रविवार, 7 अगस्त 2011

तुम जो आए......



बौराया था शहर।बौराना स्वाभाविक भी थी।अमिताभ बच्चन शहर में थे।सदी के महानायक,कुछ ने तो दो कदम आगे बढ कर कहा सहस्त्राब्दी के महानायक,पता नहीं सहस्त्राब्दी के शब्दार्थ से भी वे अवगत थे या नहीं।वैसे अतिउत्साह में लोग अक्सर होश गंवा बैठते हैं।होश हम भी गंवा बैठे,भूल गए कि अमिताभ आए नहीं ,लाए गए थे।बिहारी फिल्मकार प्रकाश झा के द्वारा अपनी फिल्म आरक्षण के प्रोमोशन के लिए।
अमिताभ बच्चन पहली बार बिहार आए।यदि प्रकाश झा ने अपनी फिल्म आरक्षण में उन्हें नहीं लिया होता ,यदि आरक्षण के प्रोमोशन का कार्यक्रम पटना में नहीं रखा गया होता ,तो शायद अमिताभ अभी भी बिहार नहीं आते,शायद कभी नहीं आते।क्यों आते,जब अपने 40 वर्षों की लम्बी अभिनय यात्रा में उन्हें बिहार आने की जरुरत महसूस नहीं हुई। वर्षों से अपने कंधे पर सुपर स्टार और अब सदी के महानायक के खिताब को उठाए अमिताभ को यह बेहतर पता है कि हिन्दी सिनेमा में काम करने का अर्थ हिन्दी समाज को जानना नहीं है। हिन्दी समाज की महत्वपूर्ण पहचान बिहार को जाने बगैर ही यदि हम हिन्दी सिनेमा के कालपुरुष बन सकते हैं तो क्या जरुरप है बिहार की धुल मिट्टी फांकने की।
वास्तव में अमिताभ का पटना आना ,यह ज्यादा याद दिलाता है कि अभी तक वे पटना या बिहार आए ही नहीं थे।अमिताभ ही क्यों ,आखिर कौन से हिन्दी सिनेमा के स्टार ने बिहार या हिन्दी प्रदेश को करीब से जानने की कोशिश की।यह हिन्दी सिनेमा की सचाई है,जहां स्टारडम की सीढियां चढने के लिए यह कतई जरुरी नहीं कि उस दुनियां को जानें ,समझें,पहचानें,जिस दुनिया को वे परदे पर साकार कर रहे हैं। अमिताभ का आना बिहार के लिए उत्साह से ज्यादा विचार का अवसर है कि आखिर कहां हमारी चूक रह जाती है कि हमारे ही सितारे हमें जानने की कोसिश नहीं करते।आखिर क्यों हिन्दी सिनेमा की चिन्ता में बिहार शामिल नहीं हो पाता।आश्चर्य़ नहीं कि हिन्दी सिनेमा के अभिनेता जब परदे पर किसी बिहारी को करने की कोशिश करते हैं तो वह किसी दूसरे ग्रह का प्राणी हो जाता है ।
सवाल ये भी है कि आखिर अमिताभ क्यों जानें बिहार को।उन्हें पता है बिहार सिनेमा का बाजार नहीं है।बिहार और झारखंड दोनों मिल कर किसी फिल्म के व्यवसाय में मात्र दो प्रतिशत की भागीदारी करते हैं ।ऐसे में उनका मुम्बई या पंजाब को जानना ज्यादा व्यवहारिक होता है जो 30 से 40 प्रतिशत तक की भागीदारी सुनिश्चत करती है।उन्हें पता है बनने के लिए फिल्में हिन्दी में बनती जरुर हैं ,लेकिन उसका हिन्दी दिखना कतई जरुरी नहीं होता।वहां भांगडा दिखना जरुरी होता है,सामा चकेवा या मधुश्रावणी नहीं।आखिर क्यों आते अमिताभ।
लेकिन अच्छा लगा अमिताभ का आना,कुफ्र तो टूटा।भले ही वजह प्रकाश झा का बिहार प्रेम हो,लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कहीं न कहीं हिन्दी सिनेमा को बिहार के बदलते आर्थिक हालातों में अपने लिए अब बेहतर संभावना भी दिखने लगी हो।निश्चित रुप से एक दर्शक के रुप में हम जितने ही मजबूत होंगे,अमिताभ जैसों का हमारे बीच आना उनकी मजबूरी होती जाएगी।

2 टिप्‍पणियां:

  1. "निश्चित रुप से एक दर्शक के रुप में हम जितने मजबूत होंगे,हमारे बीच आना उनकी मजबूरी होती जाएगी।" निश्चित रुप से हमें इस विचार से सहमति है।धन्यवाद...

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  2. प्रकाश झा को बिहार से प्रेम नही है....यही उन्हे प्रेम होता तो दामुल जैसी फिल्मे वो parallely वो बनाते रहते ...वो खालिस बाजार के हो गए है...और जिसको बाजार से प्रेम हो जाए...वो बिहार से क्या प्रेम करेगा..बिहार और बाजार प्रेम दो अलग अलग चीजे है....बाकी अमिताभ आए....उनका स्वागत..ना आए तो भी बिहार के लोग सिनेमा देखते रहेगे....

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