शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

यश का ‘मर्डर’


यदि यश चोपडा की जब तक है जान देखते हुए महेश भट्ट की मर्डर की याद आए तो यह मानने में कतई संकोच नहीं होता कि समय से आगे बढने की कोशिश में यश चोपडा रोमांस की बनाई अपनी ही इमारत को यहां  ध्वस्त कर लेते हैं। यश चोपडा के लिए जो प्यार अभी तक रुहानी था, जब तक है जान में वह पूरी तरह जिस्मानी हो जाता है ,जो यश चोपडा को राम गोपाल वर्मा और महेश भट्ट के रोमांस के करीब ले जाती है, जिनके रोमांस की शुरुआत जिस्म से शुरु होती है और जिस्म पर ही  खत्म हो जाती है। प्यार का अहसास भर होते ही समर (शाहरुख खान) और मीरा (कटरीना कैफ) जिस तरह लंदन की सडकों पर एक दूसरे में समाने के लिए बेचैन दिखते हैं , जिस उत्तेजना में चौराहे पर लगे टेलीफोन बूथ से लेकर उंची मकानों के खुली छत पर मिलते उन्हें दिखाया जाता है, यश के प्रेम को भी जिस्मानी बना देता है। यश चोपडा प्रेम के इस स्वरुप पर अकीरा (अनुष्का शर्मा) के बहाने अपनी सहमति भी जाहिर करते हैँ, जब बम डिफ्यूजल को शूट करने के दौरान समर के साथ पुल से लटकी अकीरा कहती है, अभी मैं नहीं मरने वाली,अभी तो ढेर सारे काम करने हैं, अलग अलग प्रोफेशन से जुडे लोगों से सेक्स करना है। वह आगे भी कहती है हमारे जेनरेशन में सेक्स पहले हो जाता है, प्यार के बारे में बाद में सोचते हैं। हो सकता है आज कहीं, किसी का यह सच हो, लेकिन क्या इसे समय का सच माना जा सकता है। यदि हो भी तब भी यश चोपडा की फिल्म में यह सच देखने की उम्मीद नहीं होती, क्यों कि यश की फिल्म में हम सच देखने नहीं जाते, कहानी देखने जाते हैं, ऐसी कहानी जिसमें मानवीय कमजोरियों से परे, संवेदनाओं का उत्कर्ष दिखे। सच के नाम पर विद्रुपता दिखाने की छूट सिर्फ अनुराग कश्यप को हासिल है। यश चोपडा के नाम के साथ यदि किंग आफ रोमांस का तमगा जुडा रहा है तो उसका कारण है,उनकी फिल्मों में दिखता रोमांस का उच्चतम स्वरुप,यदि दुनियावी प्यार ही देखना हो तो फिर यश की क्या जरुरत, अनुराग को ही क्यों न देखें।
                  वर्जिन लोकेशन और विजुअल खूबसूरती यश चोपडा की फिल्मों की विशेषता हुआ करती थी, लेकिन यहां पूरी फिल्म में ये दोनों ही चीजें ढूंढती रह जानी पडती है।रिलीज के पहले लद्दाख के शूटिंग की काफी चर्चा थी, लेकिन यश वहां से कुछ भी मौलिक लाने में असमर्थ दिखते हैं। सफेद पत्थरों के पास से बहती नीली नदी को देख भला किसे थ्री इडियट्स की याद नहीं आ जाएगी। जिस विलक्ष्णता के साथ लम्हें और चांदनी में यश  राजस्थान की खूबसूरती और उसकी व्यापकता को समेट सके थे, लद्दाख और कश्मीर को समेटने में यहां चूकते दिखते हैं। कश्मीर के नाम पर  2012 में भी जब शिकारे पर नाचती हिरोइन ही दिखाई जाय तो यश की सीमा समझी जा सकती है।
                 जब तक है जान को यश चोपडा ने अपनी आखिरी फिल्म घोषित की थी। शायद फिल्म के पूरा होते होते उन्हें अहसास हो गया था कि उनकी रचनाशीलता में वह धार नहीं बची जिसके लिए वे जाने जाते रहे।निश्चय ही यदि इस फिल्म के साथ यश चोपडा, शाहरुख कान, कटरीना कैफ का नाम नहीं जुडा होता तो हरेक हफ्ते रिलीज होने वाली प्रेमकथाओं की भीड में इसे भी भूल गए होते। लेकिन हिन्दी सिनेमा के साथ, हिन्दी सिनेमा समीक्षा की भी मुश्किल है कि यह सिनेमा पर बात करने के पहले उसके बैनर और सितारों पर गौर करना जरुरी समझती है।जाहिर है सिनेमा समीक्षा के सिद्धान्त के खिलाफ जाकर भी जब तक है जान पर एक बडी फिल्म के रुप में विचार करना जरुरी हो जाता है। यह अलग बात है कि फिल्म रेत की तरह हाथों से फिसलती चली जाती है।
                    कहने को कहा जाता है कि इसकी कहानी ग्राहम ग्रीन के उपन्यास द एंड आफ अफेयर से चुरायी गई है, जिस पर हालीवुड में दो बार इसी नाम से फिल्म बनायी गई,1955 में, फिर 1999 में, और दोनों ही बार फिल्म काफी सफल रही।यह संयोग ही हो सकता है कि जब तक है जान और द एंड आफ अफेयर दोनों में ही नायक प्रेमिका से दूर होने के बाद फौज में चला जाता है, यह भी संयोग ही हो सकता है कि दोनों में ही प्रेमी की जान बचाने लिए प्रेमिका इश्वर को वचन देकर दूर चली जाती है। क्यों कि लंदन की पृष्ठभूमि में अमीर लडकी और गरीब लडके की कहानी के लिए भला ग्राहम ग्रीन की क्या जरुरत। हरेक साल हिन्दी की चार सौ में से साढे तीन सौ फिल्में ऐसी ही कहानियों पर बनती हैं। यूं भी आदित्य ने यदि ग्राहम ग्रीन को पढ लिया होता तो निश्चित रुप से फिल्म में कुछ कहानी भी होती।  हिन्दी का पुराना मुहावरा है, जूते के नाप से पैर बनाना। जब तक है जान देखते हुए भी यही लगता है कि फिल्म के स्टार कास्ट पहले तय कर लिए गए, संगीत पहले तैयार हो गया, विजुअल्स और सीन भी पहले तैयार कर लिए गए , फिर उसके लिए एक कहानी तैयार की गई।
                जाहिर है यश चोपडा की फिल्में जिस तार्किक नैरेशन के लिए याद की जाती रही हैं, उसका अभाव इस तीन घंटे लंबी फिल्म पर बहुत भारी पडता है। फिल्म कहीं से भी किसी भी तरह शुरु हो जाती है, और वैसे ही निपट जाती है।समर की इंट्री भारतीय सेना के एक मेजर के रुप में होती है, जो बम निरोधक दस्ते में काम कर रहा है। बमों को डिफ्यूज करना एक गंभीर काम है, उससे अपनी ही नहीं, अपने आस पास के सैकडों लोगों की जिंदगियां जुडी होती है। लेकिन बम डिस्पोजल के दृश्य कई बार दिखाने के बावजूद एक बार भी उसकी गंभीरता का अहसास दर्शक नहीं कर पाते। मेजर किसी राहगीर की तरह अपनी मोटर साइकिल पर आता है, और मजे से बम डिस्पोज कर चला जाता है।दर्शकों के लिए वाकई यह समझना मुश्किल होता है कि मोटर साइकिल पर अपना बिस्तरा लादे मेजर आखिर सैकडों किलोमीटर की यात्रा पूरी कर नदी किनारे पहुंच कर अकेला क्यों डेरा डालता है। क्या कश्मीर में, जहां एक ओर यश चारों तरफ बम प्लान्ट दिखाते हैं, वहीं सेना के एक होनहार मेजर का निहत्थे अकेला विचरते दिखना तार्किक माना जा सकता है। भारत में यूं भी कायदे कानून कम चलते हैं, इसीलिए यहां जब मेजर सादे ड्रेस में बम डिफ्यूज करने का आनंद ले रहा होता है तब तो बात समझ में आती है, लेकिन उसी मेजर को जब लंदन में भी सिविल ड्रेस में ही ट्रेन में लगे बम डिफ्यूज करने की अनुमति मिल जाती है तो बात समझ से परे हो जाती है।
                     यश जी ने शायद मान लिया था कि शाहरुख और कटरीना की एक्सक्लूसिव जोडी, और बोनस में मिली अनुष्का के बाद भला कौन मूढ दर्शक कहानी और कहानी में तर्क की तलाश करेगा।निश्चिन्त होकर इस फिल्म के लिए वे सब कुछ फिल्माते गए, जो उन्हे अच्छा लगा.चाहे वह कहानी से जुडी थी या नहीं। कहानी फ्लैसबैक में जाती है तो पता चलता है समर एक गरीब भारतीय है जो लंदन में अपने गुजारे के लिए कई तरह के काम करता है। कई तरह के मतलब गराज में गाडी धोने, रेस्टोरेंट में खाना खिलाने से लेकर ठेला खींचने और फिर अच्छे कपडे पहन कर लंदन की सडकों पर वायलिन हाथों में लिए पंजाबी गीत गाकर कटोरे में पैसे बटोरने का भी। इस पर बंदे का आत्म विश्वास इतना बुलंद कि एक करोडपति की बेटी से प्यार करने में जरा भी नहीं हिचकता, कोई अमीरी गरीबी का डायलाग नहीं ।जितनी सहजता से मीरा उसे स्वीकार करती है,उतनी ही सहजता से समर भी। मीरा के पिता लंदन के बडे उद्योगपति हैं, पंजाब से गए अपने पिता को जन्मदिन के तोहफे के रुप में पंजाबी गीत सुनाने की कोशिश में मीरा समर से गीत सिखाने का अनुरोध करती है, बदले में समर उससे अंग्रेजी सीखता है। दोनों की मुलाकातों में, यश चोपडा के अनुसार मीरा को गरीबी में मिलते खुलेपन का अहसास होता है। वह भी कथित मजदूर लडकियों की तरह लडकों के झुंड में कपडे उतार कर डांस करने लगती है, और जैसा कि होता आया है समर से प्यार कर बैठती है।
                           फिर अजीब से घटनाक्रमों की शुरुआत होती है, जिसकी उम्मीद कम से कम यशराज के बैनर से तो नहीं की जा सकती, तब तक, जब तक नील और निकी या टशन की याद न आ जाए। चर्च में मीरा समर के साथ प्यार में लाइन क्रास नहीं करने का वचन लेती है। संयोग कि लाइन क्रास करने के बाद समर का एक्सीडेंट हो जाता है और एक बार फिर मीरा समर की जान के एवज में इश्वर को समर से दूर रहने का वचन देती है। यश चोपडा की फिल्में प्रेम दोस्ती जैसी संबंधों की संवेदना के कारण जानी जाती रही हैं।वीर जारा की बात करें या दिल तो पागल है की उनकी फिल्में स्त्री पुरुष संबंधों को शरीर से परे ही देखती रही है। यहां यश पूरे संबंधों पर शरीर को हावी कर देते हैं। मीरा हो या अकीरा कोई भी समर के साथ दोस्त का संबंध नहीं रखना चाहती। संबंधों की अद्भुत व्याख्या देते हैं यश कि संबंध या तो जिस्मानी हों या न हों। आश्चर्य नहीं कि महेश भट्ट से विचार आयातित करते यश दृश्य तक आयात कर लेते हैं।वाकई अनुराग बसु के लिए यह सुखद आश्चर्य ही होगा कि मर्डर के एक पूरे दृश्य को यश शाहरुख और कटरीना पर फिल्माने से संकोच नहीं करते।
                       लेकिन यह भी सच है कि हिन्दी सिनेमा को सौन्दर्य की जो समझ यश चोपडा ने दी है, उसे इस फिल्म से भुलाना संभव नहीं होगा। जब तक है जान को हम भले ही भूल जाना पसंद करें, यश को भुलाना संभव नहीं होगा।

                    कहने को कहा जाता है कि इसकी कहानी ग्राहम ग्रीन के उपन्यास द एंड आफ अफेयर से चुरायी गई है, जिस पर हालीवुड में दो बार इसी नाम से फिल्म बनायी गई,1955 में, फिर 1999 में, और दोनों ही बार फिल्म काफी सफल रही।यह संयोग ही हो सकता है कि जब तक है जान और द एंड आफ अफेयर दोनों में ही नायक प्रेमिका से दूर होने के बाद फौज में चला जाता है, यह भी संयोग ही हो सकता है कि दोनों में ही प्रेमी की जान बचाने लिए प्रेमिका इश्वर को वचन देकर दूर चली जाती है। क्यों कि लंदन की पृष्ठभूमि में अमीर लडकी और गरीब लडके की कहानी के लिए भला ग्राहम ग्रीन की क्या जरुरत। हरेक साल हिन्दी की चार सौ में से साढे तीन सौ फिल्में ऐसी ही कहानियों पर बनती हैं। यूं भी आदित्य ने यदि ग्राहम ग्रीन को पढ लिया होता तो निश्चित रुप से फिल्म में कुछ कहानी भी होती।  हिन्दी का पुराना मुहावरा है, जूते के नाप से पैर बनाना। जब तक है जान देखते हुए भी यही लगता है कि फिल्म के स्टार कास्ट पहले तय कर लिए गए, संगीत पहले तैयार हो गया, विजुअल्स और सीन भी पहले तैयार कर लिए गए , फिर उसके लिए एक कहानी तैयार की गई।
                जाहिर है यश चोपडा की फिल्में जिस तार्किक नैरेशन के लिए याद की जाती रही हैं, उसका अभाव इस तीन घंटे लंबी फिल्म पर बहुत भारी पडता है। फिल्म कहीं से भी किसी भी तरह शुरु हो जाती है, और वैसे ही निपट जाती है।समर की इंट्री भारतीय सेना के एक मेजर के रुप में होती है, जो बम निरोधक दस्ते में काम कर रहा है। बमों को डिफ्यूज करना एक गंभीर काम है, उससे अपनी ही नहीं, अपने आस पास के सैकडों लोगों की जिंदगियां जुडी होती है। लेकिन बम डिस्पोजल के दृश्य कई बार दिखाने के बावजूद एक बार भी उसकी गंभीरता का अहसास दर्शक नहीं कर पाते। मेजर किसी राहगीर की तरह अपनी मोटर साइकिल पर आता है, और मजे से बम डिस्पोज कर चला जाता है।दर्शकों के लिए वाकई यह समझना मुश्किल होता है कि मोटर साइकिल पर अपना बिस्तरा लादे मेजर आखिर सैकडों किलोमीटर की यात्रा पूरी कर नदी किनारे पहुंच कर अकेला क्यों डेरा डालता है। क्या कश्मीर में, जहां एक ओर यश चारों तरफ बम प्लान्ट दिखाते हैं, वहीं सेना के एक होनहार मेजर का निहत्थे अकेला विचरते दिखना तार्किक माना जा सकता है। भारत में यूं भी कायदे कानून कम चलते हैं, इसीलिए यहां जब मेजर सादे ड्रेस में बम डिफ्यूज करने का आनंद ले रहा होता है तब तो बात समझ में आती है, लेकिन उसी मेजर को जब लंदन में भी सिविल ड्रेस में ही ट्रेन में लगे बम डिफ्यूज करने की अनुमति मिल जाती है तो बात समझ से परे हो जाती है।
                     यश जी ने शायद मान लिया था कि शाहरुख और कटरीना की एक्सक्लूसिव जोडी, और बोनस में मिली अनुष्का के बाद भला कौन मूढ दर्शक कहानी और कहानी में तर्क की तलाश करेगा।निश्चिन्त होकर इस फिल्म के लिए वे सब कुछ फिल्माते गए, जो उन्हे अच्छा लगा.चाहे वह कहानी से जुडी थी या नहीं। कहानी फ्लैसबैक में जाती है तो पता चलता है समर एक गरीब भारतीय है जो लंदन में अपने गुजारे के लिए कई तरह के काम करता है। कई तरह के मतलब गराज में गाडी धोने, रेस्टोरेंट में खाना खिलाने से लेकर ठेला खींचने और फिर अच्छे कपडे पहन कर लंदन की सडकों पर वायलिन हाथों में लिए पंजाबी गीत गाकर कटोरे में पैसे बटोरने का भी। इस पर बंदे का आत्म विश्वास इतना बुलंद कि एक करोडपति की बेटी से प्यार करने में जरा भी नहीं हिचकता, कोई अमीरी गरीबी का डायलाग नहीं ।जितनी सहजता से मीरा उसे स्वीकार करती है,उतनी ही सहजता से समर भी। मीरा के पिता लंदन के बडे उद्योगपति हैं, पंजाब से गए अपने पिता को जन्मदिन के तोहफे के रुप में पंजाबी गीत सुनाने की कोशिश में मीरा समर से गीत सिखाने का अनुरोध करती है, बदले में समर उससे अंग्रेजी सीखता है। दोनों की मुलाकातों में, यश चोपडा के अनुसार मीरा को गरीबी में मिलते खुलेपन का अहसास होता है। वह भी कथित मजदूर लडकियों की तरह लडकों के झुंड में कपडे उतार कर डांस करने लगती है, और जैसा कि होता आया है समर से प्यार कर बैठती है।
                           फिर अजीब से घटनाक्रमों की शुरुआत होती है, जिसकी उम्मीद कम से कम यशराज के बैनर से तो नहीं की जा सकती, तब तक, जब तक नील और निकी या टशन की याद न आ जाए। चर्च में मीरा समर के साथ प्यार में लाइन क्रास नहीं करने का वचन लेती है। संयोग कि लाइन क्रास करने के बाद समर का एक्सीडेंट हो जाता है और एक बार फिर मीरा समर की जान के एवज में इश्वर को समर से दूर रहने का वचन देती है। यश चोपडा की फिल्में प्रेम दोस्ती जैसी संबंधों की संवेदना के कारण जानी जाती रही हैं।वीर जारा की बात करें या दिल तो पागल है की उनकी फिल्में स्त्री पुरुष संबंधों को शरीर से परे ही देखती रही है। यहां यश पूरे संबंधों पर शरीर को हावी कर देते हैं। मीरा हो या अकीरा कोई भी समर के साथ दोस्त का संबंध नहीं रखना चाहती। संबंधों की अद्भुत व्याख्या देते हैं यश कि संबंध या तो जिस्मानी हों या न हों। आश्चर्य नहीं कि महेश भट्ट से विचार आयातित करते यश दृश्य तक आयात कर लेते हैं।वाकई अनुराग बसु के लिए यह सुखद आश्चर्य ही होगा कि मर्डर के एक पूरे दृश्य को यश शाहरुख और कटरीना पर फिल्माने से संकोच नहीं करते।
                       लेकिन यह भी सच है कि हिन्दी सिनेमा को सौन्दर्य की जो समझ यश चोपडा ने दी है, उसे इस फिल्म से भुलाना संभव नहीं होगा। जब तक है जान को हम भले ही भूल जाना पसंद करें, यश को भुलाना संभव नहीं होगा।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

गजनी वाले आमिर की तलाश



इंस्पेक्टर सुरजन सिंह शेखावत (आमिर खान) का किशोर बेटा दुर्घटना में मारा जाता है। अपने बेटे की कम उम्र में हुई मौत को शेखावत भुला नहीं पाता। उसके मन से यह बात निकल ही नहीं पाती कि इस मोत का कारण उसकी लापरवाही है। यदि वह अपने बारह साल के बेटे को उसके हमउम्र दोस्त के साथ अकेले जाने की इजाजत देने के बजाय उसके साथ खुद चला जाता, या फिर दूर जाने देने के बजाय उसे अपने साथ चेकर्स खेलने बिठा लेता तो इस दुर्घटना से बचा जा सकता था। क्या वाकई बदलते समय के साथ जल्दी जल्दी बडे होते बच्चों की समझ पर यकीन कर हम गलतियां कर रहे हैं। तलाश में तो इस यकीन का खामियाजा बच्चे को अपनी जान देकर चुकानी पडती है, लेकिन वास्तविक जीवन में आमतौर पर समाज को इसका खामियाजा उठाते देखा जा सकता है। नशाखोरी से लेकर हत्या और लूट तक में सामान्य परिवारों के अल्पव्यस्कों की बढती सहभागिता कहीं न कहीं यह तो इशारा करती ही है कि बच्चों को अभिभावकत्व से मुक्त करने का निर्णय हमें उत्साह और आलस्य में नहीं समझ के साथ उठाना चाहिए। आमिर खान की तलाश यही नहीं नहीं कहती, इसके साथ समाज, सरकार, व्यवस्था पर कई छोटी छोटी टिप्पणियां करते चलती है।
             मुम्बई में एक लडकी की रात के अंधेरे में मौत हो जाती है, रात में ही उसे दफना दिया जाता है और सवेरे शहर के चेहरे पर शिकन तक नहीं दिखती। किसी को याद भी नहीं आता कि वह लडकी कहां चली गई, सिर्फ इसलिए कि वह वेश्या थी, जो भारत में गैरकानूनी माना जाता है। वह अपनी स्थिती स्पष्ट करते हुए कहती भी है, साहब हमारी तो गिनती ही नहीं होती। जब शेखावत उसे कानून के सबों के लिए बराबर होने की बात कहता है तो वह मुस्कुराते हुए जवाब देती है, आप हंसाते बहुत हैं साहब। अपनी बात कहने के लिए रीमा कागती छोटी छोटी उपकथाओं का सहारा लेती हैं जो अंत में एक सूत्र से जुड कर सस्पेंश खोलती हैं। मुम्बई शहर के तीन नवधनाढ्य युवा बैचलर्स पार्टी का आनंद उठाने एक दलाल के माध्यम से सिमरन करीना कपूर को रात भर के लिए साथ लेकर चलते हैं। तीनों ही सम्मानित घरों से आते हैं, फिल्म यह दिखाने में भी संकोच नहीं करती कि उनमें से एक के घर में दुनिया भर के किताबों की निजी लाइब्रेरी भी है, जिनके बीच बैठे विद्वान लगते पिता से वह अपने ब्लैकमेल होने की बात भी  करता है।पता नहीं रीमा कागती यह दिखाना चाहती थी या नहीं लेकिन भारतीय समाज के बदलते मूल्यों की ओर भी तलाश गंभीरता से इशारा करती है। लेकिन सिर्फ इशारा भर क्योंकि फिल्म की कहानी कुछ और कहती है। वास्तव में ये क्षेपक हमारा ध्यान भी आकृष्ट इसीलिए कर पाते हैं कि आमिर खान की फिल्म एक तय धारणा के साथ देखने जाते हैं कि कोई तो बडी बात होगी,यदि यह फिल्म विक्रम भट्ट या रामगोपाल वर्मा ने बनायी होती तो शायद ही इन दृश्यों को हम इस तरह तवज्जो दे पाते। टुकडे टुकडे में देखने पर आमिर खान की तलाश जितनी बडी दिखती है,संपूर्णता में देखने पर उतनी ही छोटी लगने लगती है।
        अपनी फिल्मों से ज्यादा, आमिर खान ने अपनी बातों और अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता से से लोगों के मन में ऐसी छवि बना ली है, कि उनके होने भर से उम्मीदें बढ जाती हैं। जाहिर है आमिर से जो हमेशा बडी बातों की ही उम्मीद रखते हैं, उन्हें तलाश देखते हुए निराशा हो सकती है, तलाश देखते हुए यह याद करना जरुरी हो जाता है कि आमिर खान ने तारे जमीन पर बनायी तो देल्ही बेली भी। थ्री इडियट्स में भी काम किया तो गजनी में भी। यदि सिनेमा के नजरिए से देखें तो आमिर की दोनों ही तरह की फिल्मों का अपना महत्व है। महत्व इसलिए भी है कि फिल्मों की जोनर कोई भी हो, आमिर ने अपनी समझ से हिन्दी सिनेमा को हमेशा बेहतर देने की कोशिश की है। तलाश गजनी वाले आमिर खान की फिल्म है, जिसमें थ्रिल है, सस्पेंश है, इमोशन है, मनोरंजन भी है, नहीं है तो सिर्फ विचार। जो आमिर खान की फिल्मों को बडा बनाती रही है। हालांकि यह भी सच है कि सिनेमा पर विचार का बोझ कोई इमानदारी की बात नहीं, लेकिन यह भी सच है कि नकारात्मक विचार की भी इजाजत सिनेमा को नहीं दी जा सकती।
            यदि यह विक्रम भट्ट की फिल्म होती तो हम यह कहने में कोई संकोच नहीं करते कि तलाश की नायिका सिमरन उर्फ रोजी(करीना कपूर) भूत बनी हैं, फिल्म आमिर खान की है ,इसीलिए यह कहने के पहले हमें इसके पीछे के अन्य सार तत्वों की तलाश करनी पडती है। सिनेमा के लिए परावैज्ञानिक कथानकें कोई नई बात नहीं। बचपन से हम भूतों आत्माओं की कहानी सुनकर आनंदित होते रहे हैं। यह जानते हुए भी कि ये सच नहीं, भूत हमें डराती भी रही हैं,आत्माओं की हम पूजा भी करते रहे हैं। महल ये लेकर राज तक भांति भांति के रुप में हमने भूतों चुडेलों को देखा पसंद किया, अब भला आमिर ने यदि अपनी फिल्म के लिए परावैज्ञानिक कथा का चुनाव किया तो क्या आपत्ति हो सकती है ? आपत्ति इसलिए होती है कि ये कहानियां जब कहानी के रुप में कही जाती है,तो हम कहानी के रुप में स्वीकार भी करते हैं। लेकिन जब इसे जीवन की वास्तविकता के रुप में प्रदर्शित किया जाता है तो यह हमारी वैज्ञानिक समझ को चुनौती देती लगती है।तलाश में रीमा कागती की निर्देशकीय कुशलता यही करती है। शेखावत की पत्नी रोशनी अपने अल्पव्यस्क बेटे की मौत के बाद अवसाद में है। शेखावत किसी भी पढे लिखे समझदार पति की तरह मनोचिकित्सक से उसका इलाज करवाता है।लेकिन वह संतुलित तब होती है जब दवा खाना छोडकर अपने बेटे की आत्मा से बात करने का अवसर उसे मिल पाता है।
            हाल के दिनों में आमिर खान के साथ मुश्किल यह हो गई है कि हम उन पर थोडा ज्यादा ही यकीन करने लगे है।निश्चित रुप से अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए आमिर ने काफी मेहनत भी की और समर्पण भी किया। आमिर के लिए इससे बडा त्याग और क्या हो सकता है कि टेलीविजन धारावाहिक सत्यमेव जयते पर देशवासियों से मिली सकारात्मक प्रतिक्रिया के बाद उन्होंने व्यवसायिक विज्ञापनों से हाथ खींच लिए। जिस तरह भ्रुण हत्या, दहेज हत्या जैसे सामाजिक मुद्दों पर लगातार उनका हस्तक्षेप देखा गया और देश भर में जहां भी जरुरत हुई संबंधित व्यक्ति, मुलाकात कर समस्या के निदान की कोशिश की ,कोई आश्चर्य नहीं कि आमिर खान फिल्मकार और अभिनेता का व्यक्तित्व , आमिर खान सामाजिक कार्यकर्ता के आभामंडल के सामने धुंधला होता दिखा।आमिर खान ने अपनी आफ स्क्रीन और आन स्क्रीन छवि इस तरह गडमड कर ली कि स्वभाविक है आमिर आज जब कुछ कहना चाहते हैं तो लोग उनकी बातों पर यकीन करना चाहते हैं। तलाश के आरंभ में आमिर अपनी पत्नी रोशनी (रानी मुखर्जी) से आत्माओं की बात पर अविश्वास करते हुए लड बैठते है।वे अपने साथी से कहते हैं आखिर पढलिख कर कोई कैसे आत्माओं की बात पर यकीन कर सकता है।यही आमिर आत्मा की शांति के लिए दफन लाश को निकाल कर उसे जलाते दिखते हैं। जब इंस्पेक्टर बने आमिर के भूतों की कहानी पर उनका अधिकारी यकीन नहीं करता,तो आमिर अपने अनुभव के आधार पर तर्क करते हैं।
                   यदि यह हम मान सकें कि यह तर्क इंस्पेक्टर सुरजन कर रहा होता है तो शायद तलाश को भी कहानी के रुप में स्वीकार कर आनंदित हो सकें, लेकिन रीना ने तलाश के जो वातावरण गढा है उसमें आमिर को सिर्फ सुरजन के रुप में स्वीकार करना कठिन होता है।सुरजन की गंभीरता,कर्तव्य परायणता और भावुकता में आमिर की तलाश मुश्किल नहीं होती,जाहिर है जब आमिर सामने होते हैं तो उनकी बात नहीं मानने की गुंजाइस भी नहीं होती। यही है जो तलाश को स्वीकार्य बनाती है। लेकिन उस पर सवाल भी खडे करती है।कहीं न कहीं आमिर खान पर भी।

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

चक्रव्यूह में नक्सलवाद

खबरों में है कि अर्जुन रामपाल प्रकाश झा से नाराज हैं, इसलिए कि उन्होंने चक्रव्यूह के लिए इशा गुप्ता के साथ खासतौर पर फिल्माए गए उनके स्टीमी लव सीन को फिल्म से हटा दिया। आज जब तथाकथित इंटरटेनमेंट के नाम पर हिन्दी सिनेमा में सिर्फ और सिर्फ सेक्स बेचने की कोशिशें सर्वस्वीकार्य हो चुकी हों, ऐसे में बावजूद आयटम नंबर के प्रकाश झा की सिर्फ इसलिए प्रशंसा की जा सकती है कि सफलता के लिए वे अपने विषय पर इस कदर यकीन रखते हैं। हिन्दी सिनेमा में बलात्कार दृश्य दिखते रहे हैं, बलात्कार चक्रव्यूह में भी है, लेकिन निसंकोच कह सकते हैं कि हिन्दी सिनेमा के लिए यह बलात्कार दृश्य किसी पाठ से कम नहीं। प्रकाश झा न तो इसे विद्रुपता से फिल्माते हैं, न ही रोचकता प्रदान करते हैं,यह मात्र एक दुर्घटना की तरह दर्शकों तक पहुचती है। कह सकते हैं, हिन्दी सिनेमा में बलात्कार का यह एकमात्र दृश्य होगा, जिसमें बलात्कार होते नहीं दिखाया जाता, बावजूद इसके बलात्कार के दर्द से दर्शक रु ब रु होते है।
प्रकाश झा हिन्दी सिनेमा के ऐसे फिल्मकारों में रहे हैं, जिन्होंने सिनेमा की अपनी परिभाषा ही नहीं गढी, उसे लोकप्रियता की कसौटी पर भी सही साबित किया। उन्होंने जब भी फिल्में बनायीं,हिन्दी सिनेमा के आमफहम विषय से एकदम हटकर। आम हिन्दी सिनेमा जहां प्रेम और परिवार के बीच विचरण करती रही, प्रकाश झा सामाजिक –राजनीतिक द्व्न्द के के बीच से अपने लिए विषय का चुनाव करते रहे हैं। हमेशा उनके कथानक के मूल में कोई न कोई मुद्दा रहा है। आश्चर्य नहीं कि फिल्म इंडस्ट्री में अभिनय के 40 साल बिता चुके अमिताभ बच्चन भी उनके साथ काम कर मानते हैं कि मुद्दे पर आधारित फिल्म में काम करने का वह उनकी जिंदगी का पहला अवसर था। दामुल से लेकर चक्रव्यूह तक उनकी सभी फिल्मों में प्रेम और परिवार सामाजिक जीवन के मात्र एक अंश के रुप में दिखता है। अपहरण में अजय देवगण और विपाशा बसु की एक प्रेम कथा भी थी कितने लोग याद कर सकते हैं।चक्रव्यूह में भी प्रेम की एक महीन सी धारा चलती है, लेकिन प्रकाश झा के लिए मुद्दा महत्वपूर्ण होता है, उनका प्रेम दर्शकों को मुद्दा से दिकभ्रमित नहीं कर पाता।
चक्रव्यूह में मुद्दा नक्सलवाद है, जिसे प्रकाश झा एक आकर्षक आवरण में प्रस्तुत करते हैं। आकर्षक इसलिए कि दिल और दिमाग की जंग भारतीय दर्शकों को सदा से आकर्षित करता रहा है। अमिताभ बच्चन की अधिकांश फिल्मों की सफलता का राज ही इमोशन और कर्तव्य का द्वन्द रहा है। चक्रव्यूह में भी यह द्व्न्द अपने चरम रुप में दिखता है। दो विपरीत स्वभाव के मित्र, कबीर और आदिल। संतुलित और महत्वाकांक्षी आदिल सफलता की सीढियां चढता आइ पी एस अधिकारी बनता है। जबकि कबीर अपनी आइ पी एस की ट्रेनिंग अधूरी छोड, इलेक्ट्रोनिक्स पढता है,मोबाइल बनाने का काम शुरु करता है और लगातार असफल होता है। नक्सलियों के नेटवर्क के सामने निरंतर पिछडते जाने के बाद जब आदिल की प्रतिष्ठा पर आंच आती है तो कबीर उसके सहयोग के लिए आगे आता है। वह नक्सलियों के नेटवर्क में शामिल ही नहीं होता, उनका विश्वास भी जीत लेता है। आदिल को नक्सलियों के नेटवर्क को तोडने में सफलता मिलने लगती है।लेकिन इसी दरम्यान कबीर को नक्सलियों की लडाई की वास्तविकता और राज्यसत्ता के दमनकारी स्वरुप का बोध होता है, और वह पुलिस के सामने नक्सलियों के लिए ढाल बन कर खडा हो जाता है। लेकिन चक्रव्यूह सिर्फ दोस्ती और विश्वासघात की कहानी नहीं कहती।
कथानक के इस लोकप्रिय आवरण में प्रकाश झा अपने मुद्दे को केन्द्र में रखते हैं, और पुलिस, राजनेता, उद्योगपति के गठजोड के बरक्स नक्सल आंदोलन की इमानदारी और जीवट को रेखांकित करते हैं, मुश्किल यह है कि इसके साथ वे कोशिश विश्लेषण की भी करते हैं। मुश्किल यहीं होती है, नक्सलवाद भारतीय समाज के लिए इतना संवेदनशील मुद्दा है कि  इसका विश्लेषण हमेशा ही तलवार की धार पर चलने जैसे संतुलन की मांग करता है। प्रजातंत्र में अपने अधिकारों की लडाई के लिए हिंसक आंदोलन की वकालत नहीं की जा सकती, न ही राज्यसत्ता की हिंसक और दमनकारी नीतियों की की जा सकती है। लेकिन यह भी सच है कि भारतीय प्रजातांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था और नक्सलवाद दोनों में से किसी एक के ही साथ हम हो सकते हैं। चक्रव्यूह में प्रकाश झा एक मुश्किल संतुलन साधने की कोशिश करते हैं, और अंततः नक्सलवादी आंदोलन को समझने में हुई आरंभिक गडबडियां बाद में उनके कदम डगमगा देती है।
प्रकाश झा बिहार से रहे हैं, आंदोलन को उन्होंने करीब से देखा भी है।आश्चर्य होता है जब नक्सलवादी आंदोलन को वे आदिवासियों के आंदोलन के पर्याय के रुप में मनवाने की कोशिश करते हैं। न तो सभी नक्सलवादी आदिवासी हैं, न ही सभी आदिवासी नक्सलवादी। चक्रव्यूह में नक्सलवाद को औद्योगिकीकरण और सेज जैसे मुद्दे के साथ जोड कर देखने की कोशिश की गई है, बार बार खदान पर अधिकार की बाते होती हैं, जब कि नक्सलवाद के सामान्य विद्यार्थी को भी पता है कि नक्सलवाद मूलतः भूमि संघर्ष से जुडा रहा है। कतई आश्चर्य कि पूरी फिल्म में भूमि संघर्ष की बात कहीं नहीं आती। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रकाश झा अपने बिहार के दर्शकों को नाराज नहीं करना चाहते, जिनके लिए भूमिसंघर्ष सबसे संवेदनशील मुद्दा रहा ही नहीं,आज भी है, इतना संवेदनशील कि नीतीश कुमार तक को भूमि सुधार की बात कह कर उसे तुरंत वापस ले लेनी पडती है।
चक्रव्यूह में नंदी घाट और महान्ता जैसे नामों का इस्तेमाल इसे समकालीन तो बनाते हैं, लेकिन मुद्दे से भ्रमित भी करती हैं। फिल्म में बार बार इस सवाल को उठाया जाता है कि विकास का लाभ आदिवासियों तक नहीं पहुच रहा है। अब जब उद्योग आप स्थापित होने ही नहीं देना चाहते, इस पूर्वाग्रह के साथ कि इसका सारा लाभ उद्योगपतियों को मिलेगा। आखिर कैसे विकास हो सकता है। पुल आप ध्वस्त कर देंगे, स्कूल उडा देंगे, अस्पताल बनने नहीं देंगे, यह तो ऐसा ही है कि कमरे को बंद कर लें फिर कहें कि कोई हमें रोशनी क्यों नहीं दे रहा। अधिकार की लडाई तो तब वाजिब मानी जा सकती थी, जब उद्योग लग जाने के बाद उन्हें उनका लाभ नहीं मिल पाता। गांव उजाडने की वकालत किसी भी कीमत पर नहीं की जा सकती , लेकिन गांव यदि लोहे के खदान पर या तेल के कुएं पर बसा हो तो क्या विकास के लिए जिद की बजाय सुलह का रास्ता नहीं निकाला जाना चाहिए।
कई सवाल हैं,जिसका जवाब ढूंढने की कोशिश चक्रव्यूह नहीं करती। लेकिन अफसोस कि बगैर जवाब ढूंढे ही अधिकार के कथित हिंसक आंदोलन को जायज ठहराने की हडबडी में भी दिखती है। फिल्म में महान्ता के बेटे का अपहरण भी दिखाया जाता है, जबकि सच यही है कि आज तक नक्सल आंदोलन ने निजी तौर पर न तो किसी उद्योगपति को निशाना बनाया है, न ही बडे जमिंदारों को, आमतौर पर नक्सलियों के निशाने पर उद्योगपतियों ,ठेकेदारों के कारिन्दे और छोटे किसान ही रहे हैं। चक्रव्यूह इन सवालों का भी जवाब ढूंढने की कोशिश नहीं करती कि नक्सल आंदोलन के नाम पर पैसेंजर ट्रेनों को उडा कर सैकडों यात्रियों की जान ले लेना किस तरह आंदोलन का हिस्सा हो सकता है। फिल्म यह भी स्पष्ट नहीं करती कि नक्सलवादियों को आधुनिक हथियारों की खेप आखिर आ कहां से रही है,ये हथियार बाजार में तो बिकते नहीं कि पैसे से खरीदे जा सकें। सबसे बडी बात नक्सलवादियों का मांगे आखिर हैं क्या, ये अभी तक तो अमूर्त हैं, फिल्म भी इसे स्पष्ट नहीं करती। ये बात तो समझ में आती है कि विकास में हिस्सेदारी आदिवासियों को भी मिलना चाहिए, लेकिन सवाल है उस हिस्सेदारी का अनुपात क्या होगा,कैसे होगा,क्या उसकी जवाबदेही जनताना अदालत उठायेगी। वास्तव में नक्सलवादियों की एक, और एकमात्र मांग है राज्यसत्ता में हिस्सेदारी, इससे शायद ही कोई इन्कार कर सके। सवाल है प्रजातंत्र की कीमत पर क्या हम इसके लिए तैयार हैं।काश. चक्रव्यूह इसका भी जवाब ढूंढ पाती.संतोष सिर्फ इतना है कि सिनेमा के परदे पर लाल सलाम और टैंगो चार्ली जैसी फिल्मों की जगह नक्सलवाद पर एक गंभीर विमर्श की शुरुआत तो प्रकाश झा ने की।