गुरुवार, 12 सितंबर 2013

आजादी की नई परिभाषा गढती -शुद्ध देशी रोमांस



गीता श्री की कहानी प्रार्थना के बाहर की नायिका कहती है, मेरे लिए कोई एक व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं।महत्वपूर्ण है मेरा रास्ता,मेरी पसंद, मेरा आनंद, और आनंद का कोई चेहरा नहीं होता,जो जितनी दूर साथ चले,चलो, नहीं तो भाड में जाओ। स्त्री यौनिकता की आजादी की जो पृष्ठभूमि साहित्य ने तैयार की थी,शुद्ध देशी रोमांस के साथ अब हिन्दी सिनेमा भी अपनी दखल दर्ज करती दिख रही है। यहां भी नायिका गायत्री सेक्स के पहले नहीं सोचती, शादी के नाम पर कन्फ्यूज हो जाती है, तैयार मंडप से भाग जाने की हद तक। जितनी सहजता से वह नायक के साथ काफी पीने तैयार हो जाती है, उतनी ही सहजता से सेक्स के लिए भी। सुप्रीम कोर्ट ने लीव इन को वैधानिकता प्रदान की,जाहिर है इस पर अब विमर्श की गुंजाइश नही। कहने को शुद्ध देशी रोमांस भी लीव इन की ही वकालत करती है,लेकिन मुश्किल यह कि परदे पर जो दिखता है वह कैजुअल सेक्स की कथा ज्यादा लगती है, मतलब सेक्स के लिए किसी इमोशन की जरुरत नहीं,बस इच्छा होनी चाहिए। फिल्म में नायक नायिका कुछ मिनट पहले मिलते हैं,बात शुरु होती है और देखते देखते वे किस में लिप्त हो जाते हैं। दर्शकों के लिए लीव इन जैसे विषय को जिस गंभीरता से लेने की जरुरत थी,कहीं न कहीं जयदीप साहनी इसमें चूकते दिखते हैं।वास्तव में विवाह संस्था कोई कानून के द्वारा लागू की गई चीज नहीं है कि उसे कानून के द्वारा खारिज किया जा सके।वह सभ्यता के साथ सामाजिक अनुशासन के लिए समाज ने स्वयें परिकल्पित की।आश्चर्य नहीं कि किसी न किसी रुप में विवाह संस्था समस्त मानवीय समाज में स्वीकार्य रही।दुनिया भर में आधुनिकता ने बहुत कछ बदला,जरुरतें बदली, मानवीय स्वभाव भी बदले, आशाएं,आकांक्षाएं बदलीं,लेकिन विवाह संस्था अपनी तमाम खूबियों खामियों के साथ कायम रही।जाहिर है सदियों से जो मानवीय आसुरी प्रवृतियों को नियंत्रित करने का साधन ही नहीं,सभ्यता के विस्तार का भी कारण रही हो,उस पर सवाल खडे करना सहज नहीं हो सकता।लेकिन शुद्ध देशी रोमांस के लेखक जयदीप साहनी और निर्देशक मनीष शर्मा जिस हल्के अंदाज में इस विषय को उठाते हैं,एक इमानदार विमर्श के आधार के बजाय एक अराजक समाज की पूर्व पीठिका बन कर रह जाती है।कहते हैं मानव स्वभाव से जानवर होता है, व्यक्ति के रुप में उसे समाज तैयार करता है।समाज शास्त्री भी मानते हैं कि समाज को व्यवस्थित रखने में सामाजिक नियंत्रण की अहम् भूमिका होती है।यही व्यक्ति को रिश्तों की सीख देता है, जवाबदेही का अहसास देता है, संवेदनाएं देता है।
   शुद्ध देशी रोमांस की नायिका गायत्री(परिणति चोपडा) अपने को पारिवारिक अनुशासन से मुक्त करने के लिए गौहाटी में नौकरी कर रहे अपने पिता को अकेले छोड कर पढाई का बहाना बना कर पहले कोटा आती है,फिर जयपुर  शिफ्ट हो जाती है,सिर्फ आजादी के लिए,दूसरा कोई उद्देश्य या लक्षय उसका नहीं दिखता।अंग्रेजी बोल सकने के कारण भाडे पर बारातियों में शामिल होने के काम से वह संतुष्ट दिखती है।उसके लिए आजादी का मतलब दिखता है, सिगरेट शराब और सेक्स। अद्भुत है आजादी की यह ललक जो अपना सब कुछ खोकर पायी जाती है।गायत्री चेन स्मोकर के रुप में दिखती है,परदे पर वह जब भी आती है, सिगरेट स्मोकिंग इज इंजूरियस टू हेल्थ का केप्शन साथ आता है,अफसोस नायिका को सिगरेट पीने के लिए कोई सिर्फ एकबार रोकते दिखता है,जब भाडे के बारातों में शामिल होने का काम देने वाला मैरेज प्लानर बुजुर्ग गोयल(ऋषि कपूर) उसे रोकते हुए कहता है सिगरेट पीते पीते मर जाएगी।यह सुनने में जरुर अच्छा लगता है कि हर किसी को अपनी जिंदगी जीने का अधिकार है,लेकिन कितना अजीब लगता है,जब जिंदगी में कोई गलत को गलत बताने वाला न हो।
रघु(सुशांत सिंह राजपूत) के माता पिता नहीं हैं,वह रजिस्टर्ड टूरिस्ट गाईड है,लेकिन परदे पर जब भी टूरिस्ट के साथ दिखता है, उन्हे ठगते हुए। शादियों के सीजन में रघु भी गोयल के तय बारातों में भाडे पर शामिल होता है।वह अपनी शादी से ठीक वरमाला के पहले भाग खडा होता है क्योंकि उसे बस में एक दूसरी लडकी पसंद आ चुकी है। कमाल यह कि यहां कोई अरेंज मैरेज का मामला नहीं, शादियां वे अपनी इच्छा से तय करते हैं और फिर ऐन शादी के समय भाग जाते हैं।ऐसा ही नयिका भी करती है।उसे लगता है नायक उसके अतीत को जानते हुए उसका साथ नहीं निभा पाएगा। नायक भी अफसोस नहीं करता,और जब उसकी पुरानी पसंद सामने आती है तो उसके पीछे लग लेता है। हो सकता है यह किसी रघु,किसी गायत्री, किसी तारा की कथा हो..लेकिन मुश्किल तब होती है जब इनकी कथित आजादी को फार्मुलेट करने की कोशिश की जाती है।अंतिम दृश्य में नायक नायिका दोनो ही मंडप छोड कर भाग खडे हुए है, नायक कहता है रिश्तों के दरवाजे खुले क्यों नहीं रखे जाते कि जबतक अच्छा लगे साथ रहे,जब चाहे तब निकल लिए। मनीष शर्मा यह स्पष्ट नहीं करते फिर रिश्तों की जरुरत ही कहां रह जाती है।
यूं रिश्तों के प्रति उनका असम्मान पहले दृश्य से ही दिखने लगता है जब गोयल नायिका के बारे में रघु से कहता है कि बारात में यह तुम्हारी बहन बन कर जाएगी,और वहां बहन की रातों की रेट की बात कर मजाक उडाया जाने लगता है।जैसे इतना ही काफी नहीं हो,बहन बन कर जा रही नायिका के साथ बस में ही नायक की चुम्मा चाटी भी शुरु हो जाती है,और हद यह कि बस से उतरने के बाद फिर बहन कह ही परिचय कराया जाता है। रिश्तों के प्रति विद्रुपता की हद यहीं समाप्त नहीं होती, नायक नायिका का रिश्ता जब सेक्स तक पहुंच जाता है,और लीव इन में दोनों साथ रहने लगते हैं तब भी बाहर वे अपने आपको  भाई बहन बताने में संकोच नहीं करते। क्या वाकई लेखक जयदीप या निर्देशक मनीष मानते हैं कि भारतीय समाज में अब कोई रिश्तों के लिए कोई जगह नहीं।यदि हां तो इस विषय पर कम से कम माजाकिया फिल्म तो नहीं ही बनायी जा सकती थी।
गौरतलब है कि रिश्तों की धज्जियां उडाती शुद्ध देशी रोमांस की पृष्ठभूमि में जयपुर जैसे पांपरिक शहर को रखा गया है।नायक का नाम रघुराम है, एक नायिका का गायत्री और दूसरी का तारा।इस उत्तर आधुनिक प्रेमकथा में ये पारंपरिक नाम चौंकाते अवश्य हैं,लेकिन वास्तव में ये लेखक की समझ का साथ देते हैं। निश्चय ही यह कथा मुम्बई या बंगलोर की पृष्ठभूमि में रहती तो शायद कम चौंका पाती। जयपुर,रघु राम,गायत्री और तारा दर्शकों को यह मनवाने की कोशिश है कि यह कहानी किसी दूर देश की कथा नहीं,तुम्हारी है,तुम्हारे पास की है।आश्चर्य नहीं कि रघु और गायत्री जब छत पर शराब के साथ खुशियां मनाते हैं तो गुदगुदी पटना और भागलपुर के युवाओं को भी होती है,जब नायक काम पर निकलने के बजाय नायिका के बटन खोलने लगता है तो सीटियां छोटे शहरों में ज्यादा गूंजती हैं।

जहां आए दिन प्रेम के मायने बदल रहे हों,एकतरफा प्रेम में तेजाब फेंकने से लेकर हत्या तक की खबरों से समाज आतंकित हो।जहां रिश्तों की मर्यादा खतरे में हो, वहां प्रेम को,आजादी को सेक्स का पर्याय बना देने की यह कोशिश वाकई डराती है। अफसोस ड्रग्स के नशे की तरह यह डर भी आनंदित करती है।

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