज हमें मिल जाती है तो उसके महत्व से हम निरपेक्ष हो जाते हैं। मतदान की कीमत जाननी हो तो हमें उन मुल्कों के लोगों से रू-ब-रू होने की जरूरत है, जिन्होंने मतदान का स्वाद ही नहीं चखा।यह हमारी मानस, हमारी समझ का सम्मान है इसका विकल्प संभव नहीं। जरुरत है कि आर्टिकल 370 और न्यूटन जैसी फिल्में लगातार बने ताकि मतदान में भागीदारी के लिए आमजन को प्रोत्साहित करने में सिनेमा भी अपनी भूमिका का सार्थक निर्वहन कर सके।