गुरुवार, 7 जुलाई 2011

एक प्रतिबद्ध सौंदर्य प्रेमी मणिकौल


         साहित्य को सिनेमा में रूपांतरित करने के जिद के प्रतीक थे मणिकौल। उसकी रोटी, आसाढ़ का एक दिन, दुविधा, इडियट, घासी राम कोतवाल, सतह से उठता आदमी और अन्तत: नौकर की कमीज। हिन्दी सिनेमा के वे एक मात्र फिल्मकार थे जिन्होंने अपनी सारी फिल्मों को चर्चित साहित्य पर केन्द्रित रखा। लेकिन यह भी सच है कि सत्यजीत रे और विभुति भूषण बन्धेपाध्याय की मेल ने बांगला में जो चमत्कार किया, मणिकौल हिन्दी में उसे दुहरा नहीं सके। शायद इसलिए कि सत्यजीत रे की तरह इन्होंने साहित्य का उपयोग सिर्फ नैरेशन के लिए नहीं किया। सिर्फ कहानियों का सार ग्रहण नहीं किया बल्कि साहित्यिक कृति को पूरे सौंदर्यबोध के साथ पूर्णता में साकार करने की कोशिश की। सत्यजीत रे कहते थे किसी भी उपन्यास के चयन के बाद फिल्म निर्माण की शुरूआत मैं शून्य से  करता हूँ। लेकिन मणिकौल ने हमेशा कृति को सामने रखकर फिल्में बनायी। आश्चर्य नहीं कि उन्होंने जितनी भी कृति का चुनाव किया अ​धिकांश साहित्य में गैर परम्परिक कथाशैली के लिए जाने जाते रहे हैं। इन किताबों में एक के बाद एक घटनाओं का क्रम नहीं ढूंढा जा सकता। वास्तव में मणिकौल में फिल्म और साहित्य को लेकर एक हठ दिखता है कि जो कुछ भी शब्दों से बयान किया जा सकता है उसे वे कैमरे से साकार कर सकते हैं।
              निश्चय ही अपनी कलाविधा से यह प्रेम और यह जिद उन्हें त्विक घटक जैसे गैर पारम्परिक फिल्मकार के सान्निध्य ही दे सकती थी। 25 दिसम्बर 1944 को राजस्थान के जोधपुर में जन्में मणि ने 1966 में फिल्म एवं टेलिविजन संस्थान पुणे में दाखिला लिया। उस वक्त संस्थान के निदेशक त्विक घटक थे, जिन्होंने सिनेमा को अपना एक मौलिक व्याकरण दिया था। उस वक्त जब भारत के फिल्मकार विदेशों में हो रहे नवीनतम प्रयोगों की ओर टकटकी लगाये थे, घटक अपनी जमीन की खुबसुरती परदे पर लाने की कोशिश में लगे थे। मणि को शायद पहली शिक्षा ही यही मिली की कैमरा सिर्फ कहानी कहने के लिए नहीं होती, सौंदर्य से रू--रू कराने के लिए होती है। और उनकी यह समझ भारतीय सिनेमा में पृष्ठ दर पृष्ठ स्वर्णिम ध्याय जोड़ती गई, निश्चय ही जिसके बगैर भारतीय सिनेमा की पहचान अधूरी रह जाती, क्योंकि मणिकौल के प्रयोगों को किसी ने भी दुहराने की कोशिश नहीं की।
              मणिकौल ने अपने सिनेमाई सफर की शुरूआत अभिनय से की थी। फिल्म थी बासु चटर्जी की सारा आकाश राजेन्द्र यादव के उपन्यास पर 1969 में बनी इस फिल्म में उन्होंने भुमिका तो एक छोटी सी निभायी थी लेकिन यही शायद उनके साहित्यिक सरोकार की प्रस्थान बिन्दू भी बन गई। निर्देशन की शुरूआत उन्होंने चर्चित मराठी नाटक के सिनेमायी रूपांतरण घासीराम कोतवाल से की। लेकिन तुरन्त ही मुक्तिबोध की  कृति सतह से उठता हुआ आदमी के फिल्मांकन की चुनौती स्वीकार्य की। यह मणिकौल ही थे जिन्होंने समकालीन साहित्य के खजाने से वैसी ही कृतियों को ढ़ूंढ़ निकाला जिसे साहित्य के छात्र भी अपने लिए कठिन समझते थे। 1971 में उन्होंने मोहन राकेश के नाटक असाढ़ का एक दिन का फिल्मांकन किया, 1973 में विजय दान देथा की कहानी पर दुविधा बनायी। 1992 में इन्होंने दासतोवस्की के इडियट को अहमक के रूप में भारतीय परदे पर उतारा। उल्लेखनीय है कि मणिकौल ने कभी भी साहित्यिक कृतियों को फिल्मी टाइटिल में रूपान्तरित करने की कोशिश नहीं की। आमतौर पर जब सिनेमा को एक लोकप्रिय नाम देने की परम्परा रही है, मणिकौल ने मूल कृति के नाम को ही परदे पर भी सुरक्षित रख साहित्य को एक विशिष्ट गरिमा प्रदान की।
              मणिकौल के सिनेमा के अपने व्याकरण थे। उन्होंने अपनी शर्तों पर फिल्म का निर्माण किया, पूरी जिन्दगी। नौकर की कमीज के बाद जब भारत में कला सिनेमा के अवसर कम हुए तो उन्होंने हॉलैण्ड की कम्पनी के सहयोग से बादल द्वार’, एक मंकी रैनकोट’, आर्इ एम नो अनदर जैसी कलात्मक पिफल्म का निर्माण किया। बादल द्वार में एक ओर उस्ताद मोइनुद्दीन खां डागर के ध्रुपद का सौंदर्य सुना जा सकता है तो दूसरी ओर अनु अग्रवाल जैसी नॉन एक्ट्रेस मानी जाने वाली अभिनेत्री का शारीरिक शौष्ठव। मणिकौल की एक ही शर्त थी सौंदर्य, उन्होंने वृत्तचित्रा भी बनाये तो ध्रुपद पर, सिद्धेश्वरी देवी पर, टेराकोटा के शिल्पकारों पर। लेकिन सौंदर्य के धुनि मणिकौल अपने विचारों के प्रति कितने प्रतिबद्ध थे यह इसी से समझा जा सकता हैं कि इमरजेंसी के दौर में जब भारत सरकार ने उन्हें हिस्टोरिकल स्केचेज ऑपफ इण्डियन वोमेन पर बन रहे वृत्तचित्र के अन्त को बदलने की सलाह दी, तो उन्होंने अपने आप को फिल्म से ही अलग कर लिया। यही मणिकौल थे जिनके सिनेमा में दिखती है अपनी कला के प्रति एक जिद, जो आज हर वक्त समझौते के लिए तैयार हिन्दी सिनेमा के लिए एक दूर्लभ सी बात हो गयी है।

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