शनिवार, 12 नवंबर 2011

सलमान की लोकप्रियता और हम


शायद इसे ही मिडास टच कहा जाता होगा। आज सलमान खान जिस चीज को हाथ लगा देते हैं सोना बन जाती है। हिन्दी सिनेमा के जो फार्मूले आउटडेटेड मान लिए गए थे, सलमान का हाथ लगते ही किशोर दर्शकों की पहली पंसद मान लिए गए। रेडी में आखिर कौन सा अजूबा था कि वह 100 करोड़ का व्यवसाय कर सकती थी। दुष्ट चाचा, खूबसूरत भतीजी और उसका रखवाला नायक। पता नहीं हिन्दी में कितनी हजार फिल्में इस कथानक पर बनी होगी, लेकिन उसी पुराने कथानक में सलमान अवतरित होते हैं तो वह कमाई का इतिहास रच देती है। बॉडी गार्ड’, एक अति सामान्य सामान्य छोटी सी कहानी, तो देवदास की तरह भव्य सेट्स, नही ब्लू की तरह तकनीक का कमाल, लेकिन कमाई मात्र चार दिनों में 100 करोड़। क्या यह सिर्फ भाग्य का खेल माना जा सकता है, या फिर सलमान के व्यक्तित्व का कोई ऐसा अविश्लेषित पहलू, जिसे सिर्फ और सिर्फ उनके प्रशंसक महसूस कर पा रहे हैं।
बाडीगार्ड को फिल्म समीक्षकों ने लगभग आम राय से दो से ढाई सितारे दिए, यानि अति सामान्य। कहानी, संगीत, अभिनय, सिवा एक्शन के शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो जिसे किसी समीक्षक ने सराहनीय करार दिया हो। समीक्षकों को छोड़ भी दें तो फेसबुक और ट्वीटर जैसे सोशल नेटवर्क साइट पर आम दर्शको की राय भी कुछ अलग नहीं देखी जा सकी। बल्कि यदि कुछ समीक्षकों ने बाडीगार्ड में कुछ बेहतर साबित करने की कोशिश की तो लोगों ने अपने कमेंट्स में उसकी खिंचाई भी की। लेकिन ये सारे बौद्धिक विमर्श निरर्थक हो गए, जब फिल्म ने कमाई का इतिहास रच दिया। जाहिर है जब सलमान किसी फिल्म में होते हैं तो वहां फिल्म गौण हो जाती है। सलमान को अपने इस ब्रांड वैल्यू का बखूबी अहसास हो गया है, इसीलिए वांटेड के बाद उन्होंने अपनी किसी फिल्म को अपने से बड़ा नहीं होने दिया है। सलमान की चारों फिल्मों पर गौर करें, चाहें डांस हो, संवाद हो, गीत हो यहां तक कि कहानी में भी कुछ बड़ा फर्क ढूंढ़ना संभव नहीं हो पाता। कहने को चारो फिल्मों के निर्देशक अलग हैं, लेकिन उनके लिए अपने-अपने पात्रों के अनुकूल सलमान गढ़ना असंभव हो जाता है। परदे पर भले ही चुलबुल पाण्डे या लवली सिंह कहे जाते हैं, उनके दर्शक मानते हैं, वे सलमान खान हैं।
हालांकि सफलता सलमान के लिए कोई नई बात नहीं रही है। नायक के रूप में उनकी पहली ही फिल्म मैंने प्यार किया ने उस समय सफलता का इतिहास ही नहीं रचा था बल्कि एक ट्रेंड सेटर फिल्म भी साबित हुई थी। जिसने हिन्दी सिनेमा में युवा प्रेम की वापसी की थी। इसके बाद हम आपके हैं कौन इससे भी बड़ी हिट साबित हुई, और हिन्दी सिनेमा में परिवार की वापसी का आधार बनी। हम दिल चुके सनम’, तेरे नाम’, चोरी-चोरी चुपके-चुपके जैसी दर्जनों फिल्में सलमान के नाम रही है। फर्क सिर्फ यह है कि ये फिल्में दर्शकों द्वारा पंसद की जाती थी, तो मुकम्मल फिल्म के कारण। सलमान फिल्म के एक अंश के रूप में स्वीकार किए जाते थे। हम आपके हैं कौन या हम दिल चुके सनम के साथ कभी भी सिर्फ सलमान याद नहीं आते। लेकिन सलमान की हालिया हिट में सलमान के अलावा याद करने को कुछ होता ही नहीं। वास्तव में सलमान की हालिया फिल्मों में उनकी ऑफ स्क्रीन और ऑन स्क्रीन छवि गड्ड-मड्ड सी हो जाती है। बीइंग ह्यूमेन के गुडमैन को दर्शक लवली सिंह में ढूढते है, जबकि लवली सिंह उन्हें अपनी मुश्किलों में अपने साथ खड़ा दिखता है।
आश्चर्य नहीं कि बाडीगार्ड की समीक्षा से नाराज एक पाठक ने टिप्पणी की, क्या आपको सलमान भाई की मासूमियत नहीं दिखती सलमान के प्रति उनके प्रशंसकों का यही इमानदार स्नेह है जो उनकी सामान्य फिल्मों को भी व्यवसाय का शिखर उपलब्ध करा देती है। मुश्किल तब होती है जब सलमान, अपनी फिल्मों में अपने ही निर्मित व्यक्तित्व से अलग होने की कोशिश करते हैं। वांटेड की अपार सफलता के बाद सलमान की लंदन ड्रीम्स आयी, जिसमें वे ऐसे अवसाद ग्रस्त संगीतकार बने थे, जो नशे का आदि हो जाता है। दर्शकों ने उस सलमान को बुरी तरह से नकार दिया, क्योंकि यहां उन्हें सलमान दिख ही नहीं रहे थे, जिसे वे  जानते थे। सुभाष घई जैसे सफल फिल्मकार युवराज लेकर आए, तो तमाम मशक्कत के बावजूद भाई से बदला लेने वाले सलमान भाई के चरित्र को दर्शक स्वीकार नहीं कर सके। मैं और मिसेज खन्ना में यही सलमान खान और करीना कपूर की जोड़ी थी, लेकिन वहां सलमान की अभिजात्य सज्जनता दर्शकों के गले नहीं उतर सकी। दबंग के ठीक पहले अनिल शर्मा की वीर आयी, गुलामी के दौर की पीरिएड फिल्म में तमाम एक्शन और पिंडारी डाकुओं के विद्रोही लुक में दर्शकों को अपना सलमान ढूंढना मुश्किल हो गया।
अपना सलमान, मतलब जो एक समकालीन भारतीय सामान्य युवक को प्रतिबिम्बित करता है। उसकी कमजोरियाँ और उसकी अच्छाइयों के साथ। वह अभिजात्य नहीं है, वह चौक के किसी युवा की तरह भदेस बातें करता हॅ । उसकी चारों सफल फिल्मों के संवाद के टोन कमोबेस एक जैसे हैं, किताबी हिन्दी में बड़ी-बड़ी बातें नहीं, बल्कि मैं मारता कम हूँ, धोता ज्यादा हूँ। जिदंगी में तीन चीज कभी अंडर इस्टीमेट नहीं करना, आई, मी और माई सेल्फ । जैसे निरर्थक शब्दों की भीड़, जिसका अर्थ आप समझना चाहें तो भी समझ नहीं सकते। वास्तव में सलमान दर्शकों को अपने से श्रेष्ठ समझने का अवसर देते हैं। ये सलमान ही हैं जो अपनी प्रेमिका के बाहों में बाहें पुरे शान के साथ  कह सकते हैं ,मैं माडर्न जमाने का कुत्ता हूं और ये है मेरी कुतिया।
लेकिन इस भदेसपन का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि सलमान इसे अपनी पांरपरिक भारतीय पहचान के आड़े नहीं आने देते । दबंग  में तमाम उच्श्रृंखला के बावजूद दर्शकों को याद उनकी वह पारिवारिक छवि ही रह जाती है, जो अपनी मां से प्यार करता है, सौतेले पिता का भी सम्मान करता है, सौतेले भाई की गलतियां माफ करने को तैयार रहता है, प्रेमिका से विवाह के पहले उसके नशेड़ी पिता की इजाजत जरूरी समझता है। परिवार और भारतीय मूल्यों के प्रति सम्मान सलमान को पारिवारिक दर्शकों के बीच खास पहचान देता है। सलमान कहते भी हैं, परदे पर चुम्बन दृश्य नहीं दे सकता। गौर करें तो सलमान की फिल्मों को हिंसा के कारण भले ही और यू सर्टिफिकेट मिलते रहें हों, सेक्स के कारण कभी नहीं मिलें।
लेकिन वाकइ सलमान की सफलता का गणित सहज नहीं । कहने को सलमान की स्वीकार्यता भारतीय समाज में गुड बाय की स्वीकार्यता है। लेकिन सलमान के 23 साल के कैरियर पर निगाह डालें तो अभी उनकी जिंदगी में ऐसे अवसर कम ही आए हैं, जब उन्हें गुड बाय के रूप में प्रतिष्ठा मिली हो । रैस ड्राइविंग कर फुटपाथ पर सो रहे लोगों को कुचल डालने का मामला हो या राज्स्थान में पूज्य माने जाने वाले दुर्लभ प्रजाति के काले हिरण का गला चाकू से रेत डालने का । वास्तव में सलमान की लोकप्रियता कहीं कहीं भारतीय समाज में अपराध की बढ़ती स्वीकार्यता को भी रेखांकित करती है । सलमान ही क्यों, संजय दत्त के भी कैरियर पर गौर करें तो अवैध  हथियार के आरोप में जेल काटने के पहले और बाद के संजय दत्त की लोकप्रियता में जमीन आसमान का फर्क देखा जा सकता है। छोटा राजन का भाई दीपक निखंज उनके लिए `वास्तव `बनाता है और अचानक संजय दत्त को लोकप्रियता का शिखर हासिल हो जाता है। सलमान खान हिन्दी सिनेमा के शायद ऐसे एकमात्र सितारे होंगे जिन पर एक साथ इतने आरोप और इतने मुकदमें चल रहें हों, सभी के सभी आपराधिक । जिसमें अंडरवल्र्ड से संपर्क रखने के आरोप तक शामिल हैं। 2005 में सलमान खान और ऐश्वर्य राय से बातचीत के टेप जब चैनलों ने प्रसारित करना शुरू किया तो सलमान के प्रशंसक हतप्रभ जरूर हुए। लेकिन उसकी लोकप्रियता अप्रभावित रहीं अंडरवल्र्ड और आंतकियों से साथ रखने के जुर्म में सजा काट रहे फिल्मकार की चोरी-चोरी चुपके-चुपके आयी और फिल्म सुपरहिट हो गई। क्या वाकई इतने आपराधिक आरापों के साथ किसी अभिनेता की 70 या 80 के दशक में स्वीकार्यता संभव थी?
सलमान खान को आज जब हम स्वीकार करते हैं तो यह मानने में भी कतई संकोच नहीं करना चाहिए, कि अपराध की स्वीकार्यता हमारी आदत में शामिल हो गई है। भारत में जहां सब कुछ राजनीति से तय हो रहा है, क्या आश्चर्य कि जब करोड़ों का घोटाला करने वाले किसी कलमाड़ी या राजा का कैरियर प्रभावित नहीं होता तो भला सलमान के कैरियर पर कैसे आंच सकती है । सलमान भले ही अपनी राजनीतिक सक्रियता के लिए कभी नहीं जाने गए हों,  लेकिन उनका मूलमंत्र जरूर उन्होंने स्वीकार कर लिया कि जनता की नजरों में उठने के लिए जरूरी है खुद को अधिक से अधिक गिरा लेना।
वास्तव में जैसे-जैसे रूल ऑफ लॉ खत्म होता जाता है, आम जनता की नजरों में अपराध की स्वीकार्यता बढ़ती जाती है । तमिलनाडु आंध्र प्रदेश, केरल, गुजरात जैसे कुछेक प्रांतों की बात छोड़ दे तो लगभग तमाम हिंदी प्रदेशो खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश में हमारी पहली कोशिश होती है कि कानून तोड़ दिया जाय। सड़क पर बायें चलने का मामूली सा कानून भी हमारे लिए सहज नहीं होता, ट्रैफिक सिग्नल का पालन भी हम आसानी से नहीं करते। रेलवे प्लेटफार्म पर टिकट कटा कर जाना या स्लीपर कोच में प्रवेश नहीं करने जैसे कानून की तो हमारे लिए कोई अहमियत ही नहीं है। हिंदी प्रदेशों की जीवन शैली में यह बात शामिल हो गई है । आश्चर्य नहीं कि बिहार, उत्तर प्रदेश मे जो जितना बड़ा लॉ का विरोधी होता है। हमारी नजरों में उतना ही सम्मानित होता है।
सलमान की लोकप्रियता की यह मुख्य वजह भले ही हो, एक वजह तो जरूर है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आखिर यह भी तो सच है कि सलमान कानून के दायरे में इमानदारी से काम करने वाले पुलिस अधिकारी के रूप में कभी स्वीकार्य नहीं हो सके। सरफरोश के आमिर खान जैसे भूमिका में तो वे कभी देखे गए, शायद ही देखे जा सकते हैं। गर्व में एक कठोर पुलिस अधिकारी के रूप में सलमान खारिज हो जाते हैं, वहीं दबंग के चुलबुल पाण्डे को लोग सर आंखों पर बिठा लेते हैं, क्योकि वह अपना कानून खुद बनाता है।
सलमान के प्रशंसक, सलमान को, सलमान की शर्तो पर ही स्वीकार करते हैं सोमी अली, संगीता बिजलानी, ऐश्वर्य राय, कटरीना कैफ जैसी जाने कितनी लम्बी प्रेमिकाओं की लिस्ट के बावजूद सलमान के प्रशंसकों को उसकी मासूमियत ही दिखती है। उन्हें लगता है सबों ने सलमान भाई को धोखा दिया है। प्रेमिकाओं से जिस बदतमीजी के लिए सलमान की आलोचना होनी चाहिए, उनके प्रशंसकों के सामने उनका कद बढ़ा देती है। क्यों नहीं माना जाय कि सलमान का उज्जडपन युवकों को संतोष देता है, तो लड़कियों को उसमें प्रेम की इंतहा दिखाई देती है । उन्हें सलमान में एक ऐसे युवक  की छवि दिखाई देती है जो अपने प्रेम के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है।
अपनी उज्जड्ड छवि को अपनी यू.एस.पी. बनाने की राह सलमान को दक्षिण से मिली । हिन्दी सिनेमा की परम्परा में नैरेशन और मैसेज एक महत्वपूर्ण पक्ष हुआ करता था। बदलते समय में जब सिनेमा के दर्शक बदले, मध्यवर्गीय परिवार ने सिनेमाघरों से किनारा कर अपने को टेलीविजन के हवाले कर दिया। मल्टीप्लेक्स उच्च वर्ग का केन्द्र हो गया। दूसरी ओर सिंगल थियेटर निम्न आय वर्गीय श्रमिक, किशोरों और छात्रों के भरोसे रह गए जिनका  विचारों के प्रति कोई खास आग्रह नहीं था। इन्हें मतलब था अपने मनोरंजन से। सिनेमा जो कभी भावनात्मक सुख देता था, समय ने उसे टाइमपास बना दिया। सलमान ने इसके लिए दक्षिण से टेस्टेड फिल्मों की खेप लायी, वांटेड से लेकर बाडीगार्ड तक। सभी फिल्में ऐसी थी जो दक्षिण में हिट हो चुकी थी। सलमान को दक्षिण की फैन फैलोइंग का निश्चित रूप से अहसास था कि वहां रील लाइफ और रियल लाइफ में प्रशंसक फर्क नहीं करते। इसी को ध्यान में रख इन फिल्मों में पात्रों के बजाय सलमान खान को स्टैबलिश करने की सफल कोशिश की, कमोबेस रजनीकांत की तरह। आश्चर्य नहीं कि सलमान कभी मंहगी वस्तुओं का विज्ञापन भी नहीं करते नहीं दिखते,शायद उन्हें लगता है कि इससे अपने दर्शकों के बीच वे पराये हो जायेंगे।।
निश्चित रूप से सलमान की लोकप्रियता सिनेमा के व्यवसाय के लिए चाहें जितना बेहतर संयोग ही, सिनेमा के भविष्य के लिए तो कतई बेहतर नहीं। क्योंकि ऐसी लोकप्रियता हमेशा कमजोर फिल्मों की राह सुगम बनाती है।

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