‘मर्डर-2’ में इमरान हाशमी एक गुंडे को मारते हुए तीन बार मादर...की गाली का स्पष्ट उच्चारण करते हैं, कोई बीप नहीं, आवाज को छिपाने की कोई कोशिश नहीं। एक दम पूरी की पूरी गाली डॉल्बी साउण्ड में दर्शकों के कानों में पिघले हुए सीसे की तरह उतर जाती है। निश्चित रूप से दर्शक स्तब्ध रह जाते हैं। क्या वही कहा जा रहा है, जो सुनायी दे रहा है? अपने स्तब्धता को वे एक बेमतलब के शोर से दूर करने की कोशिश करते हैं। महेश भट्ट को इस शोर में शायद दर्शकों की सहमति सुनायी दे रही हो, लेकिन सच यही है कि यह एक निरर्थक सी प्रतिक्रिया है, क्यों कि कोई भी व्यक्ति मां की गाली सुनकर उल्लसित नहीं हो सकता। पिछले दिनों अनुराग कश्यप हिन्दी सिनेमा की भाषा पर हो रहे एक सेमिनार में चिन्तित थे कि हिन्दी सिनेमा में अंग्रेजी के ‘एफ... के’ की तो इजाजत मिल जाती है। उसकी हिन्दी अर्थ पर सेंसर की सुई अटक जाती है। अब वो प्रसन्न हो सकते हैं कि सेंसर की सुई आगे बढ़ गई है। उनका सौंदर्यबोध और उनकी नायिकाएं इजाजत दे तो हर संवाद के साथ उक्त क्रिया पद का प्रयोग कर सकते हैं।
सवाल है यह सेंसर बोर्ड की उदारता है या हमारी स्वीकार्यता। यह जरूर है कि हाल के दिनों में सेंसर बोर्ड की कैंची भोथरी होती गई है। लेकिन सच यह भी है कि दर्शकों को सिनेमा घर तक लाने के लिए वे दृश्य खासा मददगार साबित हुए। हमारी स्वीकार्यता फिल्मकारों की हिम्मत बढ़ाती गई और उनकी हिम्मत के सामने सेंसर बोर्ड अपने आप में सिमटता चला गया। आश्चर्य नहीं कि बीते वर्षों में हर फिल्म, पिछली फिल्म से आगे बढ़ने की होड़ में दिखी, सेक्स के मामले में, अश्लील गालियों के मामले में, विकृत सौंदर्यबोध के मामले में। रानी मुखर्जी का बोला, ‘गांड़ फट के हाथ में आ जाता’ अब शालीन लगता है जब ‘देल्ही बेली’ में नायक के गांड़ के दृश्य से ही फिल्म की शुरूआत होती है। और फिर पूरी फिल्म में कम से कम तीस स्थानों पर तो अवश्य ही अलग-अलग विशेषणों के साथ इसका प्रयोग होता है। कभी दूसरे को गाली देने के लिए तो कभी अपने को गाली देने के लिए। यदि सिनेमा एक कला रूप है तो क्या वाकई यह कोई कला है?
‘दम मारो दम’ में दीपिका ने कहा, ‘पॉटी पर बैठा नंगा’, ‘देल्ही बेली’ में पॉटी पर बकायदा नंगा बैठा दिखता है नायक। यह है आमिर खान का नया सौंदर्यबोध, जो यहीं नहीं रूकता। नायक का पेट खराब है, उसे अपने मल को जांच के लिए भिजवाना है। वह एक डब्बे में भर कर लैब में देने के लिए अपने मित्र को देता है। संयोग से वह डब्बा दूसरे हाथों में पड़ जाता है। जिसे डब्बे से हीरे की उम्मीद रहती है। वह सामने टेबल पर डब्बा उढ़ेलता है और उसके सामने मल का ढ़ेर जमा हो जाता है। विकृति की इंतहा, जिसे लोग सूंघते हैं, जिसका विशलेषण करते हैं। वैसे मल से खेलना आमिर खान की पुरानी आदत है, ‘पिपली लाइव’ में भी नत्था के लोटे लेकर खेत पर जाने और फिर उसके मल को लेकर एक लम्बा सिक्वेन्स उन्होंने रखा था। लेकिन वहा एक ह्यूमर दिखता था। पूरी फिल्म में मात्र एक सिक्वेन्स था वह, यहां पूरी फिल्म में जमा गंदगी में यह गंदगी और इजाफा करती है। इसी लिए ह्यूमर बन ही नहीं पाता।
लेकिन आमिर खान के पास अपने तर्क हैं। हर तरह की चीजें बननी चाहिए। क्यों बननी चाहिए? यदि आमिर को लगता है, जो कहीं न कहीं सच भी है कि भारतीय समाज में विकृत सौंदर्यबोध वाले दर्शक भी हैं, तो क्या जरूरी है उनके सौंदर्यबोध को भी सह दिया ही जाय? या फिर एक कलाकार की यह न्यूनतम जवाबदेही बनती है कि वह स्रोताओं या दर्शकों के सौंदर्यबोध को बेहतर बनाने की कोशिश करे। आमिर ने ‘लगान’ से लेकर ‘तारे जमीन पर’ में यही तो किया, कि सिनेमा में ही नहीं समाज में भी उन्हें एक विशिष्ठ प्रतिष्ठा मिली। लेकिन इसी आमिर की ‘देल्ही बेली’ विद्रुप और विकृत कला की गठरी के रूप में ही नहीं खुलती, आश्चर्य होता है आमिर खान इसकी सार्थकता की दलील भी देते हैं।
क्या सार्थकता हो सकती है, प्रेमी के अपने प्रेमिका के विवाह मंडप में घुसकर इस घोषना की कि इसने मेरा चूसा है, मैंने इसकी ली है। गौर तलब है कि यह संवाद द्विअथ्री हो सकते थे, लेकिन ‘देल्ही बेली’ में दूसरे अर्थ की कहीं गुंजाइश नहीं बनती, क्यों कि निर्देशक अपने संवादों को पूरा विजुअल सपोर्ट देते हैं। यदि नायक कहता है ‘मेरा चूसा है’ तो ‘क्या चूसा है’ इस भी इशारे से स्पष्ट किया जाता है। आमिर से इसपर जब बात की जाती है तो वे एक बेशर्म सी हंसी हंस देते हैं। आखिर कोई कैसे अपने दर्शकों के प्रति इतना अगम्भीर हो सकता है?
बोस डी के पर सबसे ज्यादा चर्चा हुई। लेकिन उस गंदगी भरी फिल्म का सबसे साफ कोना है यह। जब एक कार के लिए ये संवाद सुने जाते हैं कि जब गधे ने रिक्से की ली तो यह कार पैदा हुई होगी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने भॉति-भॉति के प्रयोग ‘देल्ही बेली’ में हैं। आश्चर्य नहीं कि एक कॉलेज छात्रा कहती है, ‘मैंने गालियां सीखने के लिए यह फिल्म कई बार देखी’। आमिर कहते हैं मैं गालियां नहीं देता था, न ही देता हूँ। मेरी परवरिश ऐसे संस्कारों में हुई जहां इसकी गुंजाइश ही नहीं थी। क्या ‘देल्ही बेली’ के दर्शकों की परवरिश पर आमिर सवाल उठाते हैं?
सवाल कई हो सकते हैं, लेकिन आमिर जब बेशर्मी पर उतारू हों तो सवाल का मतलब क्या? सवाल तो यह भी है कि औरतों को इतने अपमान जनक रूप में कोई कैसे चित्रित कर सकता है? सवाल यह भी है कि क्या आज के सामान्य युवा भी स्वभाव से अपराधी हो गये हैं? अच्छी खासी पढ़ने वाली लड़कियां भी स्मंगलरों के लिए काम करने को तैयार हो जाती हैं? लेकिन इन तमाम सवालों के लिए आमिर को माफ किया जा सकता है इसलिए कि उन्होंने ‘तारे जमीन पर’ भी बनायी थी, यह सच भी है कि आमिर की हर फिल्म दूसरे से अलग रही। हो सकता है ‘देल्ही बेली’ भी प्रयोग के प्रति उनके उत्साह का नतीजा हो। लेकिन इस अपराध से आमिर कभी बरी नहीं हो सकते कि जो जहरबेल उन्होंने लगायी वह तो रोज बढ़ेगी। ‘लगान’ या ‘तारे जमीन पर’ बनाने की हिम्मत फिर किसी ने नहीं की, लेकिन ‘देल्ही बेली’ की परम्परा तो रोज विकसित होगी। उन्होंने बहन की गाली से शुरूआत की, महेश भटट उसे मां तक ले गये। ‘देल्ही बेली’ बनाते हुए आमिर शायद भुल गये कि गुलाब के पौधे के लिए विशेष देख-भाल की जरूरत होती है। जहरबेल तो खुद ब खुद जंगल छाप लेती है। ‘देल्ही बेली’ आमिर का लगाया जहरबेल ही है। हिन्दी सिनेमा को जिसका खामियाजा आने वाले दिनों में भुगतना ही होगा।
ghatiyape ke khilaf ek uttam aalekh
जवाब देंहटाएंghatiyape ke khilaf ek uttam aalekh
जवाब देंहटाएंvinay kr
Aalekh padhate wakta mujhe laga rahaa thaa ki ye meree hee baaten hain. Is bebaak tippanee ke liye badhaaee. Hamen aise zahreele "Aameeron" ke khilaaf ek muhim cheranee hogi.
जवाब देंहटाएंNarendra Nath Pandey
sir isse pahle v to GANGAJAL aur banted queen jaisi movie me madar... jaise shabdo ka prayog hua h, fir ye jaharbell aamir khan ki lagayi kaise hui??
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