सोमवार, 20 जून 2011

ग्लोबल विलेज में बनारस का निजत्व



          कभी ‘बनारसी बाबू भी बनी थी, यह अलग बात है कि गले में छींट का स्कार्क बांधे और अपनी स्टाइल से कतइ समझौते के लिए तैयार नहीं होने वाले देव आनंद में दूर-दूर तक बनारस को ढूंढना असंभव था। लेकिन बनारस के अनूठेपन का ही प्रभाव था कि चाहे जिस भी रूप में हो, हिन्दी सिनेमा के लिए बनारस से मुकरना कभी संभव नहीं हो सका। इसके घाट, घाटों की पहचान बांस की छतरियां, गंगा की लहरें और लहरों पर तैरती नावें किसी न किसी रूप से रूपहले परदे पर आती रहीं। यह अलग बात है कि इनमें कितनों को बनारस से ले जाया गया था और कितनों को मुम्बइ के स्टूडियो में गढ़ लिया गया था। हद तो तब हो गइ जब पूरी तरह बनारस पर केन्द्रित कहानी ‘वाटर’ को शूट करने के लिए दीपा मेहता श्रीलंका चली गइ, क्यों कि बनारस को बनारस पर बनने वाली यह फिल्म स्वीकार नहीं थी। दीपा मेहता के लिए बनारस महत्वपूर्ण नहीं था, कहानी महत्वपूर्ण थी, आश्चर्य होता है आखिर ‘वाटर’ जैसी कहानी जिसमें सबसे मुख्य पात्र शहर ही हो, बगैर शहर के उसे कैसे चित्रित की जा सकती है। ‘वाटर’ एक बहुत अच्छी पीरिएड फिल्म मानी जा सकती है, ‘ऑस्कर’ तक गइ तो नहीं मानने का कोइ कारण भी नहीं। लेकिन जब उसमें बनारस को ढूंढने की कोशिश करते हैं तो पूरी तरह निराशा हाथ लगती है। और भारतीय दर्शकों को उसे रिजेक्ट करने में देर नहीं लगती। वास्तव में दीपा मेहता बनारस की विशेषता को आत्मसात कर ही नहीं सकी, कथा कहने की हड़बड़ी में उन्होंने बनारस के दिल में प्रवेश करने की जहमत नहीं उठायी, अन्यथा बनारस के गंगा की मटमैली लहरों को वे श्रीलंका के किसी शान्त झील में ढ़ूंढ़ने की कोशिश नहीं करती। वे जरूर समझ सकती थी कि किसी नदी या झील के किनारे सीढ़ियों पर बांस की छतरियां लगा देने भर से बनारस नहीं बन जाता, उसके साथ एक जीवंत वातावरण भी दिखाना जरूरी होता है, जिसमें एक व्यक्ति की कोइ पहचान नहीं होती, पहचान होती है एक समाज की, संस्कृति की।


          2006 में पंकज पाराशर ने बनायी थी, ‘बनारस ए मिस्टिक लब स्टोरी’। उर्मिला और अस्मित जैसे कमजोर अभिनेताओं वाली इस फिल्म की ताकत थी बनारस। शायद इसलिए कि यहां बनारस की तस्वीर नहीं थी, जीवन्त बनारस था। मणिकर्णिका घाट, हरिश्चन्द्र घाट, तुलसी दास घाट के साथ बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय और सारनाथ के दृश्य कथानक में पात्र की भागीदारी निभाते दिखते थे। एक सम्मानित पुरोहित की लड़की और अछूत लड़के की प्रेम कहानी का पीरियेड बनारस में स्वत: साकार हो जाता था। लेकिन आश्चर्य होता है जब कल्पना लाजमी जैसी फिल्मकार जिनकी ‘रूदाली’ जैसी फिल्में अपनी वातावरण की प्रस्तुति के लिए ही जानी जाती है, जब बनारस के महन्थों द्वारा किये गए महिलाओं के शोषण पर ‘चिंगारी’ बनाती हैं तो वहां बनारस सिरे से गायब हो जाता है। सुष्मिता सेन, मिथुन चक्रवर्ती जैसे बड़े सितारों के बावजूद बनारस की कहानी में यदि बनारस उपस्थित नहीं होता है तो वह मामूली सामंती अत्याचार की कहानी बन कर रह जाती है। आश्चर्य नहीं कि ‘चिंगारी’ कल्पना लाजमी की शायद सबसे कमजोर फिल्म मानी जाती है। कमजोर इस अर्थ में कि बनारस को, बनारस की संस्कृति को नहीं समझने की जिद उन्हें कथानक की आत्मा में प्रवेश ही नहीं करने देती, और सुष्मिता सेन का चुनौती पूर्ण अभिनय भी ‘चिंगारी’ को बचा नहीं सका।


          बनारस की विशेषता है कि आप उसे रिप्लीकेट नहीं कर सकते। क्योंकि बनारस कोर्इ भौतिक वस्तु है ही नहीं की तमाम संसाधनों के साथ आप उसके किसी कोने का ढ़ांचा कहीं और खड़ा करलें। आगरा, मुम्बर्इ और दिल्ली की तरह बनारस की पहचान उसके इमारतों से नहीं होती, उसके लोगों से होती है, उसकी संस्कृति से होती है। गंगातट आप कृत्रिम बनाने की कोशिश करले सकते हैं, लेकिन वहां उमड़े लोगों को कैसे निर्मित कर सकते हैं। घाटों पर आपने पात्रों की भीड़ भी जुटा ली लेकिन तय मान लिजिए गंगा के प्रति वह श्रद्धा और सबसे बढ़कर वह अपनापन कभी भी सिर्फ अभिनय के बल पर नहीं आ सकता। वह हरेक बनारसी को विरासत में मिलती है। जैसे इंग्लैंड के बच्चे को अंग्रेजी नहीं सिखानी होती, किसी बनारसी को भी अपने संस्कृति और अपने शहर से प्रेम सिखाना नहीं होता।


          आश्चर्य नहीं कि जब बनारस की पृष्ठभूमि पर कल्पना तलवार ‘धर्म’ परिकल्पित करती हैं तो उन्हें पूरे क्रू के साथ बनारस की गलियों में उतरना ही होता है। होगा शिमला और नैनीताल के सुबह का अदभुत नजारा, लेकिन बनारस के अलसाये सुबह को आप कहीं और के सुबह से प्रदर्शित कर ही नहीं सकते। यह बनारस ही है जहां के सुबह में किसी पंडित के हुमाद और किसी संकरे नुक्कड़ पर फसी सी चाय दुकान के घुंए की गंध एक साथ मिली होती है। वास्तव में बनारस को वही ढ़ूंढ़ सकता है जिसके लिए बनारस को ढूंढ़ना मजबूरी न हो, मामला दिल का हो।


          प्रदीप सरकार की ‘लागा चुनरी में दाग’ की कहानी जब बनारस से शुरू होती है तो वाकइ संतोष देती है। लेकिन यह संतोष खुशी में तबदील होने के पहले ही काफुर हो जाती है, जब देखते देखते कहानी अनियंत्रित होकर सीधे हिन्दी सिनेमा के फार्मूले को समर्पित हो जाती हैं। बनारस हासिये पर बिसुरता रह जात है और कहानी मुम्बइ पहुंच जाती है। 1968 में बनी दिलीप कुमार, संजीव कुमार के ‘संघर्ष’ की याद आज भी कइ लोगों के जेहन में होगी, अफसोस उसके साथ बनारस की याद नहीं आती। आश्चर्य नहीं कि कहने को बनारस तो कइ हिन्दी फिल्मों में दिखा-सुना गया, लेकिन कहानी के एक पात्र के रूप में बनारस की उपस्थिति वाकइ काफी कम रही।


          बनारस है ‘यमला पगला दिवाना’ में भी। लेकिन बनारस की पहचान यहां है ठगों की नगरी के रूप में। धरम सिंह और गजोधर सिंह यानि धर्मेन्द्र और बॉबी देओल बनारस के नामी ठग के रूप में फिल्म में हैं। कोर्इ फर्क नहीं पड़ता यदि वे लुधियाना के ही ठग होते या फिर आम हिन्दी सिनेमा के गणित के अनुसार किसी भी नामालूम सी कल्पित जगह के। पता नहीं हिन्दी सिनेमा ने आखिरकार यह कौन सा कन्वेन्सन स्वीकार्य कर लिया है कि अच्छी कहानी, अच्छे चरित्र, अच्छे वातावरण दिखेंगे तो वे पंजाब, गुजरात में दिखेंगे, जबकि अपराध दिखेंगे तो बिहार-उत्तरप्रदेश का चुनाव कर लिया जायेगा। यह अजीब संयोग है कि इसकी शुरूआत प्रकाश झा ने की और अब अभिनव चौबे जैसे फिल्मकार भी ‘इश्किया’ लेकर गोरखपुर आते हैं तो दर्शकों को बताते हैं कि यहां के बच्चे ‘गांड धोना सीखने से पहले पिस्तौल चलाना सीख जाते हैं’। खुशी होती है जब अनुराग कश्यप ‘गैंग ऑफ वासेपुर’ लेकर बनारस आते हैं। लेकिन अफसोस भी होता है कि, क्यों भाइ, अपनी मातृभूमि के हिस्से गैंगवार की ही कहानी बची थी। आप तो स्वयं बनारस के रग-रग से वाकिफ रहे हैं। ऐसा कुछ करते कि लोग सदियों तक याद रख पाते बनारस को, बनारस की संस्कृति को। क्या आश्चर्य कि ‘यमला पगला दिवाना’ जैसी हार्डकोर कॉमर्शियल फिल्म के लिए ठग भी बनाये जाते हैं तो बनारस के। लेकिन निश्चित रूप से डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी होने के लिए किसी का बनारस में जन्म लेना ही जरूरी नहीं होता जिसे अस्सी की जीवन्तता स्पंदित कर सके।


          चाणक्य के रूप में पूरी भारतीय संस्कृति को आत्मसात कर चुके डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी बनारस को सिर्फ इस लिए ढूंढने की कोशिश नहीं करते कि उन्हें एक फिल्म बनानी है। वे इसलिए ढूंढने की कोशिश करते हैं कि उन्हें बनारस को ढूंढना है। उनकी प्राथमिकता में बनारस है, स्वभाविक है उनके कैमरे में बनारस खुद-ब-खुद सिमटता चला आता है। काशी नाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’, अब यह सवाल अपनी जगह पर है कि उसे उपन्यास माना जाय या नहीं, का चुनाव जब डॉ. द्विवेदी फिल्म के लिए करते हैं तो तय रूप से उनके सामने बनारस का भौतिक परिदृश्य नहीं, बनारस की जीवन्तता होती है। वहां के छोटे-छोटे लोगों के सुख-दु:ख होते हैं, उनके आपसी सरोकार होते हैं, उनके सम्बोधन उनके मोड्युलेशन होते हैं। ‘काशी का अस्सी’ ना तो ‘वाटर’ की तरह तीखी टिप्पणी है, ना ही ‘बनारस ए मिस्टीक लव स्टोरी’ की तरह प्रेम कहानी, यह जीवन की दिनचर्या है। निश्चित रूप से जिसे प्रदर्शित करने के लिए पात्रों का भी सहारा लिया गया है, लेकिन सन्नी देओल जैसे स्थापित छवि वाले अभिनेताओं का जिस तरह से डॉ. द्विवेदी ने बनारसीकरण किया है, उसमें शायद ढ़ेर सारे बनारसी पंडित अपनी छवि ढूंढने की कोशिश कर सकते हैं। सुखद है कि ‘मोहल्ला अस्सी’ के फिल्मांकन के लिए जितने उत्साहित डॉ. द्विवेदी स्वयं रहे, उतना ही उत्साहित बनारस स्वयं भी रहा। ‘तीसरी कसम’ के बाद ये शायद पहला अवसर होगा, जब फिल्मकार के साथ कथाकार भी सेट पर उपस्थित देखे गये। वास्तव में डॉ. द्विवेदी की इस कोशिश ने इस भ्रम को पूरी तरह साफ कर डाला कि बिहार और उत्तर प्रदेश में फिल्मों की शूटिंग नहीं हो सकती। अपनी भोजफरी फिल्मों की शूटिंग के लिए बहाने बनाकर गुजरात और महाराष्ट्र भागने वाले फिल्मकारों के लिए डॉ. द्विवेदी ने एक सबक छोड़ा है।


          एक ओर फिल्माकंन के लिए ‘काशी का अस्सी’ जैसी कृति का चुनाव दूसरी ओर काशी और उसके अस्सी के प्रति यह श्रद्धा निश्चित रूप से डॉ. द्विवेदी को हिन्दी सिनेमा में अलग पहचान देती है। ‘मोहल्ला अस्सी’ की प्रतीक्षा रहेगी, बनारस को ही नहीं, पूरे उत्तर भारत को, क्योंकि उत्तर भारत के किसी शहर के किसी मोहल्ले को अपने पूरे वजूद में दिखने का पहला अवसर होगा यह।


          कोइ फिल्मकार अपनी फिल्म को बनारस जैसे किसी ‘ब्रांडेड’ शहर में शूट करने की कोशिश तभी कर सकता है, जब बनारस एक पात्र के रूप में हो। प्रकाश झा हर बार अपना बिहार, मध्यप्रदेश के किसी शहर में बना लेते हैं, बना सकते है लेकिन बनारस में पटना नहीं बना सकते, ना ही पटना में बनारस बना सकते हैं। बनारस जब भी दिखेगा, बनारस में ही दिखेगा। ग्लोबल विलेज में जहां हरेक शहर कि अपनी विशिष्ट पहचान मिटती जा रही है, जहां अपार्टमेंटों ने लोगों के घरों की तरह उनके शहर की निजी पहचान भी समाप्त कर दी है। बनारस का बचा हुआ निजत्व ही है जो डॉ. द्विवेदी जैसे गम्भीर व्यक्ति को अपने हुनर के साथ आने के लिए बाध्य करता है। काश! यही निजत्व पटना ने भी संरक्षित रखा होता तो प्रकाश झा का काम भी भोपाल से नहीं चल पाता।
         

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