‘सावन का महीना पवन करे शोर, जियरा रे झूमे ऐसे जैसे वन मा नाचे मोर’, सच है कि न तो आज वह सावन रहा, न ही पवन का शोर सुनाई दे सकने वाली शांति, न ही बचे हैं वन और न ही उसमें नाचने वाले मोर, बावजूद इसके आज भी ये गीत हमारे मन प्राणों को स्पंदित करते हैं तो इसका कारण वह सुखद स्मुतियां हैं, वह कल्पनाएं हैं जिसे गढ़ने में कालीदास से लेकर निराला तक ने अपने हृदय की समस्त कोमलता उड़ेल दी हैं। सावन हमारे जीवन में हो न हो, हमारी आशाओं-आकांक्षाओं- इच्छाओं से वह बाहर नहीं हो सकता। ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप काले बादलों से ढके आसमान को देखें और आपको मेघदूत की याद न आए।
सावन के प्रति हमारी इस कमजोरी का अहसास सिनेमा को भी रहा है। बल्कि कहें तो सिनेमा की लोकप्रियता का आधार ही हमारी कमजोरियां रही है। शायद इसीलिए सिनेमा के परदे पर यदि किसी एक को प्रतिष्ठा मिली है तो वह सावन है। ‘आया सावन झूम’, ‘सावन को आने दो’, ‘सावन भादो’, ‘बरखा बहार’, ‘सावन’ जैसी कुछेक फिल्मों के तो कथानक ही सावन को केन्द्र में रखकर बुने गए, अन्य फिल्मों में भी जब दर्शकों के मन के कोमल अहसासों को छेड़ने की सिनेमा ने जरूरत समझी हमारी स्मृतियों में कायम सावन की बूंदों की शीतलता का बखूबी इस्तेमाल किया। ‘दो बीघा जमीन’ जैसी मानवीय त्रासदी को चित्रित करती फिल्म में भी विमल रॉय जब मानव की जीवन शक्ति दिखाना चाहते हैं तो फिल्माते हैं ‘आयो रे आयो रे, सावन आयो रे।
भारतीय जीवन में सावन सिर्फ मौसम में एक बदलाव का प्रतीक नहीं रहा है। यह सुख, समृद्धि, सौहार्द्र और प्रेम का घोतक रहा है। प्रेमचंद की कृति ‘गोदान’ पर बनी फिल्म में भी शोषित पीड़ित किसानों के जीवन में सावन को उल्लाह का संचार करते देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि इस फिल्म के लिए संगीत सितार वादक पं रविशंकर ने दिया था, और सावन के साथ ही अपने गांव की याद में उत्साहित मजदूरों की अभिव्यक्ति को लोकधुनों के सहारे उन्होंने अमर कर दिया, ‘पूरबा के झोंकवा ने लायो रे संदेशवा कि चल आज देशवा की ओर’। रोजी रोटी कमाने शहर आये मजदूरों को सावन की पहली दस्तक ही उम्मीद देती है कि समृद्धि अब अपने गांवों तक भी पहुंच गर्इ होगी। महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ के ‘उमड़-घूमड़ कर आये रे घटा’ से लेकर आमिर खान की ‘लगान’ के ‘धनन-धनन घिर आए बदरा तक’, सिर्फ शब्द संयोजन में परिवर्तन भले ही दिखता हो, गीतों के मूल स्वर एक ही हैं, दुखों के बीच उत्साह का संचार, यही है सावन। ‘पूरब और पश्चिम’ में मनोज कुमार यूं ही नहीं कहते ‘पूरवा सुहानी आयी रे’, वे सावन को राष्ट्रीय पहचान से जोड़कर देखते हैं। पूरवा के बहाने पूरब की श्रेष्ठता उद्घोषित की जा रही है यहां। मनोज कुमार जाहिर करने की कोशिश करते हैं कि सावन का वरदान सिर्फ हमे ही मिला है।
सावन के साथ जुड़ा है उत्साह, और उत्साह के साथ प्रेम। आश्चर्य नहीं कि सावन का सुखद वातावरण पूरी प्रकृति में प्रेम का लय तरंगित कर देता है, जो कभी कालीदास को भी प्रेरित करती थी और मजरूह को भी करती रही। ‘धरती कहे फकार के’ में हिन्दी सिनेमा की चालू शब्दावली में जैसे कालीदास को ही अभिव्यक्ति दी जाती है, ‘जारे कारे बादरा बालमा के पास, वो हैं ऐसे बुद्धू की समझे न प्यास’। सावन की बूंदों का यही चमत्कार है, एक ओर यह धरती की प्यास बुझाती है, दूसरी ओर मन की प्यास भड़काती है। ‘चुपके-चुपके’ में शर्मिला टैगोर इस प्यास को शालिनता से अभिव्यक्ति देती हैं, ‘अबकी वरस सावन में, आग लगेगी बदन में, घटा बरसेगी, मगर तरसेगी, मिल न सकेंगे दो मन एक ही आंगन में’। जबकि ‘रोटी कपड़ा और मकान’ में इसी प्यास को जीनत अमान पूरी आक्रामकता से बयान करती हैं, ‘तेरी दो टकिया की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाय’।
सावन हिन्दी फिल्मकारों को दोहरा अवसर देते रही है, एक ओर मिथकों में चित्रित इस मौसम की पृष्ठभूमि नायिका की इच्छाओं की मुखर अभिव्यक्ति के लिए आधार देती है, दूसरी ओर इसकी बूंदे नायिका के शरीर को पूरी मादकता से उजागर करने का भी अवसर देती हैं। गीले पारदर्शी वस्त्रों में आमंत्रित करती नायिका जब ‘मेरा नाम जोकर’ में ‘मोरे अंग लगजा बालमा’ गाते नायक के पीछे विह्वल भागती दिखायी देती है तो कहीं न कहीं सभी दर्शकों के संतुष्टि का कारक बनती है। ‘मि. इण्डिया’ में ‘काटे नहीं कटती दिन ये रात’ में श्रीदेवी की दिखती बेचैनी सिर्फ नायक अनिल कपूर को बेचैन नहीं करती, दर्शकों को भी बेचैन करती है।
‘बरखा रानी जरा थम के बरसो, मेरा दिलबर आ जाय तो जम के बरसो’ सावन कुमार की फिल्म ‘सबक’ ने मिलन की प्रतिआशा में नायिका इस आग्रह के पूरा होते ही बरखा रानी के सामने अगला आग्रह प्रस्तुत करती है, ‘बरखा रानी जरा जम के बरसो, मेरा दिलबर जा न पाये जरा जम के बरसो। बरसात में मिलन के उत्साह को फिल्मी गीतों में अद्भुत अभिव्यक्ति मिली है। आर के का प्रतीक चिन्ह बन चुका ‘बरसात’ का ‘हमसे मिले तुम’ हो या ‘श्री 420’ का ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’। लगता है सावन की सार्थकता प्रेमियों के मिलन में ही है। ‘अनजाना’ में लक्ष्मी प्यारे के संगीत पर नायक नायिका उत्साह से झूमते दिखायी देते हैं, ‘रिमझिम के गीत सावन गाये’। बदलते समय के साथ हमारे स्वभाव भी बदले हैं और प्रेम के तरीके भी। अब यह सिर्फ ‘रिम झिम के तराने लेकर’ नहीं आती, सीमाएं तोड़ने के बहाने लेकर आती है। ‘नमकहलाल’ में अमिताभ बच्चन स्मिता पाटिल बारिस में भिंगते बीच सड़क पर लिपटते चिपकते उदघोष करते फिरते हैं, ‘आज रपट जायें तो हमें ना बचैयो’। सावन की बूंदों में नैतिकता सीमा लांघने से जब राजेश खन्ना शर्मिला टैगोर को कोर्इ ‘रूप तेरा मस्ताना...’ गाने में नहीं बचा सका, ‘हमजोली’ में लीना चंदावरकर जितेन्द्र को ‘हैयया हो’ करने से नहीं बचा सका, तो अब तो समय ही बदल चुका था।
सावन अब सिर्फ मिलन का प्रतीक है, जुदार्इ का नहीं। वो बीते दिनों की बात हो चुकी, जब लता मंगेशकर गाती थी ‘अब के ना सावन बरसे, अबके बरस तो बरसेगी अंखियां’ जुदार्इ के इसी स्वर को लता ने ‘आर्शिवाद’ में सुर दिया था, ‘झिर झिर बरसे सावनी अखियां’ प्रेमचंद की कहानी पर बने ‘गबन’ में भी साजन की याद को सावन के साथ मधुरता से जोड़ने की कोशिश की गर्इ है, ‘तुम बिन बरसे नयर, जब जब बादल बरसे’। एक अल्प चर्चित फिल्म ‘देवता’ में गुलजार ने विरह को कुछ इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है, ‘मैं तो कारे बदरवा से हारी, गरजे तो रात जगाये, बरसे तो आग लगाये’। ‘बरसात की एक रात’ में नायिका हारती नहीं, उम्मीद रखती है, ‘सावन में झूले पड़े, तुम चले आओ...’। उम्मीद हम भी रखते हैं।
बीते वर्षों में हिन्दी फिल्मों ने अपना स्वरूप बदला तो इसका सावन भी बदला है। हिन्दी फिल्में महानगरिय हो गर्इ हैं। और महानगरों में सावन के साथ कोमल अहसास नहीं जगते, उमड़ते नाले याद आते हैं। वहा सीमाएं लांघने के लिए अब किसी सावन की जरूरत नहीं। डिस्को और रेव पार्टियों के दरवाजे सालो भर सभी मौसमों में खुले हैं। जाहिर है ‘1942 ए लव स्टोरी’ जैसी ‘रिम झिम रिम झिम रूम झूम रूम झूम’ अब गाहे बगाहे सुनायी देती है। लम्बे अरसे बाद ‘फना’ में सावन आता भी है तो बदलते संदर्भों के साथ, ‘सावन ये सीधा नहीं, खुफिया बड़ा है, साजिस ये बुंदों की, कोई ख्वाहिस है चुप चुप सी, देखो ना’। सावन और बूंदो के कोमल अहसास के साथ खुफिया और साजिस जैसे कठोर संदर्भो को आज भले ही जोड़ा जाने लगा हो, हमें उम्मीद है कालीदास के ‘मेघदूत’ की तरह गीतो में अभिव्यक्त सावन की मधुरता आने वाले दिनों में भी याद की जाती रहेगी। ‘कागज की कस्ती, बारिस का पानी’ की जब चर्चा होगी, हमारे सुखद अहसास फनर्जिवित हो उठेंगे। सावन की फुहार से इतनी तो उम्मीद हम रख ही सकते हैं कि तमाम विडम्बनाओ के बीच भी यह कालीदास के ‘मेघदूत’ की याद एक बार जरूर दिलायेगी।
बहुत ही उम्दा ...पढ़ के मज़ा आ गया !
जवाब देंहटाएंसुंदर, आपके लेखों में सदैव एक स्थान रखने वाला। समीक्षक को इतने गीत याद हों, तो उसमें कवित्व झलकता है। - एस.
जवाब देंहटाएंअच्छा है.....लेकिन आपके सवाल के आसपास और ढेर सारे महोत्सवो के बीच सवाल ये भी है कि क्या सावन आ गया..
जवाब देंहटाएं