गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

गजनी वाले आमिर की तलाश



इंस्पेक्टर सुरजन सिंह शेखावत (आमिर खान) का किशोर बेटा दुर्घटना में मारा जाता है। अपने बेटे की कम उम्र में हुई मौत को शेखावत भुला नहीं पाता। उसके मन से यह बात निकल ही नहीं पाती कि इस मोत का कारण उसकी लापरवाही है। यदि वह अपने बारह साल के बेटे को उसके हमउम्र दोस्त के साथ अकेले जाने की इजाजत देने के बजाय उसके साथ खुद चला जाता, या फिर दूर जाने देने के बजाय उसे अपने साथ चेकर्स खेलने बिठा लेता तो इस दुर्घटना से बचा जा सकता था। क्या वाकई बदलते समय के साथ जल्दी जल्दी बडे होते बच्चों की समझ पर यकीन कर हम गलतियां कर रहे हैं। तलाश में तो इस यकीन का खामियाजा बच्चे को अपनी जान देकर चुकानी पडती है, लेकिन वास्तविक जीवन में आमतौर पर समाज को इसका खामियाजा उठाते देखा जा सकता है। नशाखोरी से लेकर हत्या और लूट तक में सामान्य परिवारों के अल्पव्यस्कों की बढती सहभागिता कहीं न कहीं यह तो इशारा करती ही है कि बच्चों को अभिभावकत्व से मुक्त करने का निर्णय हमें उत्साह और आलस्य में नहीं समझ के साथ उठाना चाहिए। आमिर खान की तलाश यही नहीं नहीं कहती, इसके साथ समाज, सरकार, व्यवस्था पर कई छोटी छोटी टिप्पणियां करते चलती है।
             मुम्बई में एक लडकी की रात के अंधेरे में मौत हो जाती है, रात में ही उसे दफना दिया जाता है और सवेरे शहर के चेहरे पर शिकन तक नहीं दिखती। किसी को याद भी नहीं आता कि वह लडकी कहां चली गई, सिर्फ इसलिए कि वह वेश्या थी, जो भारत में गैरकानूनी माना जाता है। वह अपनी स्थिती स्पष्ट करते हुए कहती भी है, साहब हमारी तो गिनती ही नहीं होती। जब शेखावत उसे कानून के सबों के लिए बराबर होने की बात कहता है तो वह मुस्कुराते हुए जवाब देती है, आप हंसाते बहुत हैं साहब। अपनी बात कहने के लिए रीमा कागती छोटी छोटी उपकथाओं का सहारा लेती हैं जो अंत में एक सूत्र से जुड कर सस्पेंश खोलती हैं। मुम्बई शहर के तीन नवधनाढ्य युवा बैचलर्स पार्टी का आनंद उठाने एक दलाल के माध्यम से सिमरन करीना कपूर को रात भर के लिए साथ लेकर चलते हैं। तीनों ही सम्मानित घरों से आते हैं, फिल्म यह दिखाने में भी संकोच नहीं करती कि उनमें से एक के घर में दुनिया भर के किताबों की निजी लाइब्रेरी भी है, जिनके बीच बैठे विद्वान लगते पिता से वह अपने ब्लैकमेल होने की बात भी  करता है।पता नहीं रीमा कागती यह दिखाना चाहती थी या नहीं लेकिन भारतीय समाज के बदलते मूल्यों की ओर भी तलाश गंभीरता से इशारा करती है। लेकिन सिर्फ इशारा भर क्योंकि फिल्म की कहानी कुछ और कहती है। वास्तव में ये क्षेपक हमारा ध्यान भी आकृष्ट इसीलिए कर पाते हैं कि आमिर खान की फिल्म एक तय धारणा के साथ देखने जाते हैं कि कोई तो बडी बात होगी,यदि यह फिल्म विक्रम भट्ट या रामगोपाल वर्मा ने बनायी होती तो शायद ही इन दृश्यों को हम इस तरह तवज्जो दे पाते। टुकडे टुकडे में देखने पर आमिर खान की तलाश जितनी बडी दिखती है,संपूर्णता में देखने पर उतनी ही छोटी लगने लगती है।
        अपनी फिल्मों से ज्यादा, आमिर खान ने अपनी बातों और अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता से से लोगों के मन में ऐसी छवि बना ली है, कि उनके होने भर से उम्मीदें बढ जाती हैं। जाहिर है आमिर से जो हमेशा बडी बातों की ही उम्मीद रखते हैं, उन्हें तलाश देखते हुए निराशा हो सकती है, तलाश देखते हुए यह याद करना जरुरी हो जाता है कि आमिर खान ने तारे जमीन पर बनायी तो देल्ही बेली भी। थ्री इडियट्स में भी काम किया तो गजनी में भी। यदि सिनेमा के नजरिए से देखें तो आमिर की दोनों ही तरह की फिल्मों का अपना महत्व है। महत्व इसलिए भी है कि फिल्मों की जोनर कोई भी हो, आमिर ने अपनी समझ से हिन्दी सिनेमा को हमेशा बेहतर देने की कोशिश की है। तलाश गजनी वाले आमिर खान की फिल्म है, जिसमें थ्रिल है, सस्पेंश है, इमोशन है, मनोरंजन भी है, नहीं है तो सिर्फ विचार। जो आमिर खान की फिल्मों को बडा बनाती रही है। हालांकि यह भी सच है कि सिनेमा पर विचार का बोझ कोई इमानदारी की बात नहीं, लेकिन यह भी सच है कि नकारात्मक विचार की भी इजाजत सिनेमा को नहीं दी जा सकती।
            यदि यह विक्रम भट्ट की फिल्म होती तो हम यह कहने में कोई संकोच नहीं करते कि तलाश की नायिका सिमरन उर्फ रोजी(करीना कपूर) भूत बनी हैं, फिल्म आमिर खान की है ,इसीलिए यह कहने के पहले हमें इसके पीछे के अन्य सार तत्वों की तलाश करनी पडती है। सिनेमा के लिए परावैज्ञानिक कथानकें कोई नई बात नहीं। बचपन से हम भूतों आत्माओं की कहानी सुनकर आनंदित होते रहे हैं। यह जानते हुए भी कि ये सच नहीं, भूत हमें डराती भी रही हैं,आत्माओं की हम पूजा भी करते रहे हैं। महल ये लेकर राज तक भांति भांति के रुप में हमने भूतों चुडेलों को देखा पसंद किया, अब भला आमिर ने यदि अपनी फिल्म के लिए परावैज्ञानिक कथा का चुनाव किया तो क्या आपत्ति हो सकती है ? आपत्ति इसलिए होती है कि ये कहानियां जब कहानी के रुप में कही जाती है,तो हम कहानी के रुप में स्वीकार भी करते हैं। लेकिन जब इसे जीवन की वास्तविकता के रुप में प्रदर्शित किया जाता है तो यह हमारी वैज्ञानिक समझ को चुनौती देती लगती है।तलाश में रीमा कागती की निर्देशकीय कुशलता यही करती है। शेखावत की पत्नी रोशनी अपने अल्पव्यस्क बेटे की मौत के बाद अवसाद में है। शेखावत किसी भी पढे लिखे समझदार पति की तरह मनोचिकित्सक से उसका इलाज करवाता है।लेकिन वह संतुलित तब होती है जब दवा खाना छोडकर अपने बेटे की आत्मा से बात करने का अवसर उसे मिल पाता है।
            हाल के दिनों में आमिर खान के साथ मुश्किल यह हो गई है कि हम उन पर थोडा ज्यादा ही यकीन करने लगे है।निश्चित रुप से अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए आमिर ने काफी मेहनत भी की और समर्पण भी किया। आमिर के लिए इससे बडा त्याग और क्या हो सकता है कि टेलीविजन धारावाहिक सत्यमेव जयते पर देशवासियों से मिली सकारात्मक प्रतिक्रिया के बाद उन्होंने व्यवसायिक विज्ञापनों से हाथ खींच लिए। जिस तरह भ्रुण हत्या, दहेज हत्या जैसे सामाजिक मुद्दों पर लगातार उनका हस्तक्षेप देखा गया और देश भर में जहां भी जरुरत हुई संबंधित व्यक्ति, मुलाकात कर समस्या के निदान की कोशिश की ,कोई आश्चर्य नहीं कि आमिर खान फिल्मकार और अभिनेता का व्यक्तित्व , आमिर खान सामाजिक कार्यकर्ता के आभामंडल के सामने धुंधला होता दिखा।आमिर खान ने अपनी आफ स्क्रीन और आन स्क्रीन छवि इस तरह गडमड कर ली कि स्वभाविक है आमिर आज जब कुछ कहना चाहते हैं तो लोग उनकी बातों पर यकीन करना चाहते हैं। तलाश के आरंभ में आमिर अपनी पत्नी रोशनी (रानी मुखर्जी) से आत्माओं की बात पर अविश्वास करते हुए लड बैठते है।वे अपने साथी से कहते हैं आखिर पढलिख कर कोई कैसे आत्माओं की बात पर यकीन कर सकता है।यही आमिर आत्मा की शांति के लिए दफन लाश को निकाल कर उसे जलाते दिखते हैं। जब इंस्पेक्टर बने आमिर के भूतों की कहानी पर उनका अधिकारी यकीन नहीं करता,तो आमिर अपने अनुभव के आधार पर तर्क करते हैं।
                   यदि यह हम मान सकें कि यह तर्क इंस्पेक्टर सुरजन कर रहा होता है तो शायद तलाश को भी कहानी के रुप में स्वीकार कर आनंदित हो सकें, लेकिन रीना ने तलाश के जो वातावरण गढा है उसमें आमिर को सिर्फ सुरजन के रुप में स्वीकार करना कठिन होता है।सुरजन की गंभीरता,कर्तव्य परायणता और भावुकता में आमिर की तलाश मुश्किल नहीं होती,जाहिर है जब आमिर सामने होते हैं तो उनकी बात नहीं मानने की गुंजाइस भी नहीं होती। यही है जो तलाश को स्वीकार्य बनाती है। लेकिन उस पर सवाल भी खडे करती है।कहीं न कहीं आमिर खान पर भी।

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