बुधवार, 24 अगस्त 2011

सिनेमा से बाहर रहा सत्याग्रह




सत्य पर यकीन हो न हो, हिन्दी सिनेमा का सत्याग्रह पर कभी कतई यकीन नहीं रहा।यह भी दिलचस्प है कि सत्य की लडाई हिन्दी सिनेमी का प्रिय विषय रहा,लेकिन लडाई के जो तौर तरीके इसने स्वीकार किए ,उसका सत्याग्रह से दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं था।आज यह स्मरण अपने आप में चकित कर देता है कि महात्मा गांधी के जिस देश के आधार में ही अहिंसा थी ,आंदोलन के अहिंसक तौरतरीके थे, उस देश की फिल्मों में सत्य की लडाई का एक और एक ही तरीका दिखा ,वह था हिंसक। `इन्कलाब ` में अमिताभ बच्चन याने नायक राजनीतिक भ्रष्टाचार से लडने की कोशिश करता हुआ अंततः विधान सभा में घुसकर एक साथ सभी मंत्रियों को मौत के घाट उतार देता है।इसी का निर्वाह थोडे परिष्कृत रूप में राकेश ओम प्रकाश मेहरा भी अपनी बहुचर्चित फिल्म `रंग दे बसंती `में करते हैं । जब नायक राजनीतिक भ्रष्टाचार से लडने की शुरुआत तो शांतिपूर्ण प्रदर्शन से करता है लेकिन अंतिम रास्ता उसके पास भी मंत्री को गोली मार कर खुद शहीद हो जाना ही होता है।ये कोई एक दो फिल्म नहीं ,शूल या प्रतिघात जैसी विषय को गंभीरता से उठाती हुई फिल्म हो या फिर हरेक वर्ष सैकडों की तादाद बनने वाली `फूल बने अंगारा` की तरह तेरह मसालों वाली फिल्में,लब्बोलुवाब सबका एक ही रहता है,भ्रष्टाचार का हिंसक समाधान। ऐसे में अण्णा हजारे के आंदोलन पर जब हिन्दी सिनेमा उत्साहित दिखती है तो आश्चर्य होता है ,क्या वाकई हिन्दी फिल्मकारों को सत्याग्रह की संवेदनशीलता महसूस होने लगी है । या फिर उद्देश्य एकमात्र अण्णा की लोकप्रियता का दोहन है,जेसिका और नीरज ग्रोवर की तरह।
अण्णा हजारे तो अब उम्र के चौहतरवें पडाव पर हैं,महाराष्ट्र के कई इलाके गवाह हैं उनकी सक्रियता और संघर्ष के। उनकी परिकल्पना महाराष्ट्र के कई गावों में वर्षों से साकार होते दिख रही है।इसी सेवा के लिए वर्षों पूर्व से इनहें राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित किया जाता रहा है।यदि सिनेमा को वाकई अण्णा हजारे या उनके काम में या फिर उनके काम करने के तरीके में रुचि होती तो अब तक कई फिल्में बन चुकी होती।आज सिनेमा को अण्णा की सादगी और सत्याग्रह में यदि ग्लैमर दिख रहा है तो उसकी वजह अचानक से मिली उनकी असीम लोकप्रियता है,आज अणेणा व्यक्ति नहीं ब्रांड बन चुके हैं,चौबीसों घंटे न्यूज चैनलों पर वे दिखाई दे रहे हैं। उनके नाम के टी शर्ट और टोपियां बिक रही हैं,कोई बडी बात नहीं आने वाले दिनों में ब्रांडेड शोरुमों में उनके मर्केंडाईज बिकते दिखे। ऐसे में जब अण्णा पर सिनेमा की घोषणा सुनाई देती है तो स्पष्ट लगता है यह अण्णा के मुद्दे और समर्पण को सम्मानित करने की कोशिश नहीं हो सकती।
यदि हिन्दी सिनेमा इतनी ही जवाबदेह होती तो 74 आंदोलन अभी तक इसके विषय से बाहर क्यों रहता,सुधीर मिश्रा की एक `हजारों ख्वाहिशें ऐसी ` के सिवा उस राष्ट्रव्यापी आंदोलन पर हिन्दी सिनेमा के हाथ खाली हैं। अनुपम ओझा 74 आंदोलन की पृष्ठभूमि पर पटकथा लेकर वर्षों से प्रोड्यूसर तलाश रहे हैं किसी के पास तवज्जो देने का वक्त नहीं। आज अचानक अण्णा के सत्याग्रह में उनलोगों को संभावनाएं दिखने लगी हैं।तो चकित होना स्वाभाविक है।वास्तव में आंदोलन के जनतांत्रिक तौर तरीकों पर हिन्दी सिनेमा को कभी विश्वास नहीं रहा।मेधा पाटकर के साथ आमिर खान भले ही धरने पर बैठने चले जाएं,उसे फिल्म का विषय बनाने की हिम्मत नहीं जुटा सकते।महेश भट्ट भाषण चाहे जितना दे दें, बनाएंगे वे मर्डर का सिक्वल ही.
वास्तव में हिन्दी सिनेमा अतिरेक पर विश्वास पर रखती है.उसे ड्रामा भी चाहिए तो थोडा ज्यादा ,जो जाहिर है जनतांत्रिक आंदोलन में उसे नहीं मिल सकता ।एक आम आदमी का भी संघर्ष दिखाना वह चाहे तो अधिक से अधिक `ए वेडनेस डे `सोच सकती है,जहां अंततः जनतंत्र और संवैधानिक दायरे पर अविश्वास ही स्थापित होता है।`खोसला का घोसला` में भी आम आदमी की लडाई दिखती है ,लेकिन यहां भी कोई सत्याग्रह या संवैधानिक तरीका उन्हें समाधान नहीं देता ,छल छद्म ही मदद करता है।चीनी कम याद होगी आपको,जिसमें नायिका के गांधीवादी पिता अपनी बेटी के अपने से भी उम्रदराज पुरुष से विवाह करने के निर्णय से रोकने की जिद में आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं।सिनेमा में अनशन की यह मिमिक्री भी देखी हमने।सही मायने में हिन्दी सिनेमा की मुख्य धारा में सत्याग्रह के हथियार का इस्तेमाल पहली बार लगे रहो मुन्ना भाई में दिखा था।ईक्कीसवीं सदी में गांधीवाद की प्रासंगिकता स्थापित करती यह फिल्म पूरी संवेदनशीलता और गंभीरता से गांधीवाद के मूल तत्वों को दर्शकों से शेयर करती थी।लेकिन अपार सफलता के बावजूद सत्याग्रह की यह परंपरा परवान नहीं चढ सकी।अपने दर्शकों से दूर होते सिनेमा केलिए यह समझना ही मुश्किल था कि उसका जनता को अभी भी सत्याग्रह और अनशन जैसे शब्द आंदोलित करते हैं। आश्चर्य नहीं कि प्रकाश झा जब `आरक्षण` लेकर आए तो सिनेमा के बिजनेस एक्सपर्ट से लेकर समीक्षकों तक ने इसके अंत पर सवाल उठाए। आज अण्णा ने उनके सवालों का जवाब दे दिया कि सही मुद्दे को लेकर एक व्यक्ति भी संघर्ष की शुरुआत कर दे तो एक एक कर पूरी दुनिया उसके साथ हो सकती है।प्रकाश झा जब भ्रष्ट होती शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ प्रभाकर आनंद के संघर्ष को आमजन के साथ जनतांत्रिक दायरे में सफल होते दिखाते हैं तो विश्वास मिलता है अण्णा के अनशन को परदे पर उतारना असंभव नहीं ,बशर्ते अण्णा के संघर्ष को समझने की कोशिश कि जाय।हालांकि उस हिन्दी सिनेमा से यह उम्मीद कुछ ज्यादा ही है ,जिसे अपना भविष्य हिंसा और सेक्स के दलदल में ही सुरक्षित नजर आता हो।तबतक खुश हो सकते हैं सितारों के टविट से कि जबानी ही सही सिनेमा सत्याग्रह के साथ तो है।

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