रविवार, 31 मार्च 2024

नकली छवि पर भारी असली चेहरा




 बांग्ला देश के पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्र रहमान पर बांगलादेश फिल्म डेवलेपमेंट कारपोरेशन 83 करोड में फिल्म बनाती है,मुजीब-द मेकिंग आफ ए नेशन,जिसमें आधा बजट यानी लगभग 40 करोड रुपए भारत सरकार देती है।फिल्म का निर्देशन अपनी खास शैली के लिए के लिए प्रतिष्ठित श्याम बेनेगल करते हैं।हालीवुड की तो बात ही छोड दें, इसी के बरक्स देखें तो देश के सबसे सम्मानित राजनेता भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी पर केंद्रित फिल्म मैं अटल हूं 10 करोड में और देश के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बायोपिक पीएम नरेन्द्र मोदी लगभग 8 करोड में बनती है।...और हम कहते हैं कि भारत के राजनेताओं पर अच्छी बायोपिक क्यों नहीं बनती है..भारतीय नेताओं पर बनी बायोपिक को दर्शक क्यों अस्वीकार कर देते हैं।

रिचर्ड एटनबरो की गांधी अभी भी स्मृतियों में है,आज से 42 साल पहले वह फिल्म 2.2 करोड डालर के बजट से बनायी गई थी,जितने में दसियों शोले बनायी जा सकती थी।गांधी ने 8 आस्कर ही नहीं जीते,आज भी यह फिल्म टेलीविजन पर आने लगती है तो दर्शक ठहर जाते हैं।30 साल पहले 1993 में सरदार वल्लभ भाई पटेल पर बायोपिक सरदार लगभग 2 करोड के बजट में बनती है, और 2000 में डा.बाबा साहेब अम्बेदकर पर जब्बार पटेल 9 करोड में फिल्म बनाते हैं। यह सही है कि सिर्फ बजट से ही अच्छी फिल्म नहीं बनती,लेकिन यह भी सच है कि अच्छी फिल्म बनाने के लिए बजट की भी आश्यकता होती है।

किसी व्यक्ति पर जब कोई बोयोपिक बनाना आप तय करते हैं तो सबसे पहली चीज होती है,रिसर्च और फिर पटकथा।और कमाल यह कि सबसे कम खर्च हम इसी दोनों पक्ष पर करते हैं,बस अखबारी कतरनों के सहारे कोई कालजयी फिल्म की कल्पना भी कैसे की जा सकती है।आप फिल्म उतना भर ही दिखा कर नहीं बना सकते जो पब्लिक डोमेन पर वर्षों से घूम रही है।खास कर आज के सूचनाओं के इस दौर में जब लोगों के पास जानकारियों का अंबार है,आखिर कुछ तो ऐसा हो जो दर्शकों को सिनेमा घर तक आने के लिए उत्साहित कर सके।पौराणिक और ऐतिहासिक कथानक को हम बार बार देख सकते हैं,लेकिन समकालीन खबरों से हम इतने विज्ञ होते हैं कि उसके प्रति रुचि बनाने के लिए कुछ खास करना जरुरी होता है,जहां हिंदी फिल्में कमजोर पड जाती हैं। बायोपिक में भी उसका जोर कथा से अधिक सूचनाओं पर होता है,किसी के जीवन को कथा में ढालने के लिए श्रम और समय की आवश्यकता होती है,हिंदी सिनेमा जिसकी जरुरत ही नहीं समझ पाती।

अटल बिहारी वाजपेयी देश के सर्वमान्य नेताओं में रहे हैं।वे सत्ता में रहे,नहीं रहे,उनकी लोकप्रियता अप्रभावित रही।एक सर्वे के अनुसार देश के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री के रुप में नरेन्द्र मोदी पहले नंबर पर हैं,तो वाजपेयी जी अभी तक तीसरे नंबर पर अपनी जगह सुरक्षित रखी है।एक राजनेता के साथ उनकी पहचान एक संवेदनशील कवि की भी रही है।जमीन से उठकर दुनिया भर में अपने विचारों के साथ अपनी पहचान बनाने वाले इस विराट व्यक्तित्व को बायोपिक के नाम पर निबटाने की कोशिश की जाती है तो भला दर्शक क्यों स्वीकार करे।ठीक है,पंकज त्रिपाठी जैसे सिद्धहस्त अभिनेता उनके व्यक्तित्व को साकार करने में जी जान लगा देते हैं,लेकिन कहने के लिए बात ही नहीं हो तो अभिनेता क्या कर सकता।

ऐसा ही कुछ पीएम नरेन्द्र मोदी के साथ दिखा।क्या आश्चर्य नहीं कि नरेन्द्र मोदी जैसे जादुई व्यक्तित्व को साकार करने की जवाबदेही दी जाती है,हिंदी सिनेमा में हाशिए पर पडे अभिनेता विवेक ओबेराय को। यहां तक कि पटकथा और संवाद लिखने में भी विवेक हाथ आजमाते हैं।  जिस व्यक्ति को देखने और सुनने दुनिया के किसी भी कोने में लाखों की संख्या में लोग टूट पडते हैं,उस पर इतने अनमने तरीके कोई कैसे फिल्म परिकल्पित कर सकता है।फिल्म 2019 के चुनाव के पहले रिलीज की कोशिश की जाती है ,लेकिन होती चुनाव के बाद है।नरेन्द्र मोदी तो अपार बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनते हैं,लेकिन पीएम नरेन्द्र मोदी पूरी तरह खारिज कर दी जाती है।वाकई जब वास्तविक नरेन्द्र मोदी का जादुई आकर्षण सामने है ,तो कोई एक कमजोर सी नकल क्यों देखे।

वास्तव में बायोपिक के साथ फिल्मकार को अक्सर यह भ्रम होता है कि फिल्म तो उनके नाम पर चलेगी,जिन पर फिल्म बनी है।इसीलिए फिल्मकार का सारा जोर बस चरित्र के लुक की नकल उतारने पर रहता है।वे यह भूल जाते हैं कि धोनी और सुशांत सिंह के लुक में कोई समानता नहीं थी,मैरी काम और प्रियंका चोपडा एकदम अलग दिखते थे,बावजूद पटकथा और परिदृश्य जिसे निर्देशक ने रचा था,का कमाल यह था कि फिल्म शुरु होने के बाद कहीं अहसास ही नहीं होता कि परदे पर धोनी या मैरी काम नहीं है।शायद फिल्मकार यह समझ नहीं पाते कि दर्शक चेहरा देखने नहीं,कहानी देखने आ रहा है।दर्शक को सिनेमा में सिनेमा दिखाने की जवाबदेही तो सर्वप्रथम है,राजनेताओं पर बने बायोपिक में अक्सर यह चूक होती है।

बाल ठाकरे पर केंद्रित दो फिल्म बनती है,एक रामगोपाल वर्मा बनाते हैं सरकार,दूसरी उनकी बायोपिक के रुप में बनती है ठाकरेसरकार पसंद की जाती है और ठाकरे नकार दी जाती है।शायद इसलिए कि सरकार; एक औपान्यसिक कृति की तरह तैयार होती है,जबकि ठाकरे शुष्क जीवनी की तरह।अमिताभ बच्च्न ठाकरे नहीं लगते हुए भी ठाकरे की भूमिका में स्वाकीर्य होते हैं,नवाजुद्दीन ठाकरे लगते हुए भी अस्वीकर्य। कंगना काफी शिद्दत से जयललिता का बायोपिक थलाइवी बनाती है,लेकिन जयललिता की अपार लोकप्रियता भी फिल्म को नहीं बचा पाती।आश्चर्य नहीं नितीन गडकरी की बायोपिक गडकरी सिर्फ महाराष्ट्र के सिनेमाघरों में रिलीज की जाती है।

भारत में समकालीन राजनेताओं पर बन रही बायोपिक की असफलता की सबसे बडी वजह ईमानदारी का अभाव दिखता।हम इसलिए नरेन्द्र मोदी या अटल बिहारी वाजपेयी पर फिल्म नहीं बनाते कि उनके प्रति हमारी श्रद्धा है,या उनके विचारों के प्रति विश्वास।इसलिए बनाते हैं कि हमें उम्मीद होती है कि जैसे तैसे भी फिल्म बन जाएगी तो उनकी लोकप्रियता फिल्म को संभाल लेगी।