रविवार, 21 जनवरी 2024

सिनेमा से अनुपस्थित रहे हैं, हमारे मंदिर

 



मंदाकिनी नदी के किनारे हिमालय की पहाडियों से घिरे केदारनाथ मंदिर अपने स्थापत्य के कारण ईश्वरीय सत्ता को मानने को बाध्य करता है,इसलिए भी कि 2013 में केदार नाथ में आए भीषण सैलाब में जब सब कुछ बह गया था,मंदिर की रक्षा के लिए उसके सामने एक चट्टान आ गया और सैलाब की धारा बदल गई,मंदिर पर खरोंच तक नहीं आई। इसके पहले के वैज्ञानिक शोध भी बताते हैं कि लगभग 400 वर्षों तक यह मंदिर ग्लेशियर में दबा रहा।अंदाजा भी नहीं लगा सकते इस विलक्ष्ण मंदिर का निर्माण कब हुआ होगा,क्या वे मानव ही रहे होंगे जिन्होंने हजारों वर्षों पहले जब वहां तक पहुंचने की कोई सुविधा नहीं होगी,उस समय हिमालय की गोद में इसका निर्माण किया होगा। संतोष कर सकते हैं कि करोडों लोगों के आस्था के इस अद्भुत निर्माण को केन्द्र में रख कर केदारनाथ फिल्म भी बनी,गौरतलब है सिर्फ एक।इसके अतिरिक्त शायद ही किसी फिल्मकार ने इसके प्राकृतिक सौंदर्य या विलक्ष्ण स्थापत्य को दिखाने की आवश्यकता समझी।

इसके बरक्स हूमायूं का मकबरा याद करें तो बजरंगी भाईजान,कुरबान,वीरजारा,फना,झूम बराबर झूम,मेरे ब्रदर की दुल्हन और पी के जैसी 100 से भी अधिक फिल्मों में यह पूरी भव्यता के साथ दिखाया गया।पचासों गाने फिल्माए गए।इसका निर्माण 1570 में हुमायूं की विधवा हमीदा बेगम ने करवाया था।लाल बलुआ पत्थर से निर्मित इस मकबरे को 1993 में यूनेस्को ने वर्ल्ड हेरिटेज में भी शामिल किया। कहा जाता है,इसी मकबरे से प्रेरित होकर शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल की याद में ताजमहल का निर्माण करवाया,जिसे दुनिया के आश्चर्य में गिना जाता है,क्यों गिना जाता,यह अलग विमर्श का विषय है।सच यह है कि हिंदी सिनेमा भी खूबसूरत स्थापत्य के नाम पर ताजमहल से आगे कभी नहीं सोच सका।1941 में नानू भाई,1963 में एम सादिक और 2005 में अकबर खान के ताजमहल के कथानक पर बनी फिल्म के साथ लगभग 500 से भी अधिक फिल्मों में ताजमहल की भव्यता को किसी न किसी रुप में दिखाने की बात कही जा सकती है,बंटी और बबली जैसी कुछेक फिल्मों में सोद्देश्य तो अधिकांश में निरुद्देश्य ही,बस इसलिए कि एक खूबसूरत लोकेशन उन्हें दिखाने की जरुरत होती है।

किंचित आश्चर्य कि हिंदी सिनेमा को जब भी खूबसूरत लोकेशन की आवश्यकता होती है,उसके जेहन में आमतौर पर मकबरों का ही ख्याल आता है।कभी सिनेमा में मुंबई की पहचान ही हाजी अली से होती थी।सुभाष घई की फिल्म परदेस आई लव माई इंडिया... के लिए ही याद नहीं किया जाता,दो दिल मिल रहे हैं...के लिए भी याद किया जाता है।जिस गाने में पूरे विस्तार से फतेहपुर सिकरी के मस्जिद की भव्यता दिखाई गई है।जिसका निर्माण अकबर ने सलीम चिश्ती के लिए करवाया था,जिसने उसके पिता बनने की भविष्य की थी।सलीम चिश्ती के नाम पर ही अकबर ने अपनी पहली संतान का नाम भी सलीम रखा था।मस्जिद के उत्तर में सलीम चिश्ती की दरगाह भी है। कहते हैं इसका निर्माण मक्का की मस्जिद के नकल पर किया गया था। कोई शक नहीं कि न हिंदू बनेगा,न मुसलमान बनेगा की बात करने वाला हिंदी सिनेमा मस्जिदों, दरगाहों पर तो सहज रहता, मंदिरों को दिखाने के नाम पर असहज हो जाता।

जबकि सौंदर्य की दृष्टि से हों,धरोहर की दृष्टि से हों,पौराणिक महत्व की दृष्टि हों या फिर आस्था की दृष्टि से भारत में सौ से अधिक ऐसे मंदिर होंगे,जिनका सौंदर्य और स्थापत्य अतुलनीय माना जा सकता है।दुनिया भले ही नजरें चुरा रही हो,अपनी कारीगरी से वे हजारों साल बाद भी देखने वालों को विस्मित कर रही हैं।50 रुपए के नोट पर छपे हम्पी के मंदिर की ही बात करें,विजयनगर साम्राज्य के समृदधि और स्थापत्य के प्रतीक के रुप में इस मंदिर को देखा जा सकता है।यूनेस्को ने भी इसे वर्ल्ड हेरिटेज में शामल किया है।द्रविड स्थापत्य शैली में बना भगवान शिव का यह मंदिर अपनी भव्यता और महीन कारीगरी के लिए आज भी चकित करता है। कर्नाटक में ही होयसलेश्वर मंदिर के अद्भुत स्थापत्य की कल्पना बगैर देखे नहीं की जा सकती। सोपस्टोन से बना यह मंदिर अपनी मूर्तियों, महीन नक्काशी, विस्तृत चित्र श्रंखला के साथ-साथ अपने इतिहास, प्रतिमा विज्ञान, उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय लिपियों में शिलालेखों के लिए विश्व भर के पुरातत्व प्रेमियों को आकर्षित करता है।

हिंदी सिनेमा का मंदिरों से एक हद तक परहेज इसी अर्थ में समझा जा सकता है कि किसी मकबरे की शूटिंग के लिए वे पूरे क्रू के साथ हजार किलोमीटर की यात्रा कर सकते,लेकिन नजदीक के मंदिर को वे महत्व देना नहीं चाहते।क्या कमाल है मंदिर के लिए फिल्मिस्तान के मंदिर से काम से चल जाता,मस्जिद तो अजमेर शरीफ का ही जाहिए। वास्तव में हिंदी फिल्मकारों के कई पूर्वाग्रहों में एक यह भी है कि सूफी, कव्वाली, मकबरा, दरगाह जैसे इस्लाम से जुडी चीजें तो आम दर्शकों को स्वीकार्य होंगी,लेकिन हिंदू धर्म से जुडे पहचान उनकी छवि खराब कर देंगे। वे भूल जाते हैं कि यही दर्शक हैं जिसने शोले के साथ जय संतोषी मां को भी सरमाथे पर बिठाया था।

इस पूर्वाग्रह में निश्चित रुप से अहम भूमिका वामपंथी इतिहासकारों और स्वतंत्रता के बाद की सरकारों की भी मानी जा सकती है,जिन्होंने मात्र ताजमहल,कुतुब मीनार जैसे कथित इस्लामिक स्थापत्य को भारतीय पहचान के रुप में स्थापित किया,जबकि मंदिरों के स्थापत्य को भरसक छिपाए रखने की कोशिश की। खजुराहो मंदिर, कोणार्क मंदिर, कांची मंदिर, दिलवाडे का मंदिर, एलोरा का कैलाश मंदिर, मीनाक्षी मंदिर, तंजावुर मंदिर, रामेश्वरम, सोमनाथ देश के हर क्षेत्र में अपने अप्रतिम सौंदर्य और हजारों वर्षों के भारतीय स्थापत्य और ज्ञान की विरासत अपने में समेटे मंदिर उपस्थित हैं।हिंदी सिनेमा की सीमा वह नहीं देख पाती,या देखना नहीं चाहती।

ऐसे में अभिषेक वर्मन की फिल्म 2 स्टेट्स की याद आना स्वभाविक है,जिसके अंतिम दृश्यों में महाबलीपुरम का आठवीं शताब्दी में निर्मित तटीय मंदिर कहानी को पूर्णता देता है,जहां नायक कृष(अर्जुन कपूर) और नायिका अनन्या(आलिया भट्ट) का विवाह हो रहा होता है।एक सामान्य से विवाह के दृश्य को एक प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर की उपस्थिति कितना भव्य बना देती है,आने वाले दिनों में हिंदी सिनेमा शायद यह समझने को तैयार हो सके।