सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

बाजार की शर्तों पर रा.वन



‘रा.वन’ शाहरूख खान की फिल्म है, लेकिन शाहरूख खान ‘रा.वन’ नहीं है। यह निगेटिव किरदार फिल्म में अर्जुन रामपाल ने निभाया है, जबकि शाहरूख जी.वन बने हैं, जो ‘रा.वन’ के आतंक से पृथ्वी को मुक्त कराते हैं। कहा नहीं जा सकता कि निगेटिव चरित्र के नाम पर टाइटिल रखने की प्रेरणा उन्हें ‘गजनी’ की अपार सफलता से मिली या भारतीय समाज में बढ़ती नकारात्मक चरित्रों की प्रतिष्ठा से। लेकिन इतना निश्चित है कि अपने इस महत्वाकांक्षी फिल्म में शाहरूख खान किसी जोखिम के लिए तैयार नहीं है। अपनी लम्बी अभिनय यात्रा में शाहरूख खान भारतीय दर्शकों की पसंद का जो कुछ अंदाजा लगा सके, वह सब एक साथ अपने ‘सर्वोत्तम’ रूप में जुटाने की उन्होंने भरसक कोशिश की है, फिल्म के प्रोमोज और फिल्म से जुड़ी खबरों को देखते हुए यह नि:संकोच कहा जा सकता है। शाहरूख के सर्वोत्तम की यह जिद ही मानी जायेगी कि कहने को फिल्म का निर्देशन तो अनुभव सिन्हा ने किया, लेकिन प्रेम दृश्यों की बारी आई तो वे अपने मित्र करण जौहर को नजर अंदाज नहीं कर सके। कहते हैं फिल्म के एक्सन पक्ष को तो अनुभव ने निर्देशित किया लेकिन इमोशनल हिस्से को करण और उनके सहयोगी तरूण मनसुखानी ने पूरा किया। यहां पर हिन्दी सिनेमा के सबसे अनुभवी पटकथा लेखक जावेद अख्तर की बात याद आती है, जो उन्होंने अपनी ही फिल्म ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ के जबर्दस्त नाकामयाबी के संदर्भ में कही थी, ‘मैं आपको नाकामयाब फिल्में लिखने के दो तरीके जरूर बता सकता हुँ। सबसे पहले तो आप ये तय कर लीजिये कि आप एक अजीम फिल्म बनायेंगे, दूसरी चीज आज ये तय कीजिये कि वे आपके लिए नहीं होगी, बल्कि आम आदमी के लिए होगी। पहली सूरत में आप उपर की ओर देख रहे हैं दूसरी सूरत में आप नीचे देख रहे हैं। लेकिन दोनों सूरतों में आप गलती कर रहे हैं क्योंकि आप एक ऐसी चीज बनाने जा रहे हैं जो आपके दिल से नहीं निकल रही है।’
‘रा.वन’ का प्रमोशन करते हुए जब शाहरूख खान कहते हैं, मैं साबित करना चाहता हूँ हॉलीवुड के सुपर हीरो की तरह ही भारत के पास अपना सुपर हीरो है, तो मानना पड़ता है यह फिल्म शाहरूख के दिल से निकल रही है। लेकिन भारतीय सुपर हीरो को तैयार करने के लिए जब वे हॉलीवुड से विशेषज्ञों की भीड़ जमा कर लेते हैं तो आश्चर्य होता है कैसा भारतीय सुपर हीरो होगा यह जिसकी नस-नस अमेरिकी विशेषज्ञ तैयार कर रहे हैं। सबसे पहले तो इस तथाकथित भारतीय सुपर हीरो की परिकल्पना ही उन्होंने अमेरिकी पटकथा लेखक डेविड बुनुलो को सौंप दी जिन्होंने कभी जैकी चैन के लिए ‘एराउण्ड द वल्र्ड इन 80 डेज’ लिखी थी। क्या आश्चर्य नहीं कि भारतीय सुपर हीरो की कोई भी छवि उन्हें भारतीय परम्परा में नहीं दिखी? कृष्ण, हनुमान, भीम, अर्जून या गणेश जैसे पौराणिक पात्रों को छोड़ भी दें तो शिवा जी से लेकर चन्द्रशेखर आजाद तक सुपर हीरो की उपस्थिति से भारतीय इतिहास कभी महरूम नहीं रहा। यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि हॉलीवुड अपने सुपर हीरो को परिकल्पित करने के लिए आधार भारतीय सुपर हीरो को ही बनाता रहा है, चाहे वह ‘सुपरमैन’ हो या ‘स्पाइडरमैन’ उसके करतबों में सहजता से भारतीय सुपर हीरो के कारनामों की पहचान की जा सकती है। वास्तव में अमेरिका या कहें पश्चिम के पास सुपर हीरो तो कभी रहा ही नहीं। आज उसी सुपर हीरो को हॉलीवुड हमें अपना कह वापस सौंप रहा है। और उस आयातित सुपर हीरो पर हम भारतीय होने का दम्भ भर रहे हैं। जबकि उसे भारतीय लुक देने की हॉलीवुड तकनीशियनों ने कोर्इ कोशिश भी नहीं की है। प्रोमोज में दिख रहे नीली आखों वाले गोरे चिट्टे सुपर हीरो को आखिर कैसे भारतीय मान लें?
इस कथित भारतीय सुपर हीरो को प्रस्तुत करने में शाहरूख खान भारतीय क्षमता से किस कदर असंतुष्ट थे यह इसी से समझा जा सकता है कि सिनेमेटोग्राफी के लिए उन्होंने हॉलीवुड से निकोला निकोरिनी को बुलाया। सम्पादन की जवाबदेही हॉलीवुड के ही मार्टिन वाल्स को सौंपी। स्पेशल इफेक्टस के साथ सुपर हीरो ‘रा.वन’ और जी.वन के ड्रेस डिजाइन के लिए भी हॉलीवुड के रॉबर्ट कुर्तजमैन की मदद ली। जैसे इतना ही काफी नहीं ‘छम्मक छल्लो....’ जैसे चालू गाने के लिए भी वे किसी भारतीय गायक पर भरोसा नहीं कर सके, और हॉलीवुड के गायक एकोन से उसे गवाया। ‘रा.वन’ को लेकर हॉलीवुड पर निर्भरता का यह चरम ही था कि आमतौर पर गानों की धुन उड़ा लेने वाले बॉलीवुड में उन्होंने ‘दिलबारा....’ के लिए बेनकिंग के गीत ‘स्टैन्ड बाइ मी’ के धुन की राइट्स खरीद कर एक नई शुरूआत की। निश्चय ही यह एक अच्छी शुरूआत मानी जा सकती है, लेकिन सही में क्या संगीत के लिए भी अब हिन्दी सिनेमा को हॉलीवुड का ही मुंह जोहना होगा। क्या वाकई शाहरूख को यह लग रहा है कि जिस इण्डस्ट्री ने उसे इतनी बड़ी पहचान दी, उसका सामर्थ्य उससे छोटी हो गई है?
‘रा.वन’ के लागत की बात हालांकि शाहरूख खान हंसी में टाल जाते हैं लेकिन एक अनुमान के अनुसार पांच साल में बनने वाली इस फिल्म की लागत रिलीज होते होते 175 करोड़ से उपर हो जा सकती है। हिन्दी सिनेमा के लिए इस 175 करोड़ का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि इतने में 300 ‘भेजा फ्राय’, 50 ‘तारे जमीन पर’ और 5 ‘दबंग’ आसानी से बन सकती है। इसके पहले तक हिन्दी की सबसे महंगी फिल्म होने का दम्भ भरने वाली ‘ब्लू’ जैसी फिल्म भी दो से ज्यादा बन सकती है। लागत में रजनीकांत के ‘इंधिरान’ यानि ‘रोबोट’ के करीब पहुंच जाने वाली यह फिल्म भी ‘रोबोट’ की तरह ही तमिल, तेलगु और जर्मन में डब हो रही है। लेकिन इतनी लागत के बावजूद जब फिल्म के पहले ही रिलीज पोस्टर पर सीधे-सीधे नकल के आरोप लगते हैं तो आश्चर्य होता है कि आखिर इस खर्च में क्या कोई हिस्सा लेखकों-कलाकारो का भी था, जिनकी मौलिक परिकल्पना, फिल्म को मौलिक स्वरूप दे सकती थी। हॉलीवुड यदि ‘अवतार’ पर खर्च करती है तो उसका खर्च उसकी मौलिकता में दिखता है, वहां ऐसा कुछ दिखता है जो सिनेमा के परदे पर ना तो पहले देखा गया, ना सुना गया। लेकिन ‘रा.वन’ की पहली झलक जब रिलीज की जाती है तो उसमें वर्षों से देखा सुना जा रहा वही ‘छम्मक छल्लो’ दिखायी देता है, वही वस्त्र विन्यास, वही डांस स्टेप्स, वही अदायें आखिर कैसे माना जाय कि ‘रा.वन’ के रूप में शाहरूख खान हिन्दी सिनेमा को जो देने जा रहे हैं वह ‘बॉडीगार्ड’ या ‘दबंग’ से अलग होगी? अपनी-अपनी जगह चुलबुल पाण्डेय या लवली सिंह भी तो किसी सुपर हीरो से कम नहीं दिखते थे।
वास्तव में शाहरूख खान उपभोक्तावाद और खुली अर्थव्यवस्था द्वारा तैयार उस युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां धन ही अन्तिम साध्य होता है। आश्चर्य नहीं कि दिलीप कुमार कहते थे, ‘एक्टिंग को मैं अपना ईमान समझता हूं, धर्म समझता हूं। मुझे लगता है यह मुझे खुदा की नेमत है।’ जबकि शाहरूख खान कहते हैं, ‘मैं अपने रोल को साइनिंग अमाउन्ट से परख लेता हूं। मैं अपनी एक्टिंग में उतने ही इमोशन डालता हूं, जितने पैसे मिलते हैं।’ शाहरूख खान को शर्म नहीं कि वे पैसे के लिए काम करते हैं। वे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं कि पैसे के लिए मैं बारात से लेकर जन्मदिन पॉर्टियों तक में नाच सकता हूं। वे नाचते भी रहे हैं। अपने पिता को उद्धृत करते हुए शाहरूख ने कहा था कि उन्होंने सलाह दी थी, इतना जरूर कमा लेना कि किसी का पैसा देखकर जलन ना हो। शाहरूख ने नहीं बताया कि ये सलाह उनके पापा ने अपने होनहार बेटे को दी थी या ‘सितारे’ को? क्योंकि लाख महत्वाकांक्षी होने के बावजूद कोर्इ मध्यवर्गीय पिता अपने बेटे को यह सलाह देने की हिम्मत तो नहीं ही जुटा सकता। पिता की सलाह हो या नहीं सच यही है कि शाहरूख खान की पहचान ऐसे अभिनेता के रूप में रही है जिसके लिए पैसा ही सबसे महत्वपूर्ण है। जो पैसे के लिए स्टेज पर मिमिक्री भी कर सकता है और समलैंगिक भूमिकायें दोहरा कर दर्शकों को हंसाने की भी कोशिश कर सकता है।
आम तौर पर जब कोर्इ अभिनेता फिल्म निर्माण की ओर कदम बनाता है तो उसकी कोशिश परदे पर कुछ ऐसा साकार करने की होती है जिसे कोर्इ सामान्य निर्माता पूरा करने का जोखिम नहीं उठाना चाहे। आमिर खान मुख्यधारा के लोकप्रिय कलाकारों में रहे, लेकिन फिल्म निर्माण की ओर कदम बढ़ाया तो ‘लगान’ जैसी महागाथा रची और ‘भुवन’ को अमर कर दिया। ‘तारे जमीन पर’ जैसी विलक्षण फिल्म हिन्दी को दी। ‘धोबीघाट’ से लेकर ‘देल्ही बेली’ तक चाहे जैसी भी हो प्रयोग उनकी फिल्मों की पहचान रही है। लेकिन शाहरूख ने शायद कभी चिन्ता नहीं की कि उनकी कोर्इ जवाबदेह छवि दर्शकों तक पहुंच सके। सलमान जैसे अभिनेता भी ‘बीईंग ह्यूमेन’ के ब्रॉड के साथ अपनी सामाजिक चिन्ता जाहिर करते हैं, लेकिन शाहरूख को ऐसी जरूरत कभी महसूस नहीं होती।
वास्तव में ‘रा.वन’ भी शाहरूख खान के लिए हॉलीवुड के बरक्स किसी भारतीय सुपर हीरो को स्थापित करने जैसा आत्मगौरव का मामला नहीं, सीधे-सीधे व्यवसाय का मामला है। आश्चर्य नहीं कि फिल्म के रिलीज के पहले ही फिल्म से जुड़े गेम और उसपर आधारित सामानों की बिक्री के लिए ऑन लाइन दुकानें भी खोल दी गी हैं। शाहरूख खान का अन्तिम लक्ष्य सिनेमा नहीं, कमाई है। सिनेमा बनाना उनके लिए कमाई का एक और जरिया है, बस।
‘रा.वन’ की प्रतीक्षा हम करें जरूर, हिन्दी की सबसे महंगी फिल्म है आखिर। लम्बे समय के बाद शाहरूख खान दिखेंगे परदे पर। अपनी लवर ब्वाय की इमेज से अलग एक्सन अवतार में दिखेंगे शाहरूख। बहुत सारे कारण हो सकते हैं ‘रा.वन’ देखने के। लेकिन किसी भारतीय सुपर हीरो की तलाश वहां करेंगे तो हो सकता है निराशा होगी। क्योंकि वास्तव में शाहरूख ने यह फिल्म दुनियां को किसी भारतीय सुपर हीरो से परिचित कराने के लिए बनायी ही नहीं है। यदि बनाई होती तो फिल्म का नाम निश्चित रूप से नायक के रूप में ‘जी.वन’ होता। बाजार और समय की शर्तों पर ‘रा.वन’ नहीं।

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