बुधवार, 3 अगस्त 2011

आरक्षण पर हंगामा,बहस से बचने की सियायत







बात ममता बनर्जी की नहीं,छगन भुजबल की है।एन सी पी कोटे से आए गुमनाम से केंद्रीय मंत्री अचानक खबरों में आ गए जब उन्होंने प्रकाश झा की 12अगस्त को रीलिज होने वाली फिल्म आरक्षण के खिलाफ आंदोलन की धमकी दे डाली।भारतीय सेंसर बोर्ड द्वारा अ-व श्रेणी केलिए पारित फिल्म पर महाराष्ट्र के ही आर सी पी के राम दास अठावले आग बबूला होते हैं तो बात समझ में आती है कि आरक्षण विरोध उनकी राजनीति का हिस्सा रही है।इस पर किसी विमर्श का अस्वीकार उनके लोकप्रिय राजनीति का स्वाभाविक कदम है।लेकिन एक केंद्रीय मंत्री भी जब उसी टोन में बात करता है तो वाकई चिंता होती है क्या किसी व्यक्ति के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकारों का विरोध किसी मंत्री के लिए जायज है।वह बी तब जब इन्हीं की सरकार द्वारा नियोजित संवैधानिक अधिकार प्राप्त संस्था भारतीय सेंसर बोर्ड उसे सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति दे चुका हो।यह विरोध वास्तव में किसी एक फिल्म के विरोध से ज्यादा एक संवैधानिक संस्था के निर्णय का विरोध ज्यादा है।कम से कम जिसका अधिकार किसी केंद्रीय मंत्री को तो कतई नहीं हो सकता । लेकिन यह भारतीय राजनीति है,यह किसी दायरे में बंध कर नहीं रहती।इसके लिए न तो संविधान मायने रखता है,न ही किसी के संवैधानिक अधिकार ।मतलब रखते हैं बस अपनी पीछे लगने वाली भीड ।वैसी भीड जिसे वे विमर्श का अवसर नहीं देना चाहते,उन्हें विचार का अवसर नहीं देनी चाहते।बस चाहते हैं वह भीड अनके निर्णय में आंखें मूंद कर उनके पीछे शामिल रहे।आश्चर्य नहीं कि महाराष्ट्र से शुरु हुए इस मुखर विरोध की नींव उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार ने दो हफ्ते पहले ही रख दी थी ,जब वहां आरक्षण के प्रमोशन के किसी भी कार्यक्रम पर प्रशासन ने रोक लगा दी।पहले विश्व विद्यालय में,फिर लखनऊ में,अब कहते हैं पूरे उत्तर प्रदेश में। प्रकाश झा की कोशिश थी कि उत्तर प्रदेश के छात्रों से अमिताभ बच्चन की सीधी बातचीत हो,इसलिए कि वहां की राजनीतिक और सामाजिक समझ निर्विवाद रही है।हालांकि अमिताभ बच्चन काफी संभल कर बोलने वाले सेलिब्रेटी रहे हैं।इसलिए यह तो कतई उम्मीद नहीं थी कि आरक्षण जैसे मुद्दे पर वे कोई ऐसी बात रखेंगे जिस पर विवाद की गुंजाइश हो।अभीतक आरक्षण पर जो उनके बयान आए हैं उसे देखते हुए भी ऐसा कहा जा सकता है। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक सरगर्मीयां सारे देश को गर्माती रही हैं,ऐसे में अमिताभ की उपस्थिती से प्रशासन का डरना थोडा चिंतित करता है।क्या वाकई अमिताभ जैसे अभिनेताओं की स्वीकार्यता राजनेताओं से ज्यादा है।क्या प्रशासन को वाकई यह लगता था कि आरक्षण पर अमिताभ का स्टैंड लोगों को उत्तेजित कर सकता है।यदि यह सही भी हो तो क्या यह तूफान के आगे आंखें मुंद लेने जैसा नहीं है।यदि आरक्षण को लेकर अभी भी लोगों के मन में कुछ शंकाएं हैं तो क्या जरुरी नहीं कि उस पर विमर्श हो,बातें हो।यह तो अवसर होता कि अमिताभ बच्चन जैसे सम्मानित सेलिब्रेटी की राय हमें विमर्श का जमीन देती । अमिताभ बच्चन हों या प्रकाश झा वास्तव में भारतीय संविधान के अनुसार उनकी अहमियत एक व्यक्ती से अधिक नहीं।बाकी नागरिकों की तरह उन्हें भी किसी मुद्दे पर अपनी बात रखने का हक है, संकट यह है कि अपनी बातें रखने का हक हम बाकी नागरिकों को देते हैं,अपने कलाकारों को नहीं देना चाहते।

दीग्विजय सिंह जो चाहे बोल सकते हैं किसी को कोई आपत्ति नहींहोती,वे एक सुर से बाबा रामदेव को भी गाली दे सकते हैं और अण्णा हजारे को भी।कोई रोक उनपर नही लगायी जाती कि इससे तनाव बढ सकता है,अमर सिंह जो चाहे बोल सकते हैं ,कभी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की जाती,वे संविधान की भी बखिया उधेड सकते हैं ,न्यायपालिका की भी,सर्वस्वीकार्य।लेकिन जब अमिताभ बच्चन,तस्लीमा नसरीन,सलमान रश्दी...या हुसैन की बात होती है तो तमाम सीमाएं लगाने की कोशिश की जाती है।उनसे उम्मीद की जाती है कि वे वही बोलें जो हम चाहते हैं।हम मानना ही नहीं चाहते कि उनकी अपनी भी कोई राय हो सकती है।और उसे जाहिर करने का उन्हे हक भी है।

प्रकाश झा ने आरक्षण बनायी.जाहिर है अमिताभ बच्चन ,सैफ अली खान,दीपिका पादुकोण,मनोज वाजपेयी जैसे सितारों को लेकर वे यह फिल्म बना रहे हैं तो कोशिश एक मास अपील की ही होगी,दशर्कों को आकर्षित करने वाली कहानी होगी, आकर्षक गीत होंगे,रोचक संवाद होंगे,निश्चित रुप से 30करोड की लागत लगती है तो इस उम्मीद के साथ कि60करोड की वापसी होगी,किसी भी फिल्म की यह पहली शर्त होती है।लेकिन प्रकाश झा चुंकि वैचारिक फिल्मकारों में जाने जाते हैं इसिलिए एक विमर्श का आधार उनकी फिल्मों में बोनस को रुप में मिलता है।लेकिन भारत में चुंकि सिनेमा से विचार की कतई उम्मीद नहीं रखी जाती इसिलिए जैसे ही आरक्षण जैसी कोई फिल्म आती है हमारे कान खडे हो जाते हैं।हम उनके प्रति अतिरक्ति सचेत हो जाते हैं कि हमारे स्थापित मान्यताओं पर यह कोई सवाल तो खडे नहीं कर देगी।हम इन कृतियों के कला की तरह स्वीकार ही नहीं कर पाते ।

आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी एल पूनिया आरक्षण आने के पहले ही बयान देते हैं कि आरक्षण फिल्म भारत के संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।उन्होंने सेंसर बोर्ड को नोटिस दिया है कि आयोग की सहमति प्राप्त करने के बाद ही वे फिल्म को पास करें।प्रकाश झा जैसे सचेत फिल्मकार से संविधान के खिलाफ जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती,फिर भी यदि वे जाते ही हैं तो उसकी निगरानी के लिए भारतीय सेंसर बोर्ड जैसी संवैधानिक संस्था भी है,फिल्मों पर विचार करने का अधिकार संसद ने सेंसर बोर्ड को सौंपा है तो उसपर यकीन नहीं करने का अर्थ सीधे तौर पर संविधान की मूल अवधारणा पर सवाल खडा करना माना जायेगा।वास्तव में जब ऐसे सवाल उठते हैं तो उसका मतलब कहीं भी संविधान का अनुपालन नहीं होता ,होता है अपने जिद का अनुपालन।जिद इस बात की ,कि सामने वाले कलाकार की कृति में मेरे विचार क्यों नहीं दिख रहे।

ऐसा संभव है क्या।कोई भी कला कलाकार की समझ ,उसके अनुभव की ,उसके चिंतन की अबिव्यक्ति होती है ,उसे हम निर्धारित नहीं कर सकते।एम एफ हुसैन इसी विडम्बना को आजीवन झेलते रहे,तस्लीमा नसरीन और सलमान रश्दी अभी भी झेल रहे हैं।मी नाथूराम बोलतोय का गला शुरु होते ही घोंट दिया जाता है।सिन्स पर इसाइयों को आपत्ति होती है,फायर पर हिंदुओं को,जो बोले सो निहाल पर सिक्खों को।वास्तव में जहां भी कोई वैचारिक मुद्दे आते हैं हरेक समूह की जिद उसमें अपनी बात ढूढने की होती है,हम मानते ही नहीं कि कलाकार को भी अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है।आश्चर्य यह भी है कि इन्हीं समूहों की ओर से तब कोई आपत्ति नहीं आती जब मर्डर और देल्ही बेली जैसी फिल्में आती हैं।सवाल महत्वपुर्ण यह है कि देश में कानून का शासन चलेगा या समूहों का। इस तरह के दबाब में आकर प्रकाश झा रीलिज के पहले उन्हें फिल्म दिखा कर दिखा कर संतुष्ट करना भी चाहें ,तो आखिर कितनों के कहे पर संसोधन कर सकते हैं और कितना, और फिर उसके बाद क्या वह प्रकाश झा की कृति रह जायेगी।

मूल बात यह कि हम विमर्श से डरने लगे हैं,हम में दूसरों को सुनने की सहिष्णुता समाप्त हो गई है।आश्चर्य नहीं कि पत्रकारों पर प्रहार की घटनाएं दिनोंदिन बढते जा रही है।हम भूल जाते हैं कि इसका खामियाजा अंततः हमें ही उटाना होगा।तस्लीमा अपनी बात नहीं रख पा रही तो उनका क्या बिगड रहा, अमिताभ बच्चन या प्रकाश झा को अपनी बात रखने से रोका जाता है तो उनका क्या नुक्शान,बे तो डबल धमाल में लग जायेंगे,जहां कोई विवाद नहीं,हमें विचारों के प्रवाह से महरुम हो जाना पडेगा।



1 टिप्पणी:

  1. प्रतिभा का दुरूपयोग न करें।वह भी प्रकाश झा के लिए...

    जवाब देंहटाएं