गुरुवार, 15 नवंबर 2012

भट्ट जी,सेक्स नहीं,समाज पसंद है दर्शकों को

हिन्दी सिनेमा के स्वनाम धन्य बुद्धिजीवी महेश भट्ट मानते हैं कि भारतीय दर्शक सेक्सुअल फिल्मों को अधिक तरजीह देते हैं इसलिए पारिवारिक फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं होती हैं।  भारतीय दर्शकों के मनोविज्ञान का विश्लेषण करते हुए वे यह भी दावा करते हैं कि भारतीय दर्शकों को फिल्मों में अगर सेक्स परोसा जाए तो वे ज़्यादा संतुष्ट होते हैं, हालांकि भारतीय दर्शक कभी भी यह मानने को तैयार नहीं हैं। उनका मानना है कि कामुकता भारत में एक बीमारी की तरह फैल रही है। महेश भट्ट ने हालिया वर्षों में अपने सामाजिक बयानों से चाहे जो छवि बनायी हो, परदे पर मर्डर, ‘राज और जिस्म सीरीज की फिल्मों से सेक्स आधारित फिल्म बनाने वाले फिल्मकार की छवि बनाने से कतई संकोच नहीं किया। जाहिर है अपनी इस तरह के बयानों से समय समय पर वे सेक्स परोसने की अपनी विद्रुप कोशिशों को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं। महेश भट्ट कहते हैं कि भारतीय दर्शक सेक्स के भूखे होते हैं, लेकिन बाहर से दिखाते नहीं है और अगर उन्हें पारिवारिक फिल्में परोसी जाए, तो वे फ्लॉप हो जाती हैं, क्योंकि दर्शकों को जिस्म, मर्डर, राज टू जैसी बोल्ड फिल्में  ही भाती हैं।
महेश भट्ट इतने पर ही बस नहीं करते वे आगे कहते हैं,  इस ज़माने के लोगों का टेस्ट बदल चुका है। वे बात करने से ज़रुर कतराते हैं। पर देखने में बिलकुल नहीं शर्माते। अब लोगों को फिल्म में कहानी के साथ-साथ सेक्स का तड़का चाहिए। पोर्न फिल्मों की अभिनेत्री सनी लियोनी के लिए हिन्दी सिनेमा में जगह बनाने की कोशिशों पर महेश भट्ट कहते हैं कि जब जिस्म 2’ के लिए सन्नी लियोन को लेने की बात हुई थी, तब काफी बवाल हुआ था। लेकिन 6 करोड़ की फिल्म ने 36 करोड़ का बिजनेस किया, जिससे यह साबित होता है कि भारतीयों को क्या पसंद है। महेश भट्ट की मजबूरी पर वारि वारि जाने का मन करता है जब वे मजबूरी जाहिर करते हुए कहते हैं कि आज के लोगों को सेक्स का तड़का चाहिए इसलिए सेक्स वाली फिल्में बनानी पड़ती है। हिन्दी सिनेमा में इस मान्यता को प्रचारित करने वाले महेश भट्ट अकेले नहीं हैं, अभी तक एक भी सफल फिल्म नहीं दे सकने वाली अभिनेत्री नेहा धूपिया ने हाल में एकबार फिर कहा कि हिन्दी सिनेमा में दो ही चीजें बिकती हैं, सेक्स और शाहरुख। इसी तरह बीते तीन वर्षों से ट्वीटर और विभिन्न सोशल साइट्स पर अपनी नग्न तस्वीरें परोस कर पहचान बनाने की कोशिश में जुटी पूनम पांडेय अपनी पहली सी ग्रेड फिल्म नशा को न्यायोचित ठहराते हुए कहती हैं यहां के लोग छुप-छुप कर सेक्स देखते हैं। इसलिए उन्होंने एडल्ट फिल्म साइन की है।
महेश भट्ट अपनी स्थापना का आधार इस बात को मानते हैं कि उनकी 6 करोड में बनी सनी लियोनी अभिनीत जिस्म 2 ने 36 करोड की कमाई की। 36 करोड मतलब 36 लाख दर्शक। यदि महेश भट्ट के ही गणित से चलें और 36 करोड को एक हफ्ते का कमाई मानें, तो 100 रुपये की टिकट दर से देश भर में एक दिन में यह फिल्म मात्र 50 हजार लोगों ने देखी। सवा अरब के मुल्क में 50 हजार दर्शकों के आधार पर क्या किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है, लेकिन महेश भट्ट जैसे कथित विद्वानों की यही खासियत है वे निर्णय पर पहले पहुच जाते हैं, तर्क बाद में गढ लेते हैं। हिदी सिनेमा के दर्शक फिल्मकारों की यह मनमानी झेलते रहे हैं। मनमोहन देसाई से लेकर सुभाष घई और डेविड धवन तक अपनी हर घटिया फिल्मों को इस तर्क के साथ ही परोसते रहे कि वे वही बनाते हैं जो दर्शक चाहते हैं, अफसोस कि आज तक जब हिन्दी सिनेमा अपनी शताब्दी मना रही है दर्शकों की पसंद जानने का कोई मैकनिज्म विकसित नहीं कर पाई। फिल्म की सफलता को दर्शकों की पसंद से जोड कर देख लिया जाता है अति तो तब हो जाती है जब आम तौर पर इसे भारत की पसंद भी मान ली जाती है। भाई मेरे, जिस मुल्क में दर्शकों की तदाद ही एक प्रतिशत हो, वहां किसी एक फिल्म के कुछ दर्शकों के देख भर लेने से कैसे उस आधार पर आम भारतीय का स्वभाव निर्धारित किया जा सकता है।
 इतना ही नहीं,यदि महेश भट्टों की तरह सिर्फ सिनेमा की सफलता को ही आधार मान कर चलें तब भी हिन्दी सिनेमा की सफलता का इतिहास दर्शकों के कुछ और ही स्वभाव को रेखांकित करता है। इतिहास में न भी जायें और खुली अर्थ व्यवस्था के बाद दर्शकों की बदलती आदतों और स्वभाव को आधार बनाएं, तब भी लगान और गदर- एक प्रेम कथा की अभूतपूर्व सफलता को भुलाया नहीं जा सकता।वास्तव में चाहे और जो कुछ हो सेक्स हिन्दी सिनेमा में कभी लोकप्रियता की वजह नहीं रही। जब भी सेक्स को केन्द्र में रख कर फिल्में बनी निःसंकोच उसे सी ग्रेड का दर्जा दे कर एक खास दर्शक वर्ग के लिए छोड दिया गया। मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, कुछ कुछ होता है, दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे, कभी खुशी कभी गम की सफलता हो सकता है महेश भट्ट के लिए बीते दिनों की बात हो गई हो, सलमान खान की हालिया सफलता को कैसे भूला जा सकता है, जिसमें सेक्स तो क्या नायिका के करीब होने के दृश्य भी मुश्किल से मिलते हैं।दबंग भदेस भले ही मानी जा सकती है, मलायिका के मुन्नी बदनाम के बावजूद उसकी सफलता को सेक्स से जोडकर नहीं देखा जा सकता।
सलमान की फिल्में वांटेड, रेडी, बाडीगार्ड और एक था टाइग की चाहे हम जितनी आलोचना कर लें, लेकिन सेक्स प्रदर्शन के मामले में सलमान के अति सचेत रुख से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता। बेडसीन की तो बात ही दूर है, सामान्य माने जाने चुम्बन दृश्य भी सलमान की फिल्मों में नहीं देखे जा सकते, यह सलमान के दर्शकों को भी पता है, तब भी सलमान का मतलब 100 करोड की गारंटी है, जो नग्नता की तमाम सीमाएं पार करने के बाद भी हेट स्टोरी नहीं दे सकती। महेश भट्ट 36 करोड की कमाई कर भले ही सेक्स की अपनी सफलता से खुश हो रहे हों ,सच यही है कि भारत में 100 करोड का व्यवसाय करने की क्षमता उन्हीं फिल्मों में रही हैं जिन्होंने सेक्स से परहेज रखा है।
आश्चर्य कि हिन्दी सिनेमा में एक भरी पूरी जिंदगी गुजार देने के बाद भी महेश भट्ट यह नहीं समझ सके कि भारतीय दर्शकों की पहली पसंद सेक्स नहीं, समाज है, समाज की कहानियां हैं। रोहित शेट्टी और प्रियदर्शन की फिल्मों की सफलता पर गौर किया जाय तो हास्य जरुर दिखता है, लेकिन उसके साथ ही दिखती है पात्रों की भीड भी। ढेर सारे पात्र और उनकी जद्दोजहद के बीच से निकलते हास्य के पल। राजेन्द्र कुमार और राजेश खन्ना की कथित सामाजिक फिल्में भले ही आज नहीं दिखाई दे रही हों, लेकिन दबंग, रेडी, सिंघम, बोलबचन और अग्निपथ में जो दिखता है वह समाज से परे भी नहीं दिखता। महेश भट्ट जैसे लोगों को समझने में सहुलियत होगी यदि बीते वर्षों में 100 करोड का आंकडा पार करने वाली कुछ फिल्मों पर एक उडती नजर भी डाल लेंगे, गजनी, गोलमाल, रा वन, डान2, राउडी राठौड, जोधा अकबर, माइ नेम इज खान, सिंह इज किंग....  आखिर इनमें से किसकी कमाई का श्रेय सेक्स को दिया जा सकता है, इसके बरक्स यदि सेक्स की सफलता की बात करें तो शायद ही कोई फिल्म 20 करोड की भी कमाई कर सकी हो। महेश भट्ट जी 6 करोड से 36 करोड की कमाई कर आप खुश हों,अच्छी बात है, इस कमाई से उत्साहित होकर आप सनी के साथ पोर्न फिल्म के धंधे में लग जाएं और अच्छी बात, लेकिन कृपा कर  उसे दर्शकों के स्वभाव से जोडने की कोशिश न करें, आप मान लें कि आपका विकृत मस्तिस्क अब जख्म और सारांश जैसी फिल्में नहीं सोच सकता, दर्शकों को दोष न दें, वे अभी भी तारे जमीन पर और 3 इडियट्स देखने के लिए पलकें बिछाए है।          

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

हालीवुड का पाला छूने की होड

टाइम की आवरण कथा से जब भारत के वर्तमान और कथित भावी प्रधानमंत्री का कार्यक्षमता तय हो रही हो तो ,क्या आश्चर्य कि भारतीय फिल्मों  के अभिनेता भी अपनी प्रसिद्धि की उडान में हालीवुड का पंख लगाने की कोशिश करने में जी जान से जुटे दिख रहे हैं। परसिस खंबाटा, कबीर बेदी से लेकर आएशा धारकार, इरफान खान और मल्लिका शेरावत की हालीवुड की यह दौड तो समझ में आती है कि काम की तलाश में लोग चांद पर जा सकते हैं तो हालीवुड क्यों नहीं । लेकिन चिंता तब होती है  जब हिन्दी सिनेमा से सब  कुछ हासिल कर चुके अभिनेता भी हालीवुड की दर पर किसी स्ट्रगलर की तरह ठोकरें खाते दिखते हैं। आखिर हालीवुड के प्रति यह तडप क्यों। दुनिया भर में अमिताभ बच्चन भारतीय सिनेमा के प्रतीक के रुप में स्वाकार्य रहे हैं,शायद इसीलिए जब भारतीय सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय पहचान देने के उद्देश्य से आइफा की शुरुआत हुई तो उसके ब्रांड अम्बेस्डर के रुप में अमिताभ बच्चन का ही चुनाव किया गया। लेकिन अभी तक हिन्दी सिनेमा के बालीवुड संबोधन पर आपत्ति करने और हिन्दी सिनेमा के रुप में  स्वतंत्र पहचान की वकालत करने वाले अमिताभ बच्चन भी जब हालीवुड के प्रभाव से  आतंकित होते दिखते हैं तो सहज ही समझा जा सकता है, अंधेरा कितना घना है। उम्र और कैरियर के इस पडाव पर अमिताभ बच्चन वार्नर ब्रदर के बैनर तले बन रही बेज लुरमेन की फिल्म 'दि ग्रेट गेट्सबाय' से हालीवुड में कदम रखेंगे। रोमांटिक पटकथा की इस फिल्म में अमिताभ मेयर क़ा रोल निभाएंगे। फिल्म के अभिनेता टाइटेनिक फिल्म के हीरो लियोनार्डो डि केप्रियो हैं और हीरोइन स्कॉटिश-आस्ट्रेलियाई हीरोइन इस्ला फिशर हैं। कहा जा रहा है अमिताभ इस फिल्म में कुछ सेकेंड के लिए दिखेंगे। क्या यह माना जा सकता है कि पहचान की भूख ने उन्हें इस निर्णय को बाध्य किया होगा।
वास्तव में आर्थिक उदारीकरण कं साथ आए ग्लोबल विलेज की परिकल्पना ने भारतीय मानस को इस कदर कंडीशंड कर दिया कि हमें अपने ही बारे में दी गई जानकारी पर तब तक विश्वास नहीं होता जब तक वह पश्चिम के दरवाजे से नहीं आए। पीपली लाइव तब अचानक महत्वपूर्ण हो जाती है जब वह बर्लिन होकर आती है। गैंग्स आफ वासेपुर की कलात्मकता ढूंढने हम शीर्षासन तक को तैयार हो जाते हैं इसलिए कि वह वाया कांस हम तक पहुंचती है। यह हमारे पश्चिम प्रेम की इंतहा ही है कि हरेक वर्ष यह जानते हुए भी कि आस्कर से हम कितने दूर हैं, जनवरी से ही स्यापा शुरु हो जाता है। यह अमिताभ बच्चन ही थे, जिन्होंने भारतीय सिनेमा के अलग पहचान की वकालत करते हुए आस्कर को गैरजरुरी बताया था। आज सिनेमा ही नहीं शिक्षा विज्ञान समाज स्वभाव सभी के लिए हमें पश्चम की ओर देखने के लिए बाध्य कर दिया गया है। पश्चिम से प्रमाण पत्र पाकर हमें पूर्णता का बोध होता है।जाहिर है हालीवुड की ओर लपकती कलाकारों के इस नए खेप की तुलना काम की तलाश में हालीवुड जाने वाले कलाकारों की परंपरा से नहीं की जा सकती।
भारत मे सिनेमा बनाना अंग्रजों के सान्निध्य में सीखा। फाल्के सिनेमा सीखने हालीवुड नहीं लंदन ही गए थे। उस दौर में अंग्रेज सरकार हालीवुड के सिनेमा के खिलाफ खडी थी,उसे लगता था जो बाद में सही भी साबित हुआ कि हालीवुड उसकी फिल्मों को खत्म कर देगा। वावजूद इसके भारत ने हालीवुड में 1930 में ही दस्तक दे दी। फिल्म थी एलीफेन्ट ब्वाय,और उसमें महावत की भूमिका निभाई थी साबू दस्तगीर ने। समय समय पर आइ एस जौहर ,परसिस खंबाटा जैसे कलाकारों ने भी हालीवुड में पहचान बनाने की कोशिश की। लेकिन वास्तव में हालीवुड में यदि मुकम्मल तौर पर किसी ने भारतीय पहचान बनायी तो वे थे कबीर बेदी।  कीर बेदी की पहला हालीवुड फिल्म सांदोकन थी, कबीर सांदोकन की केंद्रिय भूमिका में थे। इसमें कबीर बेदी की मदद की उनके लम्बे कद और आकर्षक व्यक्तित्व ने भी। बाद में कबीर ने आक्टोपसी और जेम्सबांड की फिल्म में भी बडी भूमिका निभाई। कबीर के हालीवुड जाने और हालिया होड में एक बडा फर्क है कि कबीर हालीवुड के होकर रह गए थे जबकि आज हालीवुड का पाला छूकर भागने की होड है। कोशिश सिर्फ हालीवुड रिटर्न का तगमा लेने की की जाती है।ताकि बालीवुड में अपनी कीमत बढायी जा सके।इसीलिए आज बगैर किसी शर्त के भारतीय कलाकार हालीवुड फिल्मों में आने की कोशिश में लगे हैं।
शोर था कि इरफान खान स्पाइडरमैन 4 में मुख्य खलनायक बन कर आ रहे हैं ,फिल्म आयी तो पता चला परदे पर कुल जमा 10 मिनट इरफान दिखते हैं। हालांकि द वारियर में इरफान को अच्छी खासी भूमिका मिली थी, वास्तव में हालीवुड भारतीय कलाकारों पर तभी उदार होता है जब भारतीय या एशियाई चेहरे शामिल करना उसकी बाध्यता हो। अनिल कपूर लगातार हालीवुड के दरवाजे खटखटाते रहे तो उन्हें मिशन इंपसाबिल में 15 मिनट की भूमिका मिली। मल्लिका बराक ओबामा से जरुर मिल आयी हो लेकिन अभी तक हालीवुड उस पर पांच दस मिनट की ज्यादा की भूमिका के लिए विश्वास नहीं कर रहा। ऐश्वर्य राय ने ब्राइड एंड प्रिजूडिस’, ‘मिस्ट्रेस ऑफ स्पाइसेज’, ‘प्रोवोक्ड’, ‘द लास्ट लीजनऔर पिंक पैंथर-2’ जैसी फिल्मों में काम किया। लेकिन गौर करें तो इनमें से अधिकांश फिल्में भारतीय मूल के निर्माताओं द्वारा ,भारतीय पृष्ठभूमि पर बनायी गई थी।बानजूद इसके पिंक पैंथर में ऐश की भूमिका काफी छोटी रही ।
हिन्दी फिल्मों में नकारात्मक चरित्रों की मांग घटने के बाद हिन्दी सिनेमा के बैडमैन गुलशन ग्रोवर ने भी हालीवुड की कई फिल्मों में कांम किया,लेकिन यह भी यच है कि आज भी हालीवुड किसी न्यू कमर से ज्यादा उनकी पहचान नहीं मानी जाती। हालीवुड ने ओमपुरी,नसीरुद्दीन शाह,राहुल बोस जैसे कलाकारों को भी अवसर दिए, सईद जाफरी तो कई फिल्मों में आए, लेकिन अपनी जरुरतों पर। न तो ये हालीवुड के हो सके न ही हालीवुड इन्हें अपना सकी। अभिनय और काम के लिए हालीवुड जाने का अर्थ तो समझा जा सकता है।मुश्किल तब होती है जब मात्र अपनी ब्रांडिंग में इजाफा के लिए भारतीय सितारे हालीवुड की दौर लगाते हैं ।  
अभी बिपाशा बसु और अभय देओल की सिंग्युलेरिटी भी रिलीज के लिए तैयार हैं। शबाना आजमी भी एक हॉलीवुड फिल्म में काम कर रही हैं। कैथरीन बिग्लो की जीरो डार्क 30’ में वह ओसामा बिन लादेन की पहली बीवी का किरदार निभा रही हैं। यह फिल्म ओसामा के अंतिम समय की पृष्ठभूमि पर आधारित है। सोनम कूपर  भी  हॉलीवुड की दो फिल्मों 30 मिनट्स ऑर लेस में काम कर रही है। बेन स्टिलर की पिज्जा डिलीवरी ड्राइवर से जुड़ी इस एडवेंचरस कॉमेडी में अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की भरमार है,इसमें सोनम को झूंढ पाना वाकई दिलचस्प होगा। रूबेन फ्लिशर निर्देशित इस फिल्म में मुख्य भूमिकाएं जेसी आइजनबर्ग, डेनी मैकब्राइड, फ्रेड वार्ड, अजीज अंसारी, माइकेल पीना, अमांडा राइट, एलेक्स रश आदि की है। इसके अलावा सोनम हॉलीवुड निर्माता एडुअडरे पोंटी की फिल्म 'डास' भी कर रही हैं।
निश्चय ही भारतीय कलाकारों में हालीवुड का पाला छूने की यह होड थमने वाली नहीं है।क्योंकि हिन्दी सिनेमा कभी हमें चुनौती नहीं दे सकती। सिनेमा का अंतिम लक्ष्य हमें प्रभावित करना है,यदि हालीवुड की ब्रांडिंग से हम प्रभावित होते हैं तो भला बालीवुड पीछे क्यों हटेगी।

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

आदर्श नायक के प्रतिरुप रहे राजेश खन्ना




अपनी उम्र 9 साल की रही होगी जब राजेश खन्ना की अपना देश रीलिज हुई थी। इस समय सिनेमा यूं ही नहीं देखा जाता था,सिनेमा देखने के लिए कारणों की तलाश की जाती थी, फिर उसके लिए बकायदा घर से इजाजत लेनी पडती थी। ये अलग बात है कि इजाजत नहीं मिलने पर भी जान जोखिम में डाल कर लोग अपने पसंद की फिल्में देख ही लिया करते थे। सिनेमा देखना आसान उस समय, इसलिए भी नहीं होता था कि मध्यवर्ग के पास इतने पैसे ही नहीं होते थे कि उसे उदारता से खर्च कर सके।ऐसे में याद है मुझे, गांव से आए चाचा ने मां से मुझे साथ लेकर अपना देश दिखाने की इजाजत मांगी थी। चाचा ने न तो उसके पहले कोई फिल्म मुझे साथ लेकर देखी,न ही उसके बाद। अपना देश देखने और भतीजे को दिखाने की वजह थी, फिल्म का गीत ,रोना कभी नहीं रोना,चाहे टूट जाये कोई खिलौना.....।अपना देश में राजेश खन्ना चाचा बने थे जो अपने भतीजे को कंधे पर बिठा ये गीत गाते हैँ।फिल्म में भी भतीजे की उम्र लगभग मेरे बराबर की ही होगी। आज मैं अहसास कर सकता हूं कि परदे पर चाचा भतीजे के आदर्श दिखते संबंधों में शायद मेरे चाचा अपने संबंधों को ढूंढने की कोशिश कर रहे होंगे। आश्चर्य कि आज भी जब अपना देश का वह गीत मेरे सामने आता है चाचा की याद आ जाती है। वास्तव में यही थी राजेश खन्ना की सबसे बडी ताकत जिसने हिन्दी सिनेमा के नायकों की परिभाषा बदल कर रख दी। 1969 मे आयी आराधना से लेकर 1974 में आयी रोटी तक राजेश खन्ना की फिल्मों में जो एक बात कामन रही वह था रिश्ते, परिवार और समाज ,बाकी सारे तत्व बस इसे सपोर्ट करते दिखते थे।
फिल्मफेयर और यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में शामिल होकर 1965 में राजेश खन्ना ने हिन्दी सिनेमा में दस्तक दी। प्रतियोगिता की शर्तों के अनुरुप राजेश खन्ना को बतौर नायक दो फिल्मों के लिए साइन भी कर लिया गया।पहली फिल्म थी राज, नायिका के रुप में बबिता थी।फिल्म में इनकी दोहरी भूमिका थी,लेकिन जब शुरुआत हुई तो रवीन्द्र दवे के निर्देशन में बनने वाली यह फिल्म पीछे रह गई और पहली फिल्म के रुप में आखिरी खत रीलिज हो गई। चेतन आनंद के निर्देशन में बनने वाली यह फिल्म उनकी प्रतिष्ठा के अनुरुप आस्कर तक पहुंच गई। लेकिन राजेश खन्ना की हैसियत टेलेन्ट हंट जीत कर आए एक प्रतियोगी से आगे नहीं बढ पायी।हालांकि उस समय भी उन्हे आशा पारेख जैसी अभिनेत्री के साथ अपने आपको प्रूव करने के लिए बहारों के सपने जैसी फिल्में मिलीं। लेकिन दर्शकों का कसौटी पर खरा उतरने के लिए उन्हें अभी बहुत कुछ करना था।मुकाबला भी आसान नहीं था,सामने थे जुबली कुमार कहे जाने वाले राजेन्द्र कुमार,राज कपूर भले ही अभिनय से दूर हो गए थे,देवआनंद का आकर्षण बरकरार था, दिलीप कुमार का परदे पर आना उस समय भी चौंकाता था, शम्मी कपूर का अपना अलग दर्शक वर्ग था,राजेश खन्ना के सामने चुनौती कुछ बेहतर देने की नहीं थी, क्यों कि उनके सामने सभी अपनी अपनी विशेषताओं के चरम थे,चुनौती कुछ अलग देने की थी।
अवसर मिला शक्ति सामंत की आराधना से।एक पारिवारिक संवेदनशील कहानी,जिसमें युवतम का उत्साह भी था और परंपरा की गहनता भी।संवेदना का शीर्ष भी था और कथा की रोचकता भी। बाप और बेटे की दोहरी भूमिका में थे राजेश खन्ना। हालांकि परदे पर दोनों कभी साथ नहीं दिखे, लेकिन परदे पर रिश्ते का एक नया अहसास आराधना में दिखा। फिल्म में प्रेमकथा गौण थी, पारिवारिक संवेदना प्रबल थी। दर्शकों ने बार बार यह फिल्म देखी,आश्चर्य नहीं कि आज भी यह फिल्म उतने ही प्यार और सम्मान के साथ देखी जाती है। शायद मानवीय संवेदनाएं कहीं न कहीं हमारे दिलों में इतने गहरे असर बनाए होती हैं कि उन्हे निकाल बाहर करना आसान नहीं होता,जरा सा भी अनुकूलता देख वे उमड पडती हैं।
आराधना में राजेश खन्ना ने एयरफोर्स पायलट का निभाया तो सिर्फ किरदार ही था, लेकिन उनके कैरियर ने उडान वास्तविक भरी।आराधना की सफलता के झोंके पर इत्तेफाक, डोली और बंधन जैसी फिल्में भी एक के बाद सफल होती चली गई, लेकिन दो रास्ते ने सफलता की मिसाल बनायी।गुरुदत्त और देवआनंद के साथ काम कर चुके राज खोसला की यह फिल्म समय के साथ बदलते संयुक्त परिवार के जद्दोजहद को रेखांकित करती थी। तीन भाईयों ,बडे भाई के त्याग, मंझले के स्वार्थ और छोटे भाई के परिवार के प्रति स्नेह और सम्मान को दर्शाती इस फिल्म में बलराज साहनी ने बडे भाई की भूमिका निभाई थी,राजेश खन्ना छोटे भाई की भुमिका में थे। एक ओर कालेज में  ये रेशमी जुल्फें,ये शरबती आंखे... गाने वाला बिंदास नौजवान दूसरी ओर परिवार को संकट के दौर में संभालने वाले जवाबदेह भाई की भूमिका से शायद हर कोई ने रिलेट करने की कोशिश की।दो रास्ते में राजेश खन्ना हल्की दाढियों में दिखे,जो जाहिर है उनके व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं था।वास्तव में राजेश खन्ना ने यह दाढी यश चोपडा के सस्पेंश थ्रिलर इत्तेफाक के लिए बढायी थी, कहते हैं जब राज खोसला के सामने राजेश के लुक पर सवाल उठाया गया तो उन्होंने कहा,दर्शकों को दाढियां देखने का समय ही मैं नहीं दूंगा।वाकई फिल्म अपने समय की ही बडी हिट नहीं हुई ,आज भी पारिवारिक फिल्मों का बात आती है तो सबसे पहले याद दो रास्ते की ही आती है।
वास्तव में कोई भी कलाकार मेहनत कर परदे पर अभिनय के अवसर तो पा सकता है, सफलता कभी उसके अकेले की उपलब्धि नहीं होती।इसमें महत्वपूर्ण योगदान समय, समाज और परिस्थितियों का भी रहता है।1975 में एंग्री यंगमैन के रुप में यदि अमिताभ बच्चन का तूफान खडा होता है तो इसलिए नहीं कि अमिताभ ने कोई चमत्कार कर दिया था,इसलिए कि आपात्काल के निराशाजनक माहौल में वह चरित्र सुकून दे रहा था जो सारे नियमों और नियंत्रणों से परे समाज से लडकर जीत हासिल करता है। अमिताभ की फिल्मों में मां जरुर दिखती थी, न तो परिवार दिखता था नही परिवार का अनुशासन। अमिताभ शराब भी पीते दिखते कोठे पर भी जाते, वे समाज को चुनौती देते दिखते थे। राजेश खन्ना ठीक इसके विपरीत सामाजिक पारिवारिक अनुशासन से बद्ध दिखते थे। कटी पतंग में वे विधवा से विवाह भी करते हैं तो सबों को सहमत कर ।सच्चा झूठा, दुश्मन,हाथी मेरे साथी जैसी फिल्मों में भी वे अपने विरोधियों से अपने हाथों बदला नहीं लेते,कानून की मदद लेते हैं। वास्तव में राजेश खन्ना का नायकत्व परिवार, समाज और पारंपरिक नैतिक अनुशासन का प्रतीक था। राजेश खन्ना के कालखंड को स्मरण करने में सहुलियत होगी यदि उसे 1971 के बांग्ला देश के उदय के पूर्व और पश्चात से जोड कर देखें।यह भारतीय राजनीति का वह समय था जब अटल बिहारी वाजपेयी भी इंदिता गांधी को दुर्गा कह रहे थे। आखिर कोई तो कारण होगा कि हिन्दी सिनेमा के इस ध्रुवतारे की चमक 1969 ये 1974 तक ही बरकरार रह पाती है।इसका उत्तर जितना राजेश खन्ना के पास है उतना ही समय के पास भी।
राजेश खन्ना क्या कर सकते थे,यदि उन्हें 74 के बाद रोटी, महाचोर, बंडलबाज, छैला बाबू, चलता पूर्जा जैसी फिल्में मिलने लगी थी ,जिसका चरम बाद में आज का एम एल ए, फिर वही रात, रेड रोज और अंततः वफा जैसी फिल्म में दिखा। राजेश खन्ना इसके लिए बने ही नहीं थे। सच्चा झूठा में भले और बुरे की दोहरी भूमिका निभाते हुए जब राजेश खन्ना अपना ही इलाज कर जाते डाक्टर को गोली मार देने का इशारा करते हैं तो विश्वास ही नहीं होता, राजेश खन्ना ऐसा कर सकते हैं। एक हद तक माना जा सकता है कि राजेश खन्ना की लोकप्रियता में उनका अदाओं की भी बडी भूमिका थी,पलकें झपकाना ,गर्दन को हल्का सा खम देना उनकी विशेषता थी,लेकिन वास्तव मे यदि राजेश खन्ना लोकप्रिय थे तो उसकी वजह थी उनके निभाए चरित्रों की पारिवारिक मूल्यों में आस्था।आराधना,दो रास्ते,बंधन,सच्चा झूठा,सफर,कटी पतंग,आनंद,आन मिलो सजना, हाथी मेरे साथी, बावर्ची,अनुराग आप कोई भी फिल्म याद करें, राजेश खन्ना भारतीय पारिवारिक मूल्यों के प्रतीक के रुप में दिखेंगे। राजेश खन्ना के इस रुप की स्वीकार्यता का यह कमाल था कि वे जब भी दर्शकों के सामने इस रुप में आए दर्शकों ने उन्हें सर आंखों पर बिठाया, चाहे थोडी सी वेवफाई हो या अवतार। वास्तव में परदे पर राजेश खन्ना वे दिखते थे जो वास्तविक जीवन में हम नहीं थे, इसीलिए उनकी उपस्थिती सुकून देती थी,उनमें हमें अपना आदर्श भाई,आदर्श प्रेमी,आदर्श बेटा,आदर्श दोस्त दिखता था। वह इतना सहृदय था कि अपने, अपने परिवार का ही नहीं जानवरों का भी ख्याल रखता था।
दुश्मन राजेश खन्ना की बडी हिट मे शुमार की जाती है। उस फिल्म में राजेश खन्ना ट्रक ड्राइवर बने थे,जिसे एक दुर्घटना के बाद सजा दी जाती है कि वह मृतक के गांव में उनके परिवार के साथ रह कर उसका कर्तव्य पालन करे। राजेश खन्ना गांव जाकर उसके बूढे मां बाप की देखभाल करता है,बहन की शादी करवा देता है, उसकी पत्नी और बच्चों का ख्याल रखता है,और इसके बाद गांव वालों को सूदखोर महाजन से मुक्ति भी दिलाता है।राजेश खन्ना की फिल्मों को याद करें तो उनकी अधिकांश फिल्मों में नायक का संघर्ष व्यक्तिगत हित का नहीं रहता। अपना देश में भले ही बात भाई की हत्या से शुरु होती है लेकिन अंत तक वह समाज का ब्लैक मार्केटियों के खिलाफ सामूहिक आंदोलन में तब्दील हो जाती है।
समय के साथ जैसे जैसे समाज से सामूहिकता की भावना लोप होती गई,राजेश खन्ना की भूमिकाएं हमारे लिए अप्रसींगिक होती गई।राजेश खन्ना के साथ यह मुश्किल जरुर रही कि समय के बदलाव को वे न तो पहचान सके, न ही उससे भिडने की हिम्मत जुटा सके। यह हिम्मत उन्हें जहां से मिल सकती थी,उसे भी उन्होंने गंवा दिया था।अफसोस परदे पर परिवार के आदर्श प्रतीक रहे राजेश खन्ना,अपने ही परिवार को सहेज कर नहीं रख सके।राजेश खन्ना के निभाए पात्र गवाह रहेंगे, यदि परिवार का साथ उन्हें मिल पाता तो शायद काका के और कई रुप हम देख पाते।