रविवार, 26 जून 2011

बॉलीवुड के बाबाओं का विरोध


             


गुरूदत्त, बलराज साहनी, सलील चौधरी, विमल राय से लेकर राजकपूर, दिलीप कुमार तक की पहचान अपनी राजनीतिक सामाजिक समझ के साथ रही है। लेकिन इस समझ के लिए उन्हें ना तो कभी बयान जारी करने पड़े थे, ना ही धरने प्रदर्शन में शामिल होने की जरूरत पड़ी थी। उनकी समझ और सक्रियता उनकी फिल्मों से अभिव्यकत होती थी, निश्चित रूप से जो कहीं न कहीं दर्शकों के जेहन पर स्थार्इ प्रभाव भी छोड़ती थी। यदि बलराज साहनी फिल्म में हैं तो दर्शक निश्चिंत हो जाते थे कि उसमें समाज के प्रति वैज्ञानिक चिंतन अवश्य दिखेगा। उनकी सक्रियता उनके बयानों से नहीं, उनकी फिल्मों से अभिव्यक्त होती थी। हाल के कुछ वर्षों में बॉलीवुड ने कर्इ मामलों में एबाउट टर्न लिया है तो उसमें एक यह भी है। बॉलीवुड की सामाजिक सक्रियता और राजनीतिक समझ अब फिल्मों से नहीं आती, सीधे बयानों से आती है। बीते दशक में हिन्दी सिनेमा के आधार पर देखें तो महेश भटट की पहचान अश्लीलता के सूत्रधार के रूप में की जा सकती है, लेकिन बयानों के आधार पर वे भारत के सबसे सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जाने जा सकते हैं। मुद्दा कोर्इ भी हो चाहे फारबिस गंज में सरकारी जमीन पर अवैध अधिकार को लेकर हुए गोली काण्ड का या फिर डॉ. विनायक सेन की गिरफ्रतारी का महेश भटट के बयान सबसे पहले जारी होते रहे हैं। अदभुत है हिन्दी सिनेमा की यह समझ जो काम वे जानते हैं उसके माध्यम से सामाजिक बुरार्इयों को तरजीह देंगे और जो काम वे नहीं जानते उसके माध्यम से उसे सुधारने की कोशिश करेंगे।

वास्तव में समाचार माध्यमों के बढ़ते ‘पेट’ का भी यह प्रभाव है। अब रोज अधिक से अधिक खबरे चाहिए। सबो को थोड़ा एक्सक्लुसिव। सबसे आसान होता है बॉलीवुड के दुधमुहें बाबाओं से कुछ उगलवा लेना। यदि लग गया तो तीर, ना तो तुक्का। खबर तो बन ही जानी है। जाहिर है इस चलन ने बॉलीवुड के सितारों को भी यह गलतफहमी दे दी कि अब हर मुद्दे पर उनका बोलना आवश्यक है, इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभा दी फेसबुक और ट्वीटर जैसे माध्यमों ने। जहां रोज अपडेट नहीं हुए तो पिछड़े मान लिये जायेंगे। अब पर्यावरण हो या परिवार हर मुद्दे पर उनका मुंह खोलना जरूरी हो जाता है। भले ही वह निरर्थक ही हो। शाहरूख खान जब बोलते हैं कि बाबा रामदेव को वही करना चाहिए, जो वे करना जानते हैं यानि योग। तो शायद वे यह भूल जाते हैं कि यही सलाह उनके समेत बॉलीवुड के तमाम बाबाओं को भी दी जा सकती है। भैया वही करो जो आप जानते हो।

सलमान खान कहते हैं, मैं किसी बाबा रामदेव को नहीं जानता। मैं तीन ही बाबा को जानता हूँ, अपने बाबा, सांर्इ बाबा और संजु बाबा। वाजिब है इतने बड़े देश में सभी के लिए सभी को जानना संभव भी नहीं। इसपर दिलीप साहब का एक मजेदार संस्मरण है, किसी हवार्इ यात्रा में एक बार उनकी नजर आगे बैठे हुए उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला पर पड़ी। दिलीप साहब उनके पास गये और हाथ बढ़ाकर परिचय दिया, मैं दिलीप कुमार। बिड़ला महोदय ने उत्साह से हाथ तो मिलाया, फिर पूछा आप करते क्या हैं? वास्तव में यह अहम् हमारे बॉलीवुड के सितारों में ही है कि उन्हें पूरी दुनियां जानती है। जबकि आज भी आप उत्तरप्रदेश-बिहार के गांवों में चले जाइये तो लोग मनोज तिवारी और खेसारी लाल को ज्यादा जानते हैं बजाय शाहरूख या सलमान के। छत्तीसगंढ़, झारखण्ड या उड़िसा के जनजातिये इलाकों में चले जाइये सिनेमा वे जानते ही नहीं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप किसे जानते हैं, महत्वपूर्ण यह है कि बताने की जरूरत क्या है आप किसे नहीं जानते। वास्तव में यह कहना भी सलमान के अहम् को प्रतिविम्बित करता है कि जिस व्यक्ति को वे नहीं जानते, उसकी कोर्इ सामाजिक औकात नहीं।

बाबा रामदेव का बॉलीवुड से कोर्इ सीधा सरोकार शायद ही कभी रहा, सिवा इसके कि शिल्पा शेटटी और मल्लिका शेरावत जैसी कुछेक अभिनेत्रियां उनके शिविरों में भागीदारी करती रही हैं। शिल्पा तो शायद अपने योग का डीवीडी भी उन्हें समर्पित करने गर्इ थी। लेकिन आज बाबा रामदेव के खिलाफ बॉलीवुड का ऐका वाकर्इ चकित करता है। राम गोपाल वर्मा से लेकर शाहरूख खान तक और शिल्पा शेटटी से लेकर कविता राधेश्याम तक। सभी अपनी समझ से बाबा के खिलाफ बयानबाजी में लगे हैं। कोर्इ रावण कह रहा है तो कोर्इ ठग। उल्लेखनीय है कि बाबा रामदेव का यह विरोध बॉलीवुड से तब आया जब बाबा ने भ्रष्टाचार और काले धन के प्रति मोर्चा खोला। क्या यह स्पष्ट नहीं करता कि बॉलीवुड को परेशानी बाबा रामदेव से नहीं, बाबा रामदेव के मुद्दे से है।

बीते वर्षों में बॉलीवुड पर संकट के कर्इ बार बादल छाये, कभी वह भी समय था जब अंडरवल्र्ड ने बॉलीवुड पर लगभग कब्जा कर लिया था। सितारों की डेट्स से लेकर फिल्म की रिलीज तक वही तय करते थे। कहा जाता है आधे से अधिक फिल्मों में उन्हीं का पैसा लगाया जा रहा था। राकेश रौशन जैसे प्रतिष्ठित फिल्मकार को धमकी ही नहीं मिल रही थी उसे साकार भी किया जा रहा था। लेकिन बॉलीवुड में उस समय भी यह एकता नहीं दिखी थी। हिन्दी सिनेमा को ना तो अपने हित में, ना ही दर्शकों के हित में इस तरह कभी एक होते देखा गया, फिर भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर इतनी बेचैनी चिंतित करती है। क्या वाकर्इ बाबा रामदेव बॉलीवुड के दुखती रग पर तो उंगली नहीं रख दी?

इसमें कोर्इ शक नहीं कि भारत में काले धन के आमदरफ्त की सबसे सुरक्षित जगह बॉलीवुड रही है। चाहे हसन अली का मामला हो या मधुकोड़ा का या फिर बिहार के पशुपालन घोटाले का। बॉलीवुड से हमेशा इनके स्वागत की खबरें आती रही हैं। बॉलीवुड ने कभी पैसे के रंग को तरजीह नहीं दी। आश्चर्य नहीं कि वित्तिय मामलों में शायद सबसे अराजक इंडस्ट्री है बॉलीवुड। कुछ औद्योगिक कम्पनियों और बैंकों की भागीदारी से उम्मीद की गर्इ थी कि स्थिति नियंत्रित होगी, लेकिन भला कौन काले धन के समुद्र को नियंत्रित करना चाहेगा। सितारों की दर अखबारों को पता होती है, उनके प्रशंसको पता होती है, लेकिन शायद ही आयकर विभाग जानकारी हासिल कर पाता है की किस फिल्म में किस सितारे को कितना मिला। अधिकांश लेन-देन अभी भी बॉलीवुड का जबानी ही होता है। आश्चर्य नहीं कि काले धन और विदेश में निवेश के मुद्दे ने जब नेताओं की नींद छिनी तो बॉलीवुड के बाबाओं के भी होश उड़ गए। सवाल तो है ही कि आखिर वह कितनी वाजिब कमार्इ है जिसकी खपत देश में नहीं हो सकती और उसे खर्च करने के लिए दुबर्इ और शारजाह में संपत्ति खरीदनी पड़ती है।

बाबा रामदेव ने अनशन तोड़ दिया। बॉलीवुड के बाबा लोग भी संतोष की सांस ले सकते हैं। लेकिन बात निकली है तो दूर तक जायेगी। समय है काले धन के मुद्दे के विरोध में अपनी उर्जा गंवाने के बजाय बॉलीवुड अपने घर को साफ कर लेने की कोशिश करे।

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