शनिवार, 10 सितंबर 2011

आंकडों के गणित में उलझा सफलता का व्याकरण

‘बॉडीगार्ड’ ने कमाई के सारे रिकार्ड तोड़ दिये। कहते हैं 50 करोड़ में बनी इस फिल्म ने पहले ही दिन 21 करोड़ से ज्यादा की कमाई कर बॉक्स ऑफिस पर इतिहास रच दिया। ईद के त्योहार के मद्देनजर परम्परा के विपरित बुधवार को रिलीज होने वाली ‘बॉडीगार्ड’ के रूझान को देखते हुए तय है पहले हफ्ते में कमाई के सौ करोड़ के जादुई ऑकड़े को यह फिल्म पार कर लेगी। यह सौ करोड़ का ऑकड़ा तब और बड़ा दिखने लगता है जब इसे हिन्दी की अब तक की सबसे बड़ी हिट ‘थ्री इडियट्स’ की कमाई के 55 करोड़ के साथ देखते हैं। समीक्षकों और आम दर्शकों की राय के बरक्स ‘बॉडीगार्ड’ का यह ऑकड़ा वाकई चकित करता है। आखिर कोई फिल्म इतनी कमाई कैसे कर सकती है। जब आम तौर पर समीक्षकों ने इसे दो से ढ़ाई स्टार देकर अतिसामान्य फिल्म की श्रेणी में रखा हो। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर फिल्म के प्रति आम दर्शकों की राय भी रत्ती भर उत्साहवर्धक नहीं देखी गई। कह सकते हैं 95 फीसदी दर्शकों ने इसे बुरी फिल्म करार दिया है तो शेष ने सामान्य। शायद ही किसी दर्शक या समीक्षक ने फिल्म में कुछ बेहतर ढ़ूंढ़ निकालने में सफलता पाई हो। बावजूद इसके जब ‘बॉडीगार्ड’ कमाई का इतिहास रच रही है तो सहज जिज्ञासा होती है, इतनी ‘बुरी’ फिल्म को आखिर देखने कौन जा रहा है? यदि देखने नहीं जा रहा है तो फिल्म कमाई कैसे कर रही है? और फिल्म कमाई कर रही है तो उसके सही विश्लेषण के बजाय इसे खारिज कर हम आम दर्शकों की पसंद को नजरअंदाज तो नहीं कर रहे? लेकिन इस सब के साथ सबसे बड़ा सवाल यह है कि किसी फिल्म को सफल या बेहतर कहने का आधार सिर्फ कमाई ही हो सकती है? या फिर दर्शकों की तादाद भी? क्या दोनों में कोई फर्क है भी? कमाई के अन्यान्य श्रोतों को छोड़ सिर्फ बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की ही बात करें तो मोटे तौर पर कह सकते हैं, कोई फर्क नहीं। बॉक्स ऑफिस कलेक्शन तो दर्शकों पर ही निर्भर करता है। लेकिन यह सीधा सा उत्तर तब सीधा नहीं रह जाता जब ‘शराबी’ के एक दृश्य से हम इसे समझने की कोशिश करते हैं कि किस तरह अमिताभ बच्चन ने जयाप्रदा के नृत्य को देखने के लिए अकेले पूरे हॉल के सारे टिकट बुक करवा लिए थे। सिनेमा घरों में आम तौर पर ऐसा होता नहीं, लेकिन कमाई को सफलता के पर्याय माने जाने पर संदेह का आधार तो देती ही है। खासकर तब जब आर्थिक उदारीकरण के दौर में बॉक्स ऑफिस के फार्मूले भी बदले हैं। 90 के दशक तक सिनेमा घरों की टिकट दर सरकार द्वारा नियंत्रित होती थी। टैक्स टिकट दर के अनुपात में लगता था, इसी लिए सिनेमा घर मालिकों की भी रूचि उसे बढ़ाने में नहीं होती थी। जैसे ही सरकार ने सिनेमा घरों को टैक्स और टिकट के अनुपात से मुक्त किया, सिनेमा घरों के टिकट दर अराजक हो गए। अराजक इस अर्थ में कि ‘चितकबरी’ यदि किसी सिनेमा घर में आप पचास रूपये में देख रहे हैं तो उसी सिनेमा घर में ‘बॉडीगार्ड’ देखने के लिए आपको ढ़ाई सौ रूपये देने पड़ सकते हैं। मल्टीप्लैक्सों में आम तौर पर 12 बजे के पहले और 12 बजे के बाद के शो में 100 से 150 रूपये तक का फर्क देखा जा सकता है। यही फर्क कमोबेश सप्ताहांत के दिनों और बाद के दिनों में भी दिख जा सकता है। आखिर कैसे कमाई के आधार पर दर्शकों की तादाद तय की जा सकती है। ‘आरक्षण’ को सीतापुर में दस दर्शकों ने जितनी कमाई दी, उतनी कमाई ‘बॉडीगार्ड’ को एक दर्शक ने दिल्ली में दे दी। कमाई के ऑकड़े तय कर देते हैं कि ‘आरक्षण’ फ्लाप हो गई और ‘बॉडीगार्ड’ हिट। छोटे शहरों के सिंगल थियेटर के दर्शक हतप्रभ रह जाते हैं कि मैंने तो फिल्म देखी ही नहीं, फिर हिट कैसे हो गई। वास्तव में कमाई लोकप्रियता का सिर्फ एक पक्ष दर्शाती है। यह ना तो इस बात का प्रमाण बन सकती है कि फिल्म बहुत अच्छी है, ना ही इस बात का की दर्शक अब बुरी फिल्में पसंद करने लगे है। क्यों कि सिनेमा व्यवसाय के नये फार्मूले ने दर्शकों को यह अवसर ही देना बन्द कर दिया है कि वे अच्छी और बुरी फिल्म का चुनाव कर सकें। फिल्म अच्छी या बुरी होने की खबर तो आम दर्शकों तक अमूमन तीन दिनों बाद ही पहुंचती है, कोशिश होती है कि उसके पहले दर्शकों को सिनेमा घर खीच लाया जाय। आक्रामक प्रोमोशन के साथ 800 से ज्यादा प्रिंट और उससे भी ज्यादा यू.एफ.ओ. रिलीज के बाद दर्शकों के पास अवसर सिर्फ इस बाद का रह जाता है कि वे अपनी देखी हुर्इ फिल्म को बुरी कह सकें। जैसा अभी ‘बॉडीगार्ड’ में देखा जा रहा है। किसी भी सोशल नेटवर्क पर जाय या रिव्यूज पर दर्शकों के कमेन्ट्स देखें, ‘बॉडीगार्ड’ देखने के बाद दर्शकों की खीझ का अहसास कर सकते हैं। लेकिन हिन्दी सिनेमा के सफलता का जो आधार तय कर दिया गया है, उसके अनुसार आप की लाख खीझ फिल्म को असफल करार नहीं दे सकती। क्यों कि फिल्म ने तो कमाई कर ली है। अदभुत है हिन्दी सिनेमा की सफलता का यह व्याकरण कि वही दर्शक उसे सफल बनाते हैं, जो बाद में उसे बकवास करार देते हैं। मुश्किल तब होती है जब हम कमाई को ही सफलता का एक, और एकमात्र मानक मान लेते हैं। इस गलतफहमी से होता यह है कि ‘वान्टेड’, ‘रेडी’ और ‘बॉडीगार्ड’ जैसी फिल्मों को भी बेहतर साबित करने का दबाव समीक्षक महसूस करने लगते हैं। उन्हें लगने लगता है आखिर जिस फिल्म को आम जनता पसंद कर रही है उसमें कुछ तो खासियत होगी। हालांकि वह खासियत ढ़ूंढ़ने कि कोशिश अकसर हमें गलत निष्कर्ष पर ले जाती है क्योंकि कमाई अब दर्शकों की तादाद पर नहीं, दर्शकों के दोहन पर निर्भर करती है। ‘लव सेक्स और धोखा’, ‘मर्डर-2’ और ‘देव-डी’ हिट मान ली जाती है, जबकि अधिकांश सिंगल थियेटरों तक यह पहुंच भी नहीं पाती। सवा अरब के मुल्क में सवा लाख लोगों की जेब से पैसे निकलवा लेने को कमाई तो जरूर कहा जा सकता है, सफलता कैसे कही जा सकती है? वास्तव में कमाई और सफलता दो अलग शब्द हैं। कमाई के लिए दाउद और छोटा राजन भी जाने जाते हैं, लेकिन सफलता की जब बात होगी तो नारायण मूर्ति की ही चर्चा होगी। सिनेमा ने दोनों शब्दों को एक कर अपने लिए जो सफलता का मानदण्ड बना लिया है उसके अनुसार ‘थ्री इडियट्स’, ‘राजनीति’ और ‘दबंग’ की तुलना हम समान भाव से करते हैं। क्या किसी भी स्तर पर यह तुलना संभव है? ‘बॉडीगार्ड’ जब ‘थ्री इडियट्स’ से ज्यादा सफल होने का दंभ भरती है तो कोई इसे कैसे स्वीकार कर सकता है? सफलता कभी कमाई से नहीं ऑकी जा सकती। यह जरूर है कि सफलता का एक मानक कमाई भी है। लेकिन जब फिल्म के संबंध में हम बात करें तो सफलता का सबसे महत्वपूर्ण मानदंड यह लगता है कि कितने लोगों ने इसे देखा। ‘दबंग’ की सफलता इसलिए असंदिग्ध है कि आम लोगों ने बीस बीस रूपये से उसकी कमाई में इजाफा किया। एक दूसरा मानदंड यह हो सकता है कि अपने दर्शकों से किस हद तक कोई फिल्म संवाद स्थापित कर पाती है। ‘थ्री इडियट्स’ या ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ सिर्फ इसलिए सफल नहीं कि उसने कितनी कमाई की, इसलिए सफल मानी जाती है कि उसने दर्शकों तक वे बातें संप्रेषित की जो वे कहना चाहती थी। सिनेमा को सफल मानने के और भी मानक हो सकते हैं, निश्चित रूप से जब हिन्दी सिनेमा का सौंदर्यशास्त्र गढ़ा जायेगा तो ये मानक ज्यादा स्पष्ट होंगे। तब तक इतना तो हम कर ही सकते हैं कि कम से कम कमाई और सफलता को अलग कर देखने की कोशिश करें।

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