शनिवार, 7 सितंबर 2013

विखंडित समाज की व्यथा कथा


' कम उम्र में मां बाप की मृत्यु किसी धोखे की तरह लगती है', अजय बहल की फिल्म 'बी ए पास' का पहला संवाद शायद यही है।वास्तव में यह छोटा सा संवाद इस बात की पूर्व पीठिका है कि मां बाप के बाद दुनिया में सिर्फ धोखे ही शेष रह जाते हैं। जिस संस्कृति में अभी भी संयुक्त परिवार की अवधारणा के प्रति सम्मान कायम हो,जहां टेलिविजन पर अभी भी परिवार के नाम पर 15 से 20 लोगों का समूह दिखाया जा रहा हो,वहां यह सुनना अकल्पनीय लग सकता है ।लेकिन 'बी ए पास' अपने कथा विस्तार में इस स्थिति को सिर्फ दिखाती ही नहीं, इस पर शिद्दत से यकीन भी करवा जाती है। अंतिम दृश्यों में दर्शक हतप्रभ स्थिति में अपने को पाता है, जब शहर से अनजान दो युवा बहनें दिल्ली के बस स्टाप पर अपने भाई की प्रतिक्षा करते हुए बार बार मोबाईल पर फोन कर रही होती है,और भाई पुलिस से बच कर भागते भागते फोन बंद कर उंची इमारत से छलांग लगा देता है।परदे पर तो फिल्म खत्म हो जाती है,लेकिन दर्शकों के मन में चलते रहती है, आखिर क्या गुजर रहा होगा उन लडकियों पर जब भाई का फोन अचानक बंद आने लगा होगा, क्या हुआ होगा उन दो युवा लडकियों का ,कहां गयीं होंगी वे... वाकई बी ए पास उस विखंडित समाज की व्यथा कथा है,जहां लोगों की भीड तो है लेकिन उन्हें एक दूसरे से जोडने वाला भरोसा नहीं है।
अंग्रेजी कथाकार मोहन सिक्का के कथा संग्रह दिल्ली नायर में संग्रहित द रेलवे आंटी पर आधारित बी ए पास आर्थिक दवाब से चरमराते रिश्तों को बेबाकी से रेखांकित करती है। मुकेश (शादाब कमल) के मां-पिता की मौत पर शोक व्यक्त करने परिवार के लोगों का आना जाना लगा है,उसकी बहनें सबों के लिए लगातार चाय बनाने में व्यस्त है,मुकेश चाय बनाने के लिए मना करते हुए कहता है,इन्हें टेसुए बहाने के लिए भी चाय चाहिए। शोक का दौर निकल चुका है और अब परिवार व्यवहारिक जमीन पर उनके बारे में विचार कर रहा है, जिनके सर पर से मां बाप की छाया छिन चुकी है।  तमाम रिश्तेदारों की अपनी मजबूरियां,अपनी व्यस्ततायें हैं।चाचा, मामा वगैरह  कोई भी न तो आर्थिक जवाबदेही उठाने के लिए तैयार होता है,न ही उनकी देखभाल के लिए। दादा आगे आते हैं,वे मुकेश की आर्थिक जवाबदेही का भार उठाने का आश्वासन देते हुए बुआ को उसके बी ए पास करने तक दिल्ली में अपने घर रखने के लिए तैयार कर लेते हैं और दोनो बहनों को अपनी देखभाल में रख लेते हैं। लेकिन जरुरतों से किसी को उम्र तो नहीं मिल जाती, दादा की भी मौत हो जाती है, और एक बार फिर सवाल उठता है अब दोनो बहनों का क्या ..।सारे रिश्ते एकबार फिर निर्रथक हो जाते हैं, तय होता है जब तक मुकेश इनकी जवाबदेही उठाने लायक नहीं हो जाता इन्हें कस्बे के ही हास्टल में रख दिया जाय । वास्तव में अजय बहल उस समाज की अनिवार्यता रेखांकित करने की कोशिश करते है जहां परिवार का दायरा सिर्फ खून के रिश्ते तक ही सीमित नहीं हो।
मुकेश अपनी बुआ के पास दिल्ली आ गया है, बी ए की पढाई करने। इस उम्मीद पर कि बी ए पास कर वह अपनी बहनों की जवाबदेही उठाने के लायक हो सके। यहां भी अजय बहल चरमराते रिश्तों को रेखांकित करने से नहीं चूकते। कभी समय था जब एकल परिवारों में किसी हमउम्र का आना किसी उत्सव से कम नहीं होता था,यहां स्कूल जाने वाला उसके बुआ का बेटा उससे नफरत करता दिखता है, उसकी बुआ भी बात बात पर उसे जलील करने से बाज नहीं आती।आमतौर पर उनका व्यवहार उसके साथ नौकरों वाला ही रहता है। मुकेश के फूफा रेलवे में एक कनिष्ठ अधिकारी हैं।वे रेलवे कालोनी के छोटे से क्वार्टर में रहते हैं। कोलोनियों की आम परंपरा के अनुसार जब उसकी बुआ किटी पार्टी आयोजित करती है, तब उसका काम और भी बढ जाता है। बगैर चेहरे पर शिकन डाले मुकेश महिलाओं के लिए चाय बनाता ही नहीं,उसे सर्व भी करता है,महिलाओं की ओछी टिप्पणियों और भद्दे मजाक को सहते हुए भी।
इन्ही महिलाओं में हैं सारिका आंटी(शिल्पा शुक्ला) भी,बास की पत्नी होने के कारण उनके बीच उनका खास महत्व भी है। वे बुआ से मुकेश को घर पर भेजने कहती हैं, और बुआ उनके बारे में सब कुछ जानते हुए भी मुकेश को लगभग जबरन उसके घर भेजती हैं।यहां से मुकेश के जीवन का एक नया अध्याय आरंभ होता है। वह पहले मुकेश को अपने बिस्तर तक ले जाती है,फिर अपनी कथित सहेलियों के लिए उसे सुलभ बना देती हैं। वास्तव में अजय यह दिखाने में संकोच नहीं करते कि सारिका के लिए यह कमाई का जरिया है। अंधाधुंध कमाई में लगे पतियों की ऐसी असंतुष्ट पत्नियों की कमी नहीं। यह असंतोष जितना शारिरिक जरुरतों को लेकर दिखता है,उतना ही भावनात्मक भी।शायद अपनी कथित यौनिक आजादी का संघर्ष भी।आश्चर्य नहीं कि तमाम महिलाएं मुकेश के साथ सिर्फ अपनी शारिरिक जरुरते पूरी करती नहीं दिखती,अपने सेक्सुअल फैंटेसियों को इंज्वाय करती दिखती हैं। शुरुआती हिचक के बाद मुकेश को भी यह कमाई रास आने लगती है,जो उसके बढते आत्मविश्वास में झलकने लगता है।अब जब बुआ का बेटा उसे अपने घर में रहने का उलाहना देता है तो वह पहले की तरह चुप नहीं रहता, पलट कर जवाब देता है।
उसे जब पता चलता है कि उसकी बहनों के हास्टल में कुछ गलत हो रहा है। वह उनसे मिलने ही नहीं जाता उनके लिए मोबाइल फोन भी लेकर जाता है, और उसे रखने की इजाजत देने के लिए भ्रष्ट वार्डन को पैसे भी देता है।वह उन्हें शीघ्र अपने साथ दिल्ली रखने का आश्वासन है। अद्भुत है रिश्तों का यह खेल कि जहां एक ओर हरेक रिश्ते लाभ लोभ में डूबे दिखते हैं,वहीं एक रिश्ता यह भी है जहां भाई खुद अपने शरीर का सौदा कर अपनी बहन का भविष्य सुरक्षित बनाना चाहता है।लेकिन तब बहुत कुछ बदल जाता है जब सारिका के पति को उसके धंधे की जानकारी मिलती है। वह सारिका से मारपीट ही नहीं करता बल्कि मुकेश की बुआ को उसके पति के प्रमोशन का लालच देकर उसे घर से निकालने के लिए भी तैयार कर लेता है।
घर से निकाले जाने के बाद वह अपने दोस्त जानी के घर आ जाता है। कब्र खोदने वाले जानी की एकमात्र महत्वाकांक्षा मारिशस के सैर की है। जो उसकी सीमित कमाई में शायद ही कभी संभव हो सकता था,लेकिन एक दिन मुकेश जानी को सारिका के पास अपने जमा पैसे लाने भेजता है ताकि अपनी बहनों के लिए घर ले कर उन्हें हास्टल से बुला सके।लेकिन हाथ में पैसे आते ही जानी मारिशस भाग जाता है,और इधर मुकेश को लगता है सारिका ने धोखा दिया, गुस्से में उसके हाथों सारिका की हत्या हो जाती है।बी ए पास सिर्फ मुकेश की कहानी नहीं,किसी भी युवा की कहानी लगती है जो अपना और अपनी बहनों के सुनहरे भविष्य का ख्वाब समेटे दिल्ली आया है। लेकिन जो वह चाहता है,वह उसकी जिंदगी में होता नहीं और जो नहीं चाहता,उसे वह स्वीकार करना पडता है।वह ट्यूशनढूंढने के लिए पर्चे छपवाने के लिए बुआ से पैसे मांगता है ताकि अपनी जरुरतें मेहनत से पूरी कर सके लेकिन पैसे नहीं मिलते उसे। पैसे मिलने पर जब पर्चे छपवा कर वह ट्यूसन ढूंढने की कोशिश करता है तो उसके पास एक भी इंक्वायरी तक नहीं आती।यह कहना आसान लगता है कि वह चाहता तो मजदूरी कर सकता था,लेकिन सामने जब पैसा आसानी से दिख रहा हो तो कैसे किसी युवा से अच्छे बुरे के पहचान की उम्मीद की जा सकती है ,वह भी तब जबकि उसके सामने अच्छे बुरे की कोई परिभाषा ही नहीं हो।  
दिल्ली के पहाडगंज की नियोन लाइट्स के बीच फिल्मायी गयी बी ए पास, समय की चमकार के पीछे छिपे अंधेरे तक दर्शकों को ले जाती है,जहां सिर्फ धोखा है,लालच है,लालसा है,अविश्वास है,और इसका कारण एक ही है,हमारी अंतहीन भूख। यह भूख किन किन रुपों में हमारे सामने परोसी जा रही है,हम शायद समझ भी नहीं पा रहे। जानी की भूख उसके टूटे घर की दिवारों पर लगी मारिशस की तस्वीरों में दिखती है,बुआ की भूख अपने पति के प्रमोशन की है,सारिका को पैसे की भूख है तो उसकी एक सहेली (दिप्ती नवल) ऐसी भी है,जो अपने कोमा में पडे पति की लगातार सेवा की एकरसता दूर करना चाहती है।यह ऐसी भूख है जिसने हमारी मानवीय संवेदना,मानवीय पहचान ही खत्म कर दी है।इसी असीम भूख ने भीड के बावजूद हर व्यक्ति को अकेला कर दिया है। सारिका की हत्या कर मुकेश पडोसियों के सामने भाग निकलता है और सारे लोग देखते रह जाते हैं। अपने सरकारी क्वार्टर में वह नियमित रुप से लडकों को बुलाते रहती है लेकिन कोई कुछ नहीं कहता। उसकी बूढी सास सबों को उसके बारे में बताने की कोशिश भी करते रहती है,लेकिन न तो किसी को उनकी बात सुनने की फुर्सत दिखती है,न यकीन करने की इच्छा। सारिका मुकेश का लगातार उपयोग करते दिखती है शारिरिक ही नहीं,आर्थिक दृष्टि से भी। लेकिन पल भर उसे नहीं लगता मुंह मोडते, जब पति के सामने उसकी सच्चाई सामने आ जाती है,वह खुद से ही उसे दूर नहीं करती,उसके तमाम ग्राहकों से भी उसे दूर कर देती है।कहने को बी ए पास के सारे पात्र संवेदना विहीन दिखते हैं,लेकिन पूरी फिल्म का प्रभाव दर्शकों की संवेदना को कुरेदने का सामर्थ्य रखता है।
अजय बहल मूलतः छायाकार है,कैमरे से इमोशन बयान करना शायद इसीलिए हो भी पाया उनसे। उनका कैमरा चमत्कृत करता है जब लांग शाट में मेट्रो आती दिखती है और धीरे धीरे खिडकी के सीसे से पार मुकेश पूरे डब्बे में अकेला खडा दिखता है।निश्चित रुप से बी ए पास एक खास समय,एक खास समाज की कथा कहती है।लेकिन अजय बहल की यह कुशलता है कि दर्शक इसे सिर्फ कथा की तरह नहीं देख सकता।यह फिल्म डराती है कि यदि इच्छाओं की भूख पर मानवीय नियंत्रण हमने नही सीखा तो कल यह कथा हमारे समाज की भी हो सकती है,किसी के भी समाज की।

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