बुधवार, 24 अगस्त 2011

नंगेपन की होड़ में सिनेमा




‘चितकबरी’ आने वाली है। कहा ही नहीं जा रहा, इसके साथ जो दिखाया जा रहा है, उसके हिसाब से भी हिन्दी की सबसे ‘बोल्ड’ फिल्म की दावेदारी के प्रति इसकी गम्भीरता महसूस की जा सकती है। अब ‘बोल्ड’ के शब्दार्थ पर न जाये, हिन्दी सिनेमा से जुड़कर कई सारे शब्दों ने अर्थ बदल लिए हैं। उसी में एक यह ‘बोल्ड’ भी है। सिनेमा में ‘बोल्ड’ का सीधा सा अर्थ सेक्स की प्रस्तुति को लेकर है। चाहे वह नायिका के नंगे शरीर के रूप में हो, नायक नायिकाओं के इन्टीमेट सीन के रूप में हो या फिर अश्लील गालियों के रूप में। तो ‘चितकबरी’ इसी बोल्डनेस के साथ आ रही है, इस हद तक कि उस फिल्म की जारी तस्वीरे दिखाने में वेब साइटों को भी शर्म महसूस हो रही है। कर्इ साइटों पर उसे धुन्धला कर दिखाया जा रहा है। फिल्म अभी सेन्सर होनी बाकी है, इसी लिए इसमें से कितना कुछ दर्शकों तक पहुंच सकेगा, यह तय होना तो अभी बाकी है, लेकिन इतना तय है कि हिन्दी सिनेमा सेक्स प्रदर्शन के मामले में किसी भी सीमा तक जाने को पूरी तरह तैयार हो चुकी है। उल्लेखनीय यह भी है कि हिन्दी सिनेमा के पास वैसी अभिनेत्रियों का जखीरा भी जमा हो गया है जिन्हें कपड़े उतारने के लिए फिल्मकार के इशारे की भी जरूरत नहीं होती। कविता राधेश्याम जैसी कथित अभिनेत्री की फिल्म की घोषणा तो बाद में होती है, उनकी नंगी तस्वीरें पहले ही सार्वजनिक हो जाती हैं। कोइना मित्रा को फिल्मों में चाहे जिस हद तक जाते हुए दर्शकों ने देखा हो, परदे के बाहर भी जब बगैर पैन्टी के उनकी तस्वीर सार्वजनिक हो जाती है तो उनके चेहरे पर जरा भी सिकन नहीं आती, बल्कि गर्व के साथ वे कहती हैं, मुझे पसंद है वह तस्वीर। वास्तव में इन कथित अभिनेत्रियों के पास ये धैर्य नहीं कि दर्शक उनके अभिनय को देखें, सराहे, उनकी संवेदनाओं को महसूस करें, उन्हें पसंद करें। ‘बूम’ से ‘नमस्ते लंदन’ तक पहुंचने में कटरीना को दस वर्ष लग गए, उसने धैर्य के साथ अपने आप को विकसित किया। यदि उसने भी जल्दी मचायी होती तो आज ‘बूम-1’ और ‘बूम-2’ करने के बाद कहीं गुमनामी की जिन्दगी जी रही होती। इन्हें जल्दी है सफलता की, समृद्धि की, इसका सबसे आसान जरीया इन्हें अपना संतुलित शरीर ही लगता है, जिसे दिखाने के लिए न तो किसी तैयारी की जरूरत पड़ती है न ही श्रम की। इन्हें फर्क नहीं पड़ता दर्शक इन्हें किस रूप में याद रखेंगे या याद रखेंगे भी नहीं। इन्हें मतलब बस अपनी कीमत से है। लेकिन सच यह भी है कि इन्हें इसकी हिम्मत हमारी स्वीकार्यता ही देती है।
यदि ‘मर्डर’ अस्वीकार्य कर दी जाती तो आज ‘मर्डर-2’ नहीं बनती। ‘लव सेक्स और धोखा’ असफल हो जाती तो ‘रागिनी एम.एम.एस.’ बनाने की हिम्मत एकता कपूर नहीं जुटा पाती। यदि ‘भिन्डी बाजार’ की गालियों पर हमने तालियां नहीं बजायी होती तो ‘देल्ही बेली’ की मां बहन नहीं सुननी पड़ती। वास्तव में अश्लीलता का यही मनोविज्ञान है कि हर बार जितना हम देखते हैं उससे ज्यादा देखना चाहते हैं। आश्चर्य नहीं कि अश्लीलता परोसने वाली हर फिल्म पिछली फिल्म से ज्यादा अश्लील होती है, नहीं भी होती है तो ज्यादा अश्लील के दावे के साथ जरूर आती है। जब महेश भट्ट जैसे बुद्धिजीवी के रूप में प्रतिष्ठित फिल्मकार ‘मर्डर-2’ का प्रमोशन करते हुए कहते हैं यह पिछली फिल्म मर्डर से ज्यादा बोल्ड होगी। तब सुनीत अरोड़ा क्यों न कहें उनकी ‘चितकबरी’ सबसे ज्यादा बोल्ड होगी। जाहिर है सबसे ज्यादा की यह दौड़ ‘चितकबरी’ पर ठहरने वाली नहीं, क्यों कि इसी के साथ खबरें आने लगी हैं राम गोपाल वर्मा की ‘इट्स नोट ए लव स्टोरी’, जहां माही गिल अपने एक प्रेमी के लाश के सामने दूसरे प्रेमी के साथ हम बिस्तर होती दिखायी देंगी। इसके इन्टीमेट सीन के सीमा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके फिल्मांकन के दौरान निर्देशक राम गोपाल वर्मा भी शरमाकर सेट से बाहर चले गए थे। माही गिल ने शुरूआत ‘देव डी’ से की थी, जहां अपने प्रेमी से मिलने की जिद में साईकिल पर गद्दे लादकर गन्ने की खेत में पहुंच जाती हैं। उम्मीद भी की जाती है और जैसी खबरें भी आ रही हैं ‘साहब बीवी और गुलाम’ के आधुनिक री-मेक ‘साहब बीवी और गैंगस्टर’ में वे एक कदम और आगे दिखायी देंगी। उन्हें पता है हमे पिछली फिल्मों से ज्यादा चाहिए होता है। जहां तक देख लिया दर्शक उससे ज्यादा देखना चाहते हैं, चाहे वह शरीर का मामला हो या सेक्स का। सवाल है सिनेमा से तो ऐसी चाहत हमारी कभी नहीं रही है, यदि राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना और अनिल कपूर तक की परम्परा की बात छोड़ भी दें तो हमने ‘दबंग’ पसन्द की ‘गोलमाल’ भी, ‘सिंघम’ भी, ‘राजनीति’ भी। हमने तो सबसे ज्यादा राजश्री की फिल्में पसंद की जहां नायक नायिका को एक दूसरे के करीब आते आते फिल्म खत्म हो जाती थी। सिनेमा में सेक्स भारतीय दर्शकों की पहली पसंद कभी नहीं रही। आम तौर पर इसे ‘बी’ और ‘सी’ ग्रेड सिनेमा के रूप में चिन्हित किया जाता रहा।
आज जब आमिर खान और महेश भट्ट ऐसी फिल्मों के साथ खड़े नजर आते हैं तो स्पष्ट लगता है अपने मानसिक दिवालिये पन की भरपायी वे सेक्स के नये बाजार में हिस्सेदारी बांटकर कर रहे हैं। निश्चित रूप से कोई ‘लगान’ और ‘जख्म’ छोड़कर ‘देल्ही बेली’ या ‘मर्डर’ सिर्फ नयेपन के लिए नहीं बना सकता। वास्तव में यह प्रतीक है इस बात का कि अब उसके पास कहने को कुछ नहीं। लेकिन बाजार में टिके रहने की मजबूरी उन्हें इसकी भी चिन्ता नहीं करने देती कि ऐसी फिल्मों के साथ उनका खड़ा होना ऐसी फिल्मों को एक नई प्रतिष्ठा देगी जिससे उत्साहित कोर्इ ‘चितकबरी’ बनाने के लिए तैयार हो जाता है, पूरे गर्व के साथ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें