शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

सनी लियोनी की स्वीकार्यता के मायने




सनी लियोनी ने प्रियंका चोपडा,करीना कपूर के साथ अभी तक स्क्रीन भले ही शेयर नहीं किया हो,लेकिन 'लक्मे फैशन वीक' जैसे आयोजन में शो स्टापर की भूमिका में सनी ने इनके साथ रैम्प शेयर कर बता दिया कि हिन्दी सिनेमा में अब जल्दी ही उनकी हैसियत को वह चुनौती दे सकती हैं। सनी की फिल्में चलें न चलें, सनी चल रही है। कभी मल्लिका शेरावत के लिए हाय तौबा मचाने वाला हिन्दी सिनेमा अब सनी लियोनी को सर पर बिठाए घूम रहा है। उसे न अभिनय आता है, न ही हिन्दी, बावजूद इसके वह हिन्दी सिनेमा की स्टार है। स्टार याने जिसके नाम से फिल्में बिकती हैं,चलती हैं।वह 'कांति शाह' की नायिकायों की तरह हिन्दी सिनेमा के हाशिए पर नहीं, मुख्यधारा में शामिल है। शर्लिन चोपडा और पूनम पांडे की तरह उससे अछूत की तरह व्यवहार नहीं किया जा रहा। हिन्दी सिनेमा के तमाम बडे सितारे अवार्ड इवेंट्स में सनी के साथ थिरकने को तैयार हैं।बडी कंपनियों के इंडोर्समेंट उसे मिल रहे हैं। टेलीविजन शो में वह परफार्म कर रही है। कपिल शर्मा ने कुछ ही दिन पहले 'कामेडी नाइट विद कपिल' में सनी को बुलाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि यह पारिवारिक शो है,अब वही कपिल सनी के साथ रागिनी एम एम एम2' का प्रमोशन करते दिख रहे हैं, अपने उसी पारिवारिक शो में।

सनी को हिन्दी सिनेमा में लाने का श्रेय जाता है महेश भट्ट को।पता नहीं 'बिग बॉस' के घर में समय बिता रही सनी में उन्होंने कौन सी अभिनय प्रतिभा देख ली कि बगैर शो के खत्म होने की प्रतीक्षा के वे 'जिस्म2' में मेन लीड का आफर लेकर 'बिग बॉस' के घर पहुंच गए। यह तो महेश भट्ट ही बता सकते हैं कि सनी में आखिर कौन सा स्पार्क उन्हें दिख गया था। क्योंकि इसके पहले सनी जिस रुप में आम दर्शकों के लिए उपलब्ध थी वहां चाहे और जो कुछ दिखता हो अभिनय की तो गुंजाइश नहीं ही थी। यह भारतीय मानस पर महेश भट्ट की पकड ही थी कि उन्होंने सनी के इतिहास को छिपाने की कोई कोशिश नहीं की,बल्कि कह सकते हैं उसके पोर्न इंडस्ट्री से जुडे होने को उन्होंने उसकी यू एस पी के रुप में इस्तेमाल किया। भारतीय समाज में जहां नैतिकता के रेशे से बंधे रहने में लोग अभी भी खुशी महसूस करते हैं, जहां अभी भी वैधानिक रुप से पोर्न उद्योग पूरी तरह प्रतिबंधित है,देखना तक भी। वहां यह यकीन वाकई महेश भट्ट ही कर सकते थे कि हिन्दी दर्शक उसे नायिका के रुप में स्वीकार करेंगे, जिसे 'मैक्सिम' जैसी पत्रिका 2010 में ही टॉप 12 पोर्न स्टार में शामिल कर चुकी हो। महेश भट्ट का यह यकीन गलत भी साबित नहीं हुआ,रणदीप हुडा,अरुणोदय सिंह जैसे सितारों की मामूली सी फिल्म को सनी के आकर्षण ने कमाऊ बना दिया। हालांकि सनी के लिए 'जिस्म2' में अपनी बनी बनायी इमेज से अलग कुछ करना नहीं था,बावजूद इसके हिन्दी दर्शकों के बीच अपनी एक फैन फोलोइंग बनाने में वह सफल रही। आश्चर्य नहीं कि अनिल कपूर, जॉन अब्राहम,कंगना राणावत अभिनीत मल्टीस्टारर 'शूटआउट एट वडाला' में एक खास आयटम नंबर के लिए सनी को साइन किया गया। कहा जा सकता है इस आयटम नंबर के साथ सनी घर घर दिखने ही नहीं लगी,उसकी स्वीकार्यता भी आम हो गई। और आज एकता कपूर जैसा ब्रांड सनी के साथ खडी है।'रागिनी एम एम एस2' कमाई में पहले का रिकार्ड तोडने को तैयार है। भोजपुरी फिल्मों की अश्लीलता से परहेज करने वाली हर मल्टीप्लेक्स में सनी के न्यूड पोस्टर लहरा रहे हैं।

यदि बोल्ड दृश्यों से जोड कर देखें तो सनी की उपस्थिती न तो चकित करती है,न ही चिंतित। हिन्दी सिनेमा ने बी और सी ग्रेड के नाम पर कहीं अधिक नग्नता का बोझ उठाया है। सवाल है पोर्न इंडस्ट्री के एक जाने माने चेहरे की स्वीकार्यता का। कहीं न कहीं महेश भट्ट का नाम जुडा होने से हिन्दी सिनेमा में सनी का खैरमकदम किसी क्रांतिकारी की तरह ही हुआ था।सामाजिक हल्कों में भी उसकी उपस्थिती की यह कहते हुए सराहना की गयी कि अपने अतीत की गलतियों से छुटकारा पाने का हक सबों को मिलना चाहिए।सोशल साइट्स पर महिलाओं के काम के चयन के निर्णय की आजादी के नाम पर उसके पोर्न उद्योग से जुडे अतीत को भी सम्मानित करने की कोशिशें की गयी। सवाल है क्या पोर्न को किसी सामान्य काम की तरह देखा जा सकता है,यदि कोई मजबूरी में जुडता है तो उससे सहानुभूति भले ही हो सकती है,लेकिन एक सामान्य काम की तरह पोर्न को कैसे प्रतिष्ठा दी जा सकती है। महेश भट्ट जैसे लोगों ने तो सनी को साहस का प्रतीक बताने से भी संकोच नहीं किया।वास्तव में सारा मामला मार्केटिंग का है,न्यूड माडलिंग कर लोकप्रियता के लिए पूनम पांडे छटपटाती रह जाती है और हम अपना सारा सद्भाव सनी पर उडेल देते हैं।

वाकई सनी को साहसी मानने में संकोच नहीं होता यदि पोर्न इंडस्ट्री से उसका जुडना किसी मजबूरी के कारण होता।सनी स्वयं गर्व के साथ बताती है कि यह उसका निजी चयन था। भारतीय मूल की अमेरिकन कनाडियन नागरिक सनी को बेहतर परिवार और पारिवारिक सुविधाएं हासिल थी।पढाई पूरी कर उसने नर्सिंग भी ज्वाइन की,लेकिन अमीर बनने की ललक में उसने 'पेंटहाउस' और 'हस्लर' जैसी पत्रिकाओं में न्यूड माडलिंग की शुरुआत की जो अंततः पोर्न इंडस्ट्री तक उसे ले ही नहीं गई,सनी ने अपना स्टूडियो, अपना वेबसाइट खोलकर इंडस्ट्री को मजबूत भी करने की कोशिश की।आश्चर्य नहीं कि हिन्दी सिनेमा से जुडने के बाद भी सनी पोर्न से दूरी नहीं बना सकी।बल्कि इस अवसर का उपयोग उसने पोर्न इंडस्ट्री में अपनी स्थिति मजबूत करने में की। यह हिन्दी सिनेमा का ही कमाल माना जा सकता है कि इंटरनेट पर एक पोर्न स्टार सचिन तेंदुलकर और ऐश्वर्या राय से अधिक सर्च किया जाने लगे। आज भी सनी अपनी पोर्न फिल्मों पर उसी तरह बात करती है जैसे कोई अभिनेत्री अपनी शुरुआती फिल्मों पर करती है।जब वह कहती है मेरे पापा या परिवार ने कभी मेरे काम पर कोई आपत्ति नहीं की,तो समझना मुश्किल होता है वह क्या संदेश देना चाहती है कि नर्सिंग छोड कर पोर्न फिल्मों में उतरना उसका सही कदम था। सनी की बातचीत अब किसी एडल्ट साइट की मोहताज नहीं,प्रतिष्ठित हिन्दी अखबारों के पूरे पेज पर वह आ रही है,और हिन्दी समाज पोर्न को एक सामान्य काम की तरह माने जाने की उसकी वकालत पर तारीफ में जुटा है। भारतीय समाज में वाल्मिकी हर काल में स्वीकार्य रहे हैं, आपत्ति सनी की स्वीकार्यता पर भी नहीं होती,यदि सनी अपने अतीत को गौरवान्वित करने की कोशिश नहीं करती।लेकिन सनी की हमेशा कोशिश पोर्न को गौरवान्वित करने की रही है,शायद इसलिए कि हिन्दी सिनेमा उसके लिए माध्यम भर है, अपनी पोर्न के व्यवसाय के विज्ञापन का।कुछ ऐसे ही जैसे लक्ष्य बैगपाइपर शराब बेचना होता है,लेकिन बेचा बैगपाइपर मिनरल वाटर है।  

जाहिर तौर पर यह भारतीय समाज में पोर्न उद्योग को सम्मानित और स्वीकार्य बनाने की शुरुआत है। अगली कडी में 'शांति डाइनामाइट' हिन्दी सिनेमा की प्रतीक्षा सूची में है। यदि समय रहते इसे नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की गई तो हमें तैयार रहना होगा कि यहां भी नर्सिंग के स्थान पर पोर्न के चयन को तरजीह दी जाने लगेगी,इस उम्मीद पर कि हिन्दी सिनेमा के रास्ते सुगम हो जायेंगे।

महिला सशक्तिकरण से आगे की कथा कहती क्वीन


पेरिस पहुंच कर भी निर्देशक का कैमरा नहीं भटकता हो तो उनके धैर्य को दाद देनी ही पडेगी। आमतौर पर हिन्दी सिनेमा में विदेशी लोकेशन का अर्थ वहां की सडकें,मकानें,पार्क,समुद्र,पहाड,झरने ही रहे हैं।बाकी की तो बात ही छोड दे,संगम’,’दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे से लेकर जब तक है जान तक विदेश पहुंचते ही कैमरे की कोशिश अधिक से अधिक खूबसूरत ,नयनाभिराम दृश्यों को समेट लेने भर की दिखती रही है ताकि दर्शकों को विस्मित किया जा सके। विकास बहल की क्वीन इस मायने में असाधारण फिल्म है कि दो तिहाई से अधिक पेरिस और एमस्टर्डम में शूट होने वाली इस फिल्म में शहर उतना ही दिखता है,जितना कहानी के लिए अनिवार्य होता है। यहां पेरिस की उपस्थिती कहानी को विचलित नहीं करती,मजबूती प्रदान करती है।यहां तक कि एफिल टावर के पास जाकर भी फिल्मकार दर्शकों को एफिल टावर देखने का अवसर नहीं देता। परदे पर एफिल टावर दिखता है,लेकिन उतना ही,जितना पात्र देखता है।विदेश में फिल्मायी गयी हिन्दी की यह शायद पहली फिल्म होगी,जिसमें कहानी और पात्र से इतर कुछ नहीं दिखता।

अंतर्राष्ट्रीय होने की कई परिभाषाएं हो सकती हैं, देशों की सीमाओं से परे मानवीय संवेदना को स्थापित करने के कारण भी यदि किसी फिल्म को अंतरराष्ट्रीय माना जा सकता है तो क्वीन शायद हिन्दी की पहली फिल्म होगी।अकेले पेरिस घूमने वाली रानी(कंगना राणावत) को अमस्टर्डम में तीन रुममेट मिलते हैं,एक जापानी,एक रसियन और एक अफ्रिकन। रानी उनकी भाषाएं नहीं जानती,वे रानी की भाषा नहीं समझते,लेकिन साथ रहते चारों की अद्भुत बांडिंग बन जाती है। बाथरुम में छिपकिली देख कर रानी की चीख निकल जाती है, वह निकल कर भागती है,बाद में वे तीनों भी झांकने जाते हैं और उसी तरह चीख मार कर भागते हैं,उन्हें किसी भाषा की जरुरत नहीं होती।ये चारों एक दूसरे की भाषा नहीं समझते,लेकिन एक दूसरे की भावनाएं समझते हैं।और बगैर कोई रिश्ता कायम किए एक दूसरे के लिए खडे होते हैं,रिश्ता मतलब कायदे की दोस्ती भी नहीं दिखती उनके बीच,बस एक ही रिश्ता दिखता है,आदमी होने का। जब औरत मर्द के रिश्ते में सेक्स को अनिवार्य ही नहीं,सहज भी माना जाता हो,वहां तीन अजनबी पुरुषों के साथ संबंध को जिस कोमलता और सहजता से बगैर किसी नाटकियता के विवेक स्वीकार्य बनाते हैं,चकित करता है।

फिल्म में अलग अलग देशों के कई चरित्र है,और वे सब अपनी अपनी पहचान के साथ कहानी मे गुंथे हैं। न तो रानी पर फ्रेंच सीखने का दवाब दिखता है,न ही रानी किसी को हिन्दी सीखने के लिए प्रेरित करती है,बस एक स्वभाविक भावनात्मक रिश्ते में लोग जुडते चले जाते हैं। पूरी फिल्म में सभी अपनी अपनी भाषा में बात करते हैं, दर्शकों को भी न तो कही डबिंग की जरुरत महसूस होती है,न ही सबटाइटिल की। वास्तव में क्वीन वैश्विक भाइचारे का कोई संदेश नहीं देती,बस स्मारित करती है कि सीमा,भाषा और रंग बदलने से लोग नहीं बदल जाते।

स्वाद के लिए मशहूर एक रेस्टोरेंट मालिक को रानी अपने खाने को भारतीय मशाले से बेहतर बनाने का सुझाव देती है। सुझाव से चिढा वह फ्रेंच मालिक एक दिन खाना बनाने की एक प्रतियोगिता में रानी को अपने भारतीय खाने के साथ शामिल होने की चुनौती देता है। रानी अपने तीनों जापानी,रसियन और अफ्रिकन साथी के साथ मिल कर गोल गप्पे बनाती है,और सबसे अधिक बिक्री की चुनौती जीत लेती है। चार देश के लोग मिलकर गोलगप्पे बना रहे हैं,और पांचवे के लोग खा रहे हैं,अद्भुत।यह विकास बहल की पटकथा और निर्देशन की कुशलता है कि ये सारी घटनाएं कहानी के विस्तार में अपने स्वभाविक रौ में आती हैं।अमस्टर्डम में ही उसकी मुलाकात एक पाकिस्तानी लडकी होती है जो एक सेक्स क्लब में काम कर रही है। रानी का परिचय देते ही फ्रेंच में बातचीत की शुरुआत करने वाली वह लडकी खालिस उर्दू में बात करने लगती है। रानी जब उसके काम पर टिप्पणी करती है तो वह कहती है,परिवार की सबसे बडी बेटी थी,अब बेटा बन कर परिवार पाल रही हूं।

वास्तव में यदि महिला सशक्तिकरण का अर्थ महिलाओं का सिर्फ ताकत से सशक्त होना नहीं,बल्कि मन से सशक्त होना है तो विकास बहल अपनी क्वीन को बगैर किसी दावे के आहिस्ते के साथ एक प्रतीक के रुप में दर्शकों के सामने स्थापित करते हैं। यूं तो क्वीन के हरेक दृश्यों पर विस्तार से बात की जा सकती है,लेकिन कुछ दृश्यों में विकास जिस सहजता से विषय को रेखांकित करते जाते हैं,विस्मित करती है।इसलिए नहीं कि दृश्य भव्य हैं,संवाद में गंभीर बात कही जा रही हो,विस्मित अपने नएपन और सार्थकता के कारण करती है।पेरिस में वह रात मे  अकेले सूने सडक से गुजर रही होती है।एक गुंडा उसका बैग छीन कर भागने की कोशिश करता है।पहली बार विदेश गयी रानी बगैर धैर्य खोये बैग की कसकर पकड लेती है, उस अनजान मुल्क की सडक पर अपनी ही भाषा में चीखती है,चिल्लाती है।पकड मजबूत बनाने के लिए वह बैग पकडे हाथों को पैर के बीच दबा लेती है,और बीच सडक पर लोट जाती है।आस पास से लोगों की आवाजें आने लगती है और अंततः वह हट्ठे कट्ठे गुंडे से अपने बैग बचा लेती है।  

रानी राजौरी गार्डन की एक आम लडकी है।पारिवारिक दोस्त के बेटे विजय(राज कुमार राव) से उसकी शादी हो रही है। विजय रानी को पहली ही नजर में दिल दे बैठा था और लगातार पीछा कर रानी को प्रभावित करने में सफल रहा था।लेकिन अब जबकि दो दिन बाद शादी होने वाली है,लंदन से इंजीनियरिंग पढ कर लौटा विजय रानी के देशज व्यक्तित्व के कारण शादी से इन्कार कर देता है।रानी कोई कारण समझ नहीं पाती और टूट जाती है।लेकिन दादी के हिम्मत देने पर वह अपने आपको संभालती है और हनीमून के लिए पेरिस में आरक्षित होटल में अकेले समय बिताने के लिए निकल पडती है। यह वही रानी है जो अपने मंगेतर से भी मिलने अपने छोटे भाई के साथ जाती है। लेकिन अब विजय ने हनीमून पर जो सब दिखाने की उम्मीदे बधायीं थी,रानी वह सब कुछ देख लेना चाहती है।

होटल में ही उसकी मुलाकात रुम अटेंडेंट विजयलक्ष्मी(लीजा हेडेन) से होती है।वह सिंगल मदर है, उसे शराब और सेक्स से परहेज नहीं। लेकिन रानी के लिए वह मायने नहीं रखता, मायने रखता है विजयलक्ष्मी का सद्भाव।विजयलक्ष्मी के साथ एक नई दुनिया से वह रु ब रु होती है।यहां सबसे महत्वपूर्ण उसकी इच्छाएं आकांक्षाएं हैं।विजयलक्ष्मी उसका ख्याल रखती है,लेकिन किसी बडी बहन की तरह नहीं,दोस्त की तरह एक स्पेश देते हुए। विकास की खासियत है कि क्वीन में वे महिला सशक्तीकरण को उसकी शारिरिक स्वतंत्रता से अलग कर देखते ही नहीं,स्थापित भी करते हैं। आजादी रानी को अच्छी लग रही है,लेकिन वह शरीर दिखाने वाले कपडे पहनने को तैयार नहीं हो पाती। क्वीन में परदे पर कई बार ब्रा दिखायी जाती है। कहीं न कहीं विकास 60 के दशक में अमेरिका में शुरु हुए बर्न द ब्रा मूवमेंट का शालीनता से जवाब देते देखते हैं। वे शायद यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि ब्रा उतार फेकना आजादी का प्रतीक नहीं हो सकता। विजयलक्ष्मी शराब और सेक्स की चाह में एक क्लब में जाने को तैयार होती है,लेकिन रानी आग्रह करती है,कहीं और नहीं चल सकते,और वह मान जाती है।रानी जब विजयलक्षमी से अलग हो रही होती है तब वह रानी के कुरते में होती है।स्वभाविक है यहां महादेवी वर्मा के उस संस्मरण की याद आती है जिसमें वे अपनी सेविका को हिन्दी नहीं सिखा सकी,लेकिन उन्हें  भोजपुरी सिखा देती है।

विदा लेते हुए रानी कहती भी है।शराब थोडी कम पिया करो,और वो हर किसी के साथ सेक्स भी ठीक नहीं।लेकिन इसी रानी को जब रेस्टोरेंट का मालिक यह कहता है कि गोलगप्पे भले ही हिन्दुस्तानी अच्छे होते हैं,लेकिन फ्रेच किस का जवाब नहीं,तो रानी पल भर नहीं हिचकती उसे किस करने से।निश्चय ही विकास आजादी और अराजकता के फर्क का अहसास कराने की कोशिश करते हैं।

रानी शराब नहीं पीती,सेक्स नहीं करती,सिगरेट नहीं पीती,छोटे कपडे नहीं पहनती..इसके बावजूद पेरिस से लौटने के बाद उसमें इतनी हिम्मत दिखती है कि वह शादी के लिए घिघनते अपने मंगेतर के हाथ में मंगनी की अंगूठी खुद जाकर थमा सकती है। महिलाओं की आजादी के नाम पर शुद्ध देशी रोमांस और सशक्तीकरण के नाम पर गुलाब गैंग जैसे तमाशे के बाद क्वीन वाकई सुकून देती है।