सोमवार, 19 जून 2023

अपनी कहानी देखती आंखें

 


मेरा नाम जोकर बनाने में राजकपूर ने अपनी सारी पूंजी लगा दी थी,यहां तक कि कहते हैं पत्नी के जेवर और अपनी प्रतिष्ठा के प्रतीक आर के स्टूडियो को भी गिरवी रख दिया था।समय से आगे की भव्य और लगभग सवा चार घंटे लंबी यह फिल्म बुरी तरह फ्लाप हो गई थी।राजकपूर को लग रहा था कि सबकुछ हाथों से निकल गया,तब ख्वाजा अहमद अब्बास उनके पास अमीर उद्योगपति के बेटे और मछुआरे की बेटी की युवा प्रेमकथा लेकर आए। भला राजेश खन्ना और अमिताभ बच्च्न के 75 के उस दौर में युवा प्रेमकथा का जोखिम कौन लेना चाहता, लेकिन राजकपूर तो राजकपूर थे,उन्होंने कहानी में बस एक छोटा सा परिवर्तन सुझाया कि नायक नायिका के मौत के बजाय उसे मिलवा दिया जाय। और फिर जो हुआ वह इतिहास में दर्ज है।बाबी किंवंदति बन गई। बाबी से लेकर स्टूडेंट आफ द ईयर और फिर प्यार का पंचनामा तक हिंदी सिनेमा के लिए युवा प्रेमकथा सफलता का सर्वमान्य फार्मूला बन गई।कहानियां बदलती रही,ट्रीटमेंट बदलते रहे,युवा बरकरार रहे।

सच यही है कि जब भी हिंदी सिनेमा को सफलता की तलब हुई,वह युवाओं के  ही शरण में गई। राजेन्द्र कुमार को अपने बेटे कुमार गौरव को लांच करना हो,या धर्मेन्द्र को सनी देओल को, राकेश रोशन को ऋतिक रोशन को,या फिर ताराचंद बडजात्या को अमेरिका से सिनेमा पढकर लौटे बेटे सूरज बडजात्या को, युवा प्रेम की कहानियों ने हिंदी सिनेमा में इनकी राह सुगम बनायी। लव स्टोरी, बेताब, कहो न प्यार है, मैंने प्यार किया जैसी न जाने कितनी ही फिल्में अपने अपने समय में अपने अपने तरीके से युवाओं से कनेक्ट कर उन्हें सिनेमाघरों तक लाती रही। प्रेमकथाओं से परे भी देखें तो सनी देओल की अर्जुन जैसी फिल्मों में युवाओं की उपस्थिति एक व्यापक दर्शक वर्ग से संवाद करने में सफल रही। आश्चर्य नहीं कि कभी समय था जब युवा हिंदी सिनेमा के सबसे विश्वसनीय दर्शक थे। टेलीविजन के दौर में भी जब मध्यवर्ग के दर्शक,खास कर महिलाएं सिनेमाघरों से दूर हुई,युवाओं ने सिनेमा घरों का साथ नही छोडा।

सिनेमा के प्रति युवाओं की दिवानगी हम तब तक नहीं समझ सकते,जब तक सिंगल थिएटर के उस दौर को याद नहीं कर लें,जब सिनेमाघर की डेढ बाय डेढ फीट की टिकट खिडकी में एक हथेली मोड कर घुसाने की जगह में एक साथ चार हाथ घुसे होते थे।खिडकी के बाहर टिकट के लिए युवाओं की लाइन अपनी जगह और खिडकी के पास शर्ट उतार कर गुत्थमगुत्था होकर टिकट लेने का सुख अपनी जगह।अद्भुत थी सिनेमा के प्रति वह दिवानगी,जब गरमी,उमस,भीड और छोटी मैली कुरसियों वाले  में सिनेमाघर में शरीर के तकलीफ की कीमत पर सिनेमा देख युवा मन का सुख हासिल करते थे।वास्तव में यह सपनों का सपनों से मिलन जैसा था,एक ओर युवाओं के आंखों में भविष्य के तैरते सपने,दूसरी ओर उन सपनों को पुचकारते सहलाते बडे परदे पर झिलमिलाते सपने।इतनी तकलीफ सह कर भी उस दौर में युवा सिनेमा के लिए बेचैन रहते थे तो शायद इसीलिए कि सिनेमा उन्हें अहसास देता था कि वह सब कुछ वे कर सकते ,जो उनके सपनों में तैरते हैं।लेकिन पहले मल्टीप्लेक्स और फिर ओटीटी ने भारतीय दर्शकों की सिनेमा देखने की आदत में जिस तरह बदलाव लाया,उससे सबसे अधिक कोई प्रभावित हुए तो वे युवा थे।मल्टीप्लेक्स ने दो तरह से युवाओं को सिनेमा से दूर होने के लिए बाध्य किया,अव्वल तो टिकट दर जो अठारह-बीस रुपए थी,वह बढकर दो सौ और अब तो उससे भी उपर हो गई।कई खास फिल्मों में,और सिनेमाघरों में यह बढ कर पांच सौ तक भी चली जाती है।ऐसी बात नहीं कि सिनेमा ने युवाओं को जोडे रखने की कोशिश नहीं की।

सिनेमा व्यवसाय को यह गणित तो समझ में आ ही रहा है कि भारत की आधी से अधिक आबादी 25 साल से कम की है,और 65 प्रतिशत 35 साल से नीचे की।एक आंकडे के अनुसार भारत में 15 से 24 वर्ष के युवाओं की संख्या लगभग 25 करोड है,कई यूरोपीय देशों की आबादी से अधिक।भारत को युवाओं का देश इसीलिए कहा जा रहा है कि इसकी औसत आयु 29 वर्ष है,जबकि चीन की 37 वर्ष और जापान की 48 वर्ष।जाहिर है देश के सबसे बडे बाजार को कोई इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री नजरअंदाज नहीं कर सकती।आश्चर्य नहीं कि यशराज ने कुछ वर्ष पहले वाय फिल्म्स के नाम से युवाओं के लिए एक अलग प्रोडक्शन की शुरुआत की,जिसके बैनर से लव का द एंड और मुझसे प्रेंडशिप करोगे जैसी फिल्मों के साथ आज के यूथ को आकर्षित करने की कोशिश की। मुझसे फ्रेंडशिप करोगे तो सोशल मीडिया की दोस्ती और ब्रेकअप पर आधारित थी।एक ओर लव का द एंड बन रही थी,तो दूसरी ओर युवा कथा के नाम पर लव रंजन प्यार का पंचनामा की सीरिज ला रहे थे।शाहरुख खान की रेडचिलीज आलवेज कभी कभी जैसी फिल्में लेकर आयी। इसमें से कुछ फिल्में चली भी,कुछ पूरी तरह नकार भी दी गई।लेकिन कुल जमा सच यही था कि देश के वृहतर युवा समुदाय से जुडने में न तो ये फिल्में सफल थी,न ही इनकी कोशिश थी।स्टूडेंट आफ द इयर के युवा छात्र किस धरा धाम से आते थे,हमारे युवाओं के लिए कनेक्ट करना ही मुश्किल था।सिनेमा देखना अलग मामला था,सिनेमा के साथ कनसिसटेंसी बना कर रखना वह अलग।यह सिनेमा कहीं न कहीं उसमें चूकता रहा।

जाहिर है समय के साथ भारत के आम युवाओं के लिए सिनेमा दूर होती चली गई।सिनेमा को भी पता हो गया कि मल्टीप्लेक्स के दर्शक एलीट होंगे,ऐसे जिनके सपने पूरे हो चुके होंगे, उन्हें सपनों से अधिक सच उद्वेलित करेगा।समय के साथ सिनेमा से सपने गायब होते चले गए,उनकी जगह खबरों और सच ने ले ली। जाहिर है सिनेमा ने युवाओं से मुंह मोडा तो युवाओं ने भी विकल्प की तलाश शुरु की,जो कहीं न कहीं ओटीटी पर आकर पूरी हुई लगती है।

इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की बात करें तो जैसे कोरोना काल ओटीटी की जमीन तैयार करने ही आया था।अब तो ओटीटी को सिनेमाघर के विकल्प के रुप में माना जाने लगा हैफिल्में ओटीटी पर रिलीज ही नहीं रही,खास तौर पर ओटीटी के लिए बनाई जा रही हैं।आंकडों के अनुसार 2020 में सबसे अधिक ओटीटी भारत में देखा गया।एक साल में 50 से अधिक फिल्में ओटीटी पर सीधे रिलीज हुई।ओटीटी ने शुरुआती भटकाव के बाद देश के सबसे बडे दर्शक समूह को टार्गेट करने की कोशिश की।उसे पता था कि 89 प्रतिशत दर्शक 35 वर्ष से कम उम्र के हैं। और किसी के नहीं,देश के अधिकांश युवाओं के हाथ में कम से कम 6 ईंच स्क्रीन का स्मार्ट फोन है,जिसमें अनलिमिटेड इंटरनेट सेवा उपलब्ध है।सबसे बडी बात यह ऐसा समूह है जिसे इस यंत्र को आपरेट करने में किसी का सहयोग लेने की जरुरत नहीं।टीवी और सिनेमा से दूर युवा समूह जैसे इसी की प्रतीक्षा में था।जो मिला इसने सब देखा और तालियां बजाई।सक्रेड गेम्स से लेकर मिर्जापुर तक और लस्ट स्टोरिज से गंदी बात तक।लेकिन कह सकते हैं समय के साथ देश के ओटीटी को बाजार की समझ आयी फिर वृहतर युवा समुदाय से संवाद करने की सार्थक कोशिशें भी दिखने लगी।

हाल ही में सोनी लिव पर आयी तिग्मांशु धूलिया की गर्मी आम युवाओं की समस्या को पूरे दम से रेखांकित करती है।किस तरह सुनहरे भविष्य को लेकर आया एक युवा स्थानीय कालेज की राजनीति में फंस कर अपने सपने से दूर होता जाता है।यहां युवा की उपस्थिति से युवा रिलेट कर सकते हैं।ऐसा ही कुछ दिन पहले निर्मल पाठक की घर वापसी में दिखा था,जब एक पढा लिखा युवा अपने गांव अपने रिश्तेदारों से मिलने आता है,लेकिन गांव को अपराध,जातिवाद और शोषण में जकडा देख लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाता और वहीं ठहर कर संघर्ष करता है।कह सकते हैं जो कहानियां हिंदी सिनेमा से अनुपस्थित हो गई थी,ओटीटी ने युवाओं के लिए वहीं से अपनी शुरुआत की। गुल्लक जैसी सीरिज में परिवार के बीच युवा दिखने लगे। जामताडा एक ओर युवाओं की अपराध कथा थी,तो कोटा फैक्ट्री जैसी सीरिज में प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफलता का दवाब झेलते युवाओं को पूरी संवेदना से चित्रित करती थी।ऐसा ही कुछ विश्व कल्यण रथ की अमेजन प्राइम सीरिज लाखों में एक में दिखता था।वास्तव में युवाओं के नाम पर जहां सिनेमा अति उच्च वर्ग के बीच विचरती रही,ओटीटी ने निम्न मध्यवर्ग की समस्याओं चाहे जाति हो,चाहे दहेज या फिर कैरियर जैसी समस्याओं को उनके बीच से निकालने की कोशिश की।

जी5 की वेब सीरिज पिचर्स चार दोस्तों के स्टार्ट अप को लेकर संघर्ष की कहानी कहती है।आई टी के क्षेत्र में काम करने वाले ये युवा किस तरह गलतियां करते हैं,लडते हैं और फिर एक साथ संघर्ष करते हैं।वास्तव में हिंदी सिनेमा युवा के नाम पर जहां कबीर सिंह की कहानी सुनाता रहा,ओटीटी का स्टार्ट अप की कहानी की कहानी का चयन युवाओं को पहचानने और उनकी समझ संघर्ष को सम्मान देने की कोशिश को कहीं न कहीं जाहिर करता है।जिन तीन कारणों से युवा सिनेमा से दूर हुए थे,विषय,सुविधा और कीमत,वही तीन को लेकर वे ओटीटी के करीब आते गए।सिनेमा देखने की ऐसी सुविधा पहले कभी नहीं थी।आपके पास कार्यक्रमों की पूरी लाईब्रेरी उपलब्ध है,बस क्लिक करें और देख लें।जो सिनेमा देखने के लिए 500 से हजार का खर्च किया जा रहा था,अनलिमिटेड इंटरनेट की और जगह जगह वाय फाई की सुविधा उसे लगभग मुफ्त में उपलब्ध करा रही है।सबसे बडी सुविधा समय की मिली,आपके पास जितना समय हो देखें,फिर समय मिले तो वहीं से शुरु करे।ओटीटी ने सब कुछ दर्शकों के नियंत्रण में दे दिया।आश्चर्य नहीं कि एक सर्वे के अनुसार 49 प्रतिशत युवा 2 से 3 घंटा हर दिन ओटीटी कार्यक्रम देखते हैं। 2022 में भारत इंटरनेट का 10 वां बडा उपभोक्ता माना गया।

सवाल है क्या वाकई ओटीटी सिनेमा के जादू का विकल्प हो सकता है।अंधेरे में सीधे दिमाग में उतरते सिनेमा और लोकल या मेट्रो की भीडभाड में 6 इंच में आंखें गडाए सिनेमा देखने का प्रभाव क्या एक हो सकता है। सवाल तो यह भी है कि क्या समय का चक्र वापस लौट सकता है।अभी इतना संतोष कर सकते हैं कि पहली बार इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री युवाओं के जीवन के यथार्थ को देखने सुनने समझने की कोशिश कर रही है।

1 टिप्पणी:

  1. समकालीन सिने संसार पर एक दास्तावेजी, विश्लेषणात्मक व आवश्यक आलेख

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