गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

मंहगी होती फिल्में

80 करोड की ब्लू,70करोड की लव स्टोरी 2050, 60 करोड की जोधा अकबर,और 50 करोड की देवदास अब पुरानी बात हो गई।50 से 60 करोड के बीच बनने वाली दबंग, रेडी, बाडीगार्ड और जिंदगी ना मिलेगी दोबारा भी अब अपने बजट पर शर्मिंदा हो जा सकती है।क्योंकि शाहरुख खान रा.वन लेकर आ रहे हैं।175 करोड ,हिन्दी सिनेमा के लिए अभी तक सिर्फ सुना जाने वाला यह आंकडा साकार होने जा रहा है रा.वन में।आफिसयली फिल्म की लागत की बात हालांकि मजाक में टाल जाते हैं ,लेकिन जानकारों के अनुसार फिल्म की लागत 150 करोड रुपये आंकी जा रही है,इसमें प्रमोशन के 25 करोड जोड दें तो तकरीबन 175 करोड।हालीवुड की अवतार के 237 मिलीयन डालर के मुकाबले 175 करोड रुपये की रकम जरुर छोटी लग सकती है ,लेकिन हिन्दी सिनेमा के यह कितनी बडी है ,यह इसी से समझी जा सकती है कि 2009 के एक आंकडे के अनुसार हिन्दी सिनेमा का कुल वार्षिक टर्नओवर 600 से 800 करोड रुपये आंका गया है।रा.वन का बजट तब और बडा लगने लगता है जब हिन्दी सिनेमा के बाक्स आफिस कलेक्शन पर नजर डालते हैं,जो आमतौर पर 75 करोड पहुचते पहुचते दम तोड देता है।साल भर में बनने वाली 400 हिन्दी फिल्मों में 4 ने यदि 100 करोड का जादुई आंकडा पार कर लिया तो मान लिया जाता है साल सुखद रहा।ऐसे में 175 करोड से फिल्म बनाने की यह नई परंपरा हिन्दी सिनेमा के लिए क्या इत्साह की वजह बन सकती है। सुनने में यह अच्छा लगता है कि बडे बजट पर अब सिर्फ हानीवुड का अधिकार नहीं।हिन्दी सिनेमा ने भी हालीवुड के जूते में पांव डालने की शुरुआत कर दी है। लेकिन चिन्ता इस बात को लेकर जरुर होती है कि क्या हालीवुड की तरह हिन्दी सिनेमा ने भी अपनी वापसी की व्यवस्था कर ली है।हालीवुड यदि एक फिल्म पर 1000 करोड रुपये खर्च करने की हिम्मत जुटा रही है तो इसकी वापसी के वह निश्चिन्त है।इस सुरक्षित वापसी के लिए उसने बडी मेहनत की है। वैश्विक संस्कृति के नाम पर पूरी दुनिया में उसने ऐसी संस्कृति की स्वीकार्यता बनायी है जो हालीवुड तैयार करती है। ईटली,इंग्लैंड और फ्रांस जैसे मुल्कों के सिनेमा ने हालीवुड के सामने पूर्णतया समर्पण कर दिया है। आप किसी भी विदेशी मूवी चैनल पर जाएं वहां सिर्फ और सिर्फ हालीवुड की फिल्में दिखेंगी।आश्चर्य नहीं कि जैसे जैसे हिन्दी सिनेमा में अमेरिकन संस्कृति को स्वीकार करने की प्रवृति बढते जा रही है ,भारत में भी हालीवुड सिनेमा का बाजार बढता जा रहा है।अब तो भारत का शायद ही ऐसा कोई मल्टीप्लेक्स हो जिसके एक दो स्क्रीन पर हालीवुड की नवीनतम फिल्में प्रदर्शित नहीं की जा रही हो। हालीवुड से बच्चों की फिल्म हैरी पाटर आती है और 2000 करोड रुपये का बिजनेस कर जाती है। इसके बरक्स यदि हिन्दी सिनेमा की वापसी की बात करें तो भारत में प्रति 10 लाख लोंगो पर एक स्क्रीन की उपलब्धता कतई संतोष नहीं दे सकती ।जबकि फ्रांस में यही संख्या 77 है और अमेरिका में 117। जब सिनेमाघर ही नहीं तो बाक्स आफिस कलेक्शन आयेगा कहां से।जो सिनेमाघर भारत में हैं भी उनमें से अधिकांस दक्षिण भारत में ही हैं। शाहरुख आश्वस्त हो सकते हैं कि उनकी फिल्में देश के साथ विदेशों से भी कलेक्शन जमा करते रही है।लेकिन वे भूल जाते हैं कि उनकी वही फिल्में विदेशों से भी कलेक्शन ला पायीं जो विशुद्ध भारतीय परिवेश और भारतीय संवेदनाओं पर बनी थी।चाहे वह कभी खुशी कभी गम हो या माई नेम इज खान।रा.वन को शाहरुख भले ही हालीवुड के सुपर मैन की तरह भारत के अपने सुपर मैन को प्रस्तुत करने की कोशिश मान रहे हों ,सच यही है कि यदि शाहरुख अपनी फिल्म की भारतीयता के प्रति इमानदार होते तो पटकथा लिखने के लिए हालीवुड से डेविड बुनुलो को नहीं बुलाते।शाहरुख यहीं नहीं रुके उन्होंने सिनेमेटोग्राफी,संपादन.स्टंट और ड्रेस के लिए भी हालीवुड से ही विशेषज्ञ बुलवाए।छम्मक छल्लो ....जैसे नितान्त चलताउ गाने के लिए भी किसी भारतीय आवाज की अपेक्षा वे हालीवुड के एकोन पर भरोसा करते हैं।जिसे शायद छम्मक छल्लो का अर्थ भी नहीं पता ,उससे भाव लाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। लेकिन हिन्दी सिनेमा के साथ यही मुशकिल है,बडा बनने के लिए यह अपनी परंपरा की ओर नहीं देखती,हालीवुड की ओर देखती है। रा.वन की पहली झलक और प्रोमोज को देखते हुए सहज ही हालीवुड से इसकी निकटता महसूस की जा सकती है।सवाल है जब हालीवुडी ऐक्शन औरऐनीमेशन देखना हो तो उसके लिए सीधे हालीवुड की फिल्मों को ही क्यों ना प्राथमिकता दी जाए।जो कहीे अधुक बेहतर फिनिशिंग और नयेपन के साथ सामने आ रही है। बात हालीवुड से प्रभावित होने का नहीं,यह तथ्य है कि हालीवुड जब किसी फिल्म पर खर्च करता है तो उसके बजट का एक बडा हिस्सा कथा,पटकथा और परिकल्पना पर करता है।हालीवुड से जब अवतार या जुरीसिक पार्क आती है तो परदे पर कुछ नया दिखता है,ऐसा जो पहले ना देखा गया ,ना सुना गया। हिन्दी सिनेमा के लिए बजट के भारी होते जाने का अर्थ है,विदेशी लोकेशन,बासी तकनीक और सबसे ज्यादा सितारों के कथित मेहनाताने । अमिताब बच्चन भी स्वीकार करते हैं कि हिन्दी सिनेमा में सबसे कम खर्च लेखकों पर किया जाता है,यह कम बजट के एक प्रतिशत तक हो सकता है।जाहिर है बजट के भारी होते जाने से हिन्दी सिनेमा की मौलिकता और प्रयोगसीलता में कुछ नएपन की उम्मीद नहीं की जा सकती।सिवा इसके कि हालीवुड के कुछ बी ग्रेड नमूने यहां भी दिखने लगेंगे। आश्चर्य नहीं कि हिन्दी में मंहगी फिल्मों का भविष्य कभी बेहतर नहीं रहा। रा.वन के पहले तक हिन्दी की सबसे मंहगी फिल्म मानी जाने वाली ब्लू के लिए लागत निकालना भी मुश्किल हो गया था।इसके पहले लव स्टोरी 2050 भी अपनी भारी भरकम लागत के बावजूद दर्शकों को आकर्षित नहीं कर पाय़ी। यदि भारी भरकम बजट वाली कोई फिल्म चली भी तो वह थी जोधा अकबर, जिसमें हुआ खर्च कहानी कहने के लिए जरुरी था। वहां बजट दर्शकों को चमत्कृत करने के लिए नहीं था।लेकिन रा.वन या डान-2 के 100 करोड से ज्यादा के बजट की जब बात आती है तो स्पष्ट लगता है ,यह अपनी फिल्म को जोधा अकबर की तरह और भारतीय बनाने के लिए नहीं ,बल्कि हालीवुड के करीब होने के लिए किया जा रहा है। शाहरुख खान कुशल व्यवसायी हैं,उन्हें पता है हालीवुड में भारतीय तडका एन.आर.आई दर्शकों के लिए एक तोहफा हो सकता है।इसीलिए जहां एक ओर रा.वन में नीली आंखों वाला गोरा चिट्टा सुपरमैन दिखता है,वहीं लाल और हरे रंग में भदेश भारतीय दिखती छम्मक छल्लो भी।हो सकता है फिल्म एक बडी हिट भी हो जाए ,लेकिन जहां आरक्षण 75 करोड की कमाई कर ही मुनाफे में चली जाती है वहीं रा.वन को मुनाफे के लिए कम से कम 200 करोड का व्यवसाय करना होगा।जो हिन्दी सिनेमा के लिए नामुमकिन तो नहीं ,मुस्किल जरुर है।भारत जैसे देश में और हिन्दी सिनेमा जैसे अव्यवस्थित उद्योग में इतना बडा जोखिम वास्तव में हिन्दी सिनेमा की पहचान के लिए खतरा भी हो सकता है। सिर्फ इसलिए नहीं कि इतनी बडी रकम की वापसी अनिश्चत है,इसलिए भी कि इस भारी रकम की वापसी सुनिशचत करने के लिए हिन्दी फिल्मकारों के सामने बाजार की शर्तों पर झुकते चले जाने की बाध्यता हो जायेगी। अनुराग कश्यप अपनी फिल्म के लिए विषय और प्रस्तुती का चुनाव अपनी शर्तों पर इसलिए कर पाते हैं कि उन्हें 2 करोड या 5 करोड में फिल्म बनानी है,जिसकी वाहसी के लिए उन्हें सिर्फ एक लाख दर्शक चाहिए। फिल्में कम बजट की बनती हैं तो इसमें प्रयोग और मौलिकता की गुंजाईश बची रहती है, क्योंकि उस पर दर्शकों का दवाब नहीं रहता।लेकिन जैसे जैसे फिल्म का बजट बढता जाता है इसे दर्शकों की चिन्ता बढते जाती है।सवाल ही नहीं कि तब ये फिल्में तारे जमीं पर और देव डी की तरह दर्शकों की पसंद को चुनौती दे सके। बावजुद इसके हमारी दुआ होगी कि रा.वन 300 करोड का व्यवसाय करने वाली ऐतिहासिक फिल्म बने।लेकिन उम्मीद है सफलता के बावजूद हिन्दी सिनेमा इसे शाहरुख खान के शगल के रुप में ही स्वीकार करेगी।यदि इसे सफलता के फार्मुले के रुप में स्वीकार किया जाता है तो यह हिन्दी सिनेमा के व्यवसाय के लिए ही नहीं ,इसकी मौलिकता पर भी भारी पडेगी।

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