शुक्रवार, 26 मई 2023

फना - प्रेम पगा आतंकवाद

 


कश्मीर के महाराज हरि सिंह ने भारतीय गणतंत्र में शामिल होना इस शर्त पर मंजूर किया था कि छह महीने के अंदर भारत या पाकिस्तान में शामिल होने के सवाल पर वहां जनमत संग्रह करवा लिया जायेगा, जो आज तक संभव नहीं हो सका। यह एक ऐतिहासिक तथ्य भले ही हो, लेकिन कश्मीर के आतंकवाद के संदर्भ में आज इसे याद करना या करवाया जाना, कहीं न कहीं वहां चल रहे आतंकवाद को वैधता प्रदान करने की कोशिश ही कही जायेगी। वास्तव में भारतीय मानस जब उदार होता है तो सबसे पहले अपना हित त्यागता है। 'फना' में यश चोपड़ा भी अपनी सहज उदारता में इस शर्त को पूरा करने में आये राजनीतिक व्यवधानों को भूल जाते हैं। एक पात्र जब तर्क देता है कि आज स्थितियां बदल चुकी हैं, महाराजा हरि सिंह ने अविभाजित कश्मीर के लिए जनमत संग्रह की मांग की थी, लेकिन आज जनमत संग्रह की बात सिर्फ भारतीय क्षेत्र के लिए की जा रही है तो आतंकवादियों के मनोविज्ञान का अध्ययन कर रही अधिकारी (तब्बू) कहती हैं 'ऐसी बात नहीं है, वहां के आंदोलनकारी अपना एक स्वतंत्र देश चाहते हैं, भारत-पाकिस्तान दोनों से आजाद।' क्या वाकई?

उदारता अच्छी बात है,लेकिन बात जब देश की अखंडता संप्रभुता की हो तो कलाकारों बुद्धिजीवियों को एक क्षण रुक कर जरुर सोचना चाहिए कि कहीं उनकी स्थापनाएं देशहित के खिलाफ तो नहीं जा रही हैं? कितना भी सहृदय होकर हम सोचें आज आतंकवाद के क्रूरतम स्वरूप को देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश कैसे कर सकते हैं कि कश्मीर का आतंकवाद वहां की आजादी की लड़ाई का एक हिस्सा है ?

 'फना' में निर्देशक कुणाल कोहली राजनीतिक मुद्दों को छेड़ते जरूर हैं, लेकिन उसे यशराज फिल्म्स की प्रेम की परम्परा से विचलित भी नहीं होने देते। आतंकवाद और स्वाधीनता आंदोलन की जटिलताओं में उलझने के बजाय, कुणाल फिल्म को प्रेम की परतों को पलटने में व्यस्त रखते हैं। रेहान (आमीर खान) कट्टर आतंकवादी है, जो राष्ट्रपति भवन उड़ाने के मिशन में टूरिस्ट गाइड बन कर दिल्ली में रह रहा है। उसकी मुलाकात जूनी (कालोज) से होती है, जो कश्मीर से एक कालेज टीम के साथ राष्ट्रपति भवन में कार्यक्रम प्रस्तुत करने आयी है। नेत्रहीन जूनी में रेहान को अपनी मंजिल तक पहुंचने का रास्ता दिख जाता है। रेहान के प्रेम के नाटक को जूनी असलियत समझ बैठती है। वह रेहान के प्रेम के अहसास के साथ जीने की जिद में अपने आपको पूर्णतया उसे सौंप देती है। एक समय ऐसा भी आता है जब जूनी के प्रेम के अहसास के सामने रेहान के प्रेम की जरूरत कमजोर पड़ने लगती है। रेहान की कोशिश से जूनी का अंधापन दूर हो जाता है। लेकिन उसके साथ ही राष्ट्रपति भवन के पास हुए विस्फोट में रेहान के मरने की खबर आ जाती है।



जूनी अपने पिता के साथ कश्मीर की घाटियों में रेहान के बच्चे की परवरिश में लगी होती है। इधर भारतीय सेना के एक बेस से एटम बम का 'ट्रिगर' चुरा कर भागते हुए रेहान एक रात जूनी के दरवाजे पर अपने आपको खड़ा पाता है। जूनी उसे पहचान नहीं पाती और रेहान के लिए उसे पहचानने से ज्यादा जरूरी उस ट्रिगर को आतंकवादियों के प्रमुख तक पहुंचाने का मिशन है। आंतंकवाद की ट्रेनिंग किस तरह एक मनुष्य की संवेदना को जर्जर बना देती है, 'फना' में इसकी एक झलक देखी जा सकती है। रेहान को पता है कि जूनी के घर में पल रहा सात साल का बच्चा उसका अपना खून है, लेकिन उसके प्रति भी वह अपने अहसासों को छिपाते हुए कठोर बना रहता है। उसके मिशन के सामने जब भी जो आता है, मारा जाता है, चाहे वह दिल्ली का सरदार कांस्टेबल हो या जूनी के पिता या फिर जूनी के अंकल

अंत के दृश्यों में 'फना' प्रेम और देशप्रेम के द्वन्द्व को रेखांकित करने की कोशिश करती है। रेहान अपने मिशन के लिए प्रेम को छोड़ता है और जूनी भी अपने देश के लिए अपने 'प्रेम' को छोड़ने पर विवश होती है। वास्तव में जिंदगी कभी प्रेम का पर्याय नहीं होती, जैसा आम हिन्दी फिल्मों में दिखता है। यशराज फिल्म्स ने शायद पहली बार प्रेम के व्यावहारिक पहलू को इस रूप में रेखांकित करने की कोशिश की है कि प्रेम के बाहर भी एक बड़ी दुनिया है जो हमारे लिए ज्यादा जरूरी हो सकती है, भावनात्मकता में डूबकर हम इसे पल भर को भूल तो सकते हैं, नजरअंदाज नहीं कर सकते।

रविवार, 14 मई 2023

धर्म ही काटेगा जिहाद का जहर

 



द केरल स्टोरी का सबसे हृदयविदारक दृश्य है जब एक बेटी हार्ट अटैक के कारण अस्पताल में बेहोश पडे अपने पिता के कमरे में आती है,और मां से कहती है हार्ट अटैक अल्लाह का कहर है।फिर अपने पिता के पास जाती है और बेहोश पडे पिता के माथे पर थूक देती है। ...गलती सिर्फ यही कि उसके कम्यूनिस्ट नास्तिक पिता उसके इस्लाम स्वीकार करने के खिलाफ थे। ऐसा इसलिए कि इस्लाम कबूल करते ही उसे बताया जाता है कि जो अल्लाह को नहीं मानता वह काफिर है,और काफिर होने का गुनाह तब तक माफ नहीं होता जब तक उसे पत्थर नहीं मारे जाएं,या उसके माथे पर थूका न जाय। कहां से आती है यह क्रूरता। कल तक अपने बडों के सामने सर झुकाए रखने वाले बच्चे कैसे इतने बदल जाते हैं। सवाल है जीवन के 18 से 20 साल जिस धर्म संस्कृति के साथ उन्होंने व्यतीत किया है,आखिर क्यों एक झटके में उसे खारिज ही नहीं करते,उसे मिटाने के मिशन में लग जाते हैं। इसका जवाब इस सवाल में है कि धर्मान्तरण के इस तरह के विश्वव्यापी दुष्चक्र का सामना करने के लिए हमने अपने बच्चों को कितना तैयार किया है। द केरल स्टोरी के अंतिम दृश्यों में गीतांजली अपने कम्यूनिस्ट पिता से कहती है,इसमें गलती आपकी भी है,पापा, आपने विदेशी दर्शन के बारे में तो बताया,अपने ही धर्म और संस्कृति की कभी चर्चा नहीं की। सच यही है कि वैज्ञानिक शिक्षा के नामपर स्वतंत्रता के बाद से ही धर्म के बारे में हमें बहुत सेलेक्टिव जानकारी दी गई। इस्लाम के जुडते ही सब महान, औरंगजेब और टीपू सुल्तान तक की अच्छाइयां पढाई गई।सूफियों के तो कहने ही क्या। इसके बरक्स रामायण से लेकर वेद तक पर सवाल ही सवाल खडे कर उनसे दूर रखने की कोशिशें होती रहीं।क्या यह संयोग है कि केरल स्टोरी की पृष्ठभूमि केरल बनती है,देश का सबसे पढा लिखा प्रदेश।

द केरल स्टोरी में शालिनी उन्नीकृष्णन,निमाह,गीतांजलि और आसिफा नर्सिंग की पढाई के लिए एक ही कमरे में रहती हैं। आसिफा वास्तव में आइ एस आइ एस के रैकेट का हिस्सा है,जिसमें उसे अपनी साथी लडकियों का धर्मान्तरण कर इस्लाम के लिए लडने सीरिया भेजने की जवाबदेही दी गई है। आसिफा उनके अपने अपने धर्म पर संदेह पैदा कर उनकी आस्था को तोडती है। आसिफा, शालिनी से जब हिंदू देवताओं के बारे में पूछती है तो वह पहले शिव और फिर राम का नाम लेती है। आसिफा कहती है, राम तुम्हारी क्या रक्षा करेगा,जब रावण से अपनी पत्नी को बचाने के लिए उसे वानरों की मदद लेनी पडी। आगे कहती है,कितना कमजोर है तुम्हारा शिव अपनी पत्नी के मरने पर उसकी डेडबाडी लेकर पूरे भारत का चक्कर लगाता है।वह कहती है कैसा है तुम्हारा देवता जो हर लडकी के साथ रासलीला करता है,और डर कर अपना ही राज्य छोड कर भाग जाता है।वह कैसे तुम्हारी रक्षा करेगा।


शालिनी चुप रह जाती,उसे अपने धर्म के बारे में,राम,कृष्ण और शिव के बारे में तो कुछ पता ही नहीं,वह अभिभूत होकर अल्लाह के सर्वशक्तिमान होने के दावे को सुनते रहती है। दिवाली के एक दृश्य में जब उससे इसके रिचुअल्स के बारे में पूछा जाता है,तो वह कहती है,यह बस फेस्टिवल है,बचपन से ही कभी पूजा रिचुअल्स नहीं किया,गौर करें किस तरह दशहरा,रामनवमी,सरस्वती पूजा,गणेश पूजा पर मेले हावी होते गए,और रिचुअल्स कमजोर पडते गए।वास्तव में अपने धार्मिक उत्सवों को भी हमने बच्चों के लिए तमाशे में बदल दिया। कैसे उम्मीद कर सकते कि वे एक संगठित वैचारिक आक्रमण से अपने आपको बचा पाएंगे। 

जबकि फिल्म में दिखता है कि आसिफा को अपने धर्म के बारे में भी पता है और आपके धर्म के बारे में भी। शायद इसलिए कि आसिफा को बचपन से बताया जाता रहा।शालिनी और गीतांजली के लिए अपना धर्म बस मजाक है।लेकिन गौरतलब है कि निमाह को प्रभावित करना आसिफा के लिए आसान नहीं होता।वह जब कहती है गाड का बेटा सूली पर लटकाया जा रहा था,उसे वो बचा नहीं पाया, तुमको कैसे बचा पाएगा, तो निमाह उस पर ऐतराज करती,रोकती उसे गाड के बारे में ऐसा कहने से। शायद इसलिए कि बचपन से ही चर्च जाना,रिचुअल्स में भाग लेना उनकी दिनचर्या में शामिल रहा है। वास्तव में एक हिंदू धर्म ही है शायद, जहां अपने बच्चों को अपने ही धर्म की छाया से दूर रखने की कोशिश की जाती है।रिलिजन के कालम में वे हिंदू लिखते अवश्य हैं,लेकिन उन्हें पता नहीं कि वे हिंदू क्यों हैं। 

बाकी बातें अपनी जगह द केरल स्टोरी का यही सीधा संदेश है। बच्चों को अपने धर्म की मुकम्मल शिक्षा देनी चाहिए। अपने धर्म पर, अपने धार्मिक पहचान पर गर्व करना सिखाना चाहिए। इस्लाम सिखाता है न, कोई भी मुस्लिम कितना भी प्रगतिशील क्यों न हो, कितने भी उंचे पद पर हो,कितना भी पढा लिखा हो। अपने माथे के कालेपन को नहीं छिपाता, अपनी दाढी और टोपी को शान के साथ पहनता, आप किसी मुस्लिम को टीके लगाने की सोच भी नहीं सकते, वह बेहिचक आपको अपनी टोपी पहनाता है। बडी से बडी जवाबदेही छोड कर पांच वक्त नमाज पढने जाता है। वे अपनी धार्मिक किताबें पढता है। हम हिंदू पढना शुरु करते ही सबसे पहले बच्चों को धार्मिक पहचान से मुक्ति देते हैं। कोई जरुरत नहीं जनेउ की,शिखा की,चंदन टीके की,मंदिर जाने की।तुम पढाई पर ध्यान लगाओ। रहा सहा कसर कान्वेंट वाले प्रेयर करवा कर पूरी कर देते हैं। जाहिर है जब वे युवा होते हैं,उन्हें अपने धर्म के बारे में कुछ पता ही नहीं होता,उनकी आस्था अज्ञानता के कच्चे धागे पर टिकी होती है, जो किसी आसिफा के जरा सा झटका देते ही टूट जाती है।