गुरुवार, 29 अगस्त 2013

हिन्दी की पहली राजनीतिक थ्रिलर मानी जा सकती है-मद्रास कैफे


जिन्हें आयटम नंबरों और जेम्स बांड की फिल्मों की तरह शयन कक्ष के दृश्यों के बगैर भी थ्रिलर देखने में रुची हो,मद्रास कैफे उनके लिए भी है।सारे इतिहास और राजनीति से परे एक कथा की तरह भी यह फिल्म देखें तो निःसंदेह सांस रोक कर देखे जा सकने वाले एक बेहतरीन थ्रिलर का यह आस्वाद देती है। लेकिन उल्लेखनीय है कि यह सिर्फ थ्रिलर नहीं है, कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार में सुजीत सरकार ने कहा था, ऐतिहासिक संदर्भों को जाने बगैर इस फिल्म को समझना कठिन हो सकता है। जिन्हें पता नहीं कि 80-90के दशक में देश किस अवांछित संकट से गुजर रहा था, वे इस फिल्म की गंभीरता का अहसास ही नहीं कर सकते। वाकई आश्चर्य कि हिन्दी सिनेमा के अधिकांश निर्देशक जहां अपने दर्शकों से दिमाग छोड कर फिल्म देखने की अपील करते रहे हैं,वहां सुजीत दर्शकों को इतिहास समझकर सिनेमा घर में आने की चुनौती देते हैं। वास्तव में सुजीत को यह हिम्मत की विषय के प्रति शोध और उसे प्रस्तुत करने की इमानदारी से मिलती दिखती है,जो मद्रास कैफे को थ्रिलर से आगे एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रुप में स्वीकार्य बनाती है।
कहने को हिन्दी में राजनीतिक फिल्में बनती रही हैं। आंधी से लेकर माचिस और फिर रंग दे बसंती,राजनीति,आरक्षण तक,एक लम्बी श्रंखला ऐसी फिल्मों की रही है, जो हमारी राजनीतिक समझ को गुगगुदाती रही है। गुदगुदाना इस अर्थ में कि इन कुछ फिल्मों में राजनीतिक सवाल कहानी और इमोशन की चासनी से इस कदर पगे रहे कि उन सवालों की कडवाहट शायद ही कभी दर्शकों को बेचैन कर सकी। मद्रास कैफे में सुजीत सरकार एक ऐतिहासिक संदर्भ को यथावत रखने की कोशिश करते हैं। यदि प्रकाश झा की दामुल और अमृत नाहटा की इमरजेंसी की दौर में बनी किस्सा कुर्सी का को हम याद कर सकें तो इसके राजनीतिक तेवर को उसी क्रम में देख सकते हैं। यहां सुजीत अपनी टिप्पणियां नहीं देते, स्थितियां रखते हैं।लेकिन निरपेक्ष रहते हुए भी वे यह कहने से नहीं चूकती कि किसी भी समस्या का समाधान हिंसा नहीं हो सकता।फिल्म में युद्ध के विद्रुप रुप को दिखाने की कोशिश है जो बाकी युद्ध फिल्म की तरह दर्शकों को उत्तेजित नहीं करता,चिंतित करता है।
वास्तव में इतिहास के जिन पन्नों को सुजीत उठाते हैं,वहां टिप्पणियां संभव भी नहीं।कुछ वर्ष पहले अमिताभ बच्चन अभिनीत एक फिल्म आयी थी ,दीवार,यश चोपडा वाली दीवार नहीं,यह वह दीवार थी जिसमें पाकिस्तान के जेल में बंद 14 कैदियों को छुडाने की मुहिम में नायक पाकिस्तान जाता है और उन कैदियों को छुडा कर लाता है।उसकी मुहिम में एक पाकिस्तानी हिन्दु भी उसके साथ खडा होता है। फिल्म में देखना यह जरुर अच्छा लगता है,लेकिन किसी पाकिस्तानी नागरिक का,चाहे वह हिन्दु ही क्यों न हो,अपनी ही सरकार के खिलाफ षडयंत्र में शामिल होने का क्या समर्थन किया जा सकता है, भले ही वह अपने देश के हित में हो। 80-90 के दशक में जातीय हिंसा की आग में झुलस रहे श्री लंका और भारत की स्थिती भी कमोबेश ऐसी ही रही होगी। श्री लंकाई तमिल अलगाववादी अपनी ही सरकार के खिलाफ मजबूत और हिंसक हो रहे थे, भारतीय तमिल खुश हो रहे थे, बगैर यह महसूस किए कि कल इस सवाल से उन्हें भी जूझना पड सकता है।
हालांकि फिल्म में कहीं भी तमिल अलगाववादियों से भारतीय नेताओं की सहानुभूति रेखांकित नहीं की गई है।बावजूद इसके आज भी यदि मद्रास कैफे को तमिलनाडु में इस आधार पर प्रतिबंधित कर दिया जाता है कि इसमें तमिलों को आतंकवादी के रुप में चित्रित किया गया है तो मानना पडता है हम राष्ट्रवाद को सिर्फ एकांगी रुप में ही स्वीकार कर रहे हैं। ऐसा नहीं हो सकता,राष्ट्रवाद की जो परिभाषा हमारे लिए सही है,वही किसी के लिए भी हो सकती है। यदि हिंसक युद्ध के माध्यम से तमिल अलगाववादी श्री लंका को टुकडे कर एक अलग मुल्क की मांग कर रहे थे तो लाख भाईचारे के कैसे उनके समर्थन में खडा हुआ जा सकता था। लेकिन हम खडे थे। एक ओर एक स्वतंत्र राष्ट्र की संप्रभुता दूसरी ओर जातीय संबंध।
और इसी दुविधा में कहानी की तलाश करती है सुजीत सरकार।भारतीय सरकार की दुविधा, पहले तो उसने राजनीतिक दवाबों में विरोधियों की मदद की, और मामला जब हाथ से बाहर होते दिखा तो सैन्य हस्तक्षेप के लिए तैयार हो गई। मेजर विक्रम सिंह (जॉन अब्राहम)को रॉ के एक ऑपरेशन को कामयाब बनाने के मकसद से श्रीलंका भेजता है। यहां विक्रम को पहले से इसी एजेंसी के लिए काम कर रहे अपने सीनियर सहयोगी बाला की मदद से विद्रोही एलटीएफ हेड अन्ना भास्करन (अजय रत्नम) को शांति वार्ता में शामिल होने और तुरंत युद्ध विराम का ऐलान करने के लिए राजी करना है। अन्ना और उसका संगठन शांति सेना का विरोध करता है,कल तक श्रीलंकाई सेना से मुकाबला कर रहे तमिल अलगाववादी अब भारतीय सेना से आर पार का मुकाबला करते है। अन्ना को वहां रहने वाले तमिलों की पूरी आजादी और उनके लिए अलग मुल्क चाहिए। जाफना आने के बाद विक्रम उस वक्त हैरान रह जाता है, जब उसे पता चलता है कि उसका ऑपरेशन नाकाम होने की वजह अपने कुछ लोगों का एलटीएफ ग्रुप के साथ मिला होना है। विक्रम गुरिल्ला वॉर को कवर करने के लिए लंदन से यहां आई हुई वॉर जर्नलिस्ट जया साहनी (नरगिस फाखरी) की मदद लेता है। इसी ऑपरेशन के दौरान विक्रम को एलटीएफ द्वारा विदेशी शक्तियों के साथ मिलकर देश के पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या करने की साजिश का पता चलता है। विक्रम के हाथ कुछ ऐसे पुख्ता सबूत लगते हैं जो पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश को बेनकाब करने के लिए बहुत है। सरकारी कायदे-कानूनों की आड़ में सुरक्षा एजेंसियां इस साजिश की जानकारी मिलने के बावजूद पूर्व प्रधानमंत्री को सुरक्षा कवर देने को राजी नहीं होतीं।
इतिहास का फिल्मांकन शायद आसान भी होता हो क्योंकि इतिहास में खुद के घुसपैठ की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है।यहां इतिहास नहीं सच है। जिससे रु बरु होने वाली पीढी की याददाश्त भी अभी कमजोर नहीं पडी।जाहिर है सुजीत के सामने चुनौतियां बडी थी। आश्चर्य नहीं कि लगभग आधे समय तक यह डाक्यू-ड्रामा की झलक देती है।सच और सच कहने की जिद पूरी फिल्म में महसूस की जा सकती है,यहां भारतीय सेंसर की सीमा पर अवश्य अफसोस होता है कि चरित्रों के वास्तविक नाम नहीं लिए जा सकते। आखिर हरेक दर्शक जब चरित्रों को पहचान रहा होता है कि यह लिट्टे की चर्चा है,यह प्रभाकरण है,ये राजीव गांधी हैं..तो हम ऩाम नहीं बता कर धोखा किसे दे रहे होते हैं।वास्तव में जब सिनेमा प्रौढ हो रहा है,दर्शक प्रौढ हो रहे हैं तो अब समय आ गया है कि सेंसर भी अपनी प्रौढता दिखाए।

सुजीत सरकार की यह खासियत है कि यहां वे दर्शकों को सप्रयास इंटरटेन करने की कोशिश नहीं करते। उनका उद्देश्य दर्शकों को उस कठिन दौर का अहसास कराना दिखता है।पूरी फिल्म एक ग्रे कलरटोन में चलती है।बारुद के करीब लगता यह कलरटोन हमेशा युद्ध के तनाव में जकडे रखने में कहीं न कहीं सहायक होता है।फिल्म में कई परिचित जवाबदेह चेहरे हैं जो फिल्म की गंभीरता को कायम रखते हैं,निश्चय ही सुजीत का यह निर्णय सायास ही होगा।

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