शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

महिला सशक्तिकरण से आगे की कथा कहती क्वीन


पेरिस पहुंच कर भी निर्देशक का कैमरा नहीं भटकता हो तो उनके धैर्य को दाद देनी ही पडेगी। आमतौर पर हिन्दी सिनेमा में विदेशी लोकेशन का अर्थ वहां की सडकें,मकानें,पार्क,समुद्र,पहाड,झरने ही रहे हैं।बाकी की तो बात ही छोड दे,संगम’,’दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे से लेकर जब तक है जान तक विदेश पहुंचते ही कैमरे की कोशिश अधिक से अधिक खूबसूरत ,नयनाभिराम दृश्यों को समेट लेने भर की दिखती रही है ताकि दर्शकों को विस्मित किया जा सके। विकास बहल की क्वीन इस मायने में असाधारण फिल्म है कि दो तिहाई से अधिक पेरिस और एमस्टर्डम में शूट होने वाली इस फिल्म में शहर उतना ही दिखता है,जितना कहानी के लिए अनिवार्य होता है। यहां पेरिस की उपस्थिती कहानी को विचलित नहीं करती,मजबूती प्रदान करती है।यहां तक कि एफिल टावर के पास जाकर भी फिल्मकार दर्शकों को एफिल टावर देखने का अवसर नहीं देता। परदे पर एफिल टावर दिखता है,लेकिन उतना ही,जितना पात्र देखता है।विदेश में फिल्मायी गयी हिन्दी की यह शायद पहली फिल्म होगी,जिसमें कहानी और पात्र से इतर कुछ नहीं दिखता।

अंतर्राष्ट्रीय होने की कई परिभाषाएं हो सकती हैं, देशों की सीमाओं से परे मानवीय संवेदना को स्थापित करने के कारण भी यदि किसी फिल्म को अंतरराष्ट्रीय माना जा सकता है तो क्वीन शायद हिन्दी की पहली फिल्म होगी।अकेले पेरिस घूमने वाली रानी(कंगना राणावत) को अमस्टर्डम में तीन रुममेट मिलते हैं,एक जापानी,एक रसियन और एक अफ्रिकन। रानी उनकी भाषाएं नहीं जानती,वे रानी की भाषा नहीं समझते,लेकिन साथ रहते चारों की अद्भुत बांडिंग बन जाती है। बाथरुम में छिपकिली देख कर रानी की चीख निकल जाती है, वह निकल कर भागती है,बाद में वे तीनों भी झांकने जाते हैं और उसी तरह चीख मार कर भागते हैं,उन्हें किसी भाषा की जरुरत नहीं होती।ये चारों एक दूसरे की भाषा नहीं समझते,लेकिन एक दूसरे की भावनाएं समझते हैं।और बगैर कोई रिश्ता कायम किए एक दूसरे के लिए खडे होते हैं,रिश्ता मतलब कायदे की दोस्ती भी नहीं दिखती उनके बीच,बस एक ही रिश्ता दिखता है,आदमी होने का। जब औरत मर्द के रिश्ते में सेक्स को अनिवार्य ही नहीं,सहज भी माना जाता हो,वहां तीन अजनबी पुरुषों के साथ संबंध को जिस कोमलता और सहजता से बगैर किसी नाटकियता के विवेक स्वीकार्य बनाते हैं,चकित करता है।

फिल्म में अलग अलग देशों के कई चरित्र है,और वे सब अपनी अपनी पहचान के साथ कहानी मे गुंथे हैं। न तो रानी पर फ्रेंच सीखने का दवाब दिखता है,न ही रानी किसी को हिन्दी सीखने के लिए प्रेरित करती है,बस एक स्वभाविक भावनात्मक रिश्ते में लोग जुडते चले जाते हैं। पूरी फिल्म में सभी अपनी अपनी भाषा में बात करते हैं, दर्शकों को भी न तो कही डबिंग की जरुरत महसूस होती है,न ही सबटाइटिल की। वास्तव में क्वीन वैश्विक भाइचारे का कोई संदेश नहीं देती,बस स्मारित करती है कि सीमा,भाषा और रंग बदलने से लोग नहीं बदल जाते।

स्वाद के लिए मशहूर एक रेस्टोरेंट मालिक को रानी अपने खाने को भारतीय मशाले से बेहतर बनाने का सुझाव देती है। सुझाव से चिढा वह फ्रेंच मालिक एक दिन खाना बनाने की एक प्रतियोगिता में रानी को अपने भारतीय खाने के साथ शामिल होने की चुनौती देता है। रानी अपने तीनों जापानी,रसियन और अफ्रिकन साथी के साथ मिल कर गोल गप्पे बनाती है,और सबसे अधिक बिक्री की चुनौती जीत लेती है। चार देश के लोग मिलकर गोलगप्पे बना रहे हैं,और पांचवे के लोग खा रहे हैं,अद्भुत।यह विकास बहल की पटकथा और निर्देशन की कुशलता है कि ये सारी घटनाएं कहानी के विस्तार में अपने स्वभाविक रौ में आती हैं।अमस्टर्डम में ही उसकी मुलाकात एक पाकिस्तानी लडकी होती है जो एक सेक्स क्लब में काम कर रही है। रानी का परिचय देते ही फ्रेंच में बातचीत की शुरुआत करने वाली वह लडकी खालिस उर्दू में बात करने लगती है। रानी जब उसके काम पर टिप्पणी करती है तो वह कहती है,परिवार की सबसे बडी बेटी थी,अब बेटा बन कर परिवार पाल रही हूं।

वास्तव में यदि महिला सशक्तिकरण का अर्थ महिलाओं का सिर्फ ताकत से सशक्त होना नहीं,बल्कि मन से सशक्त होना है तो विकास बहल अपनी क्वीन को बगैर किसी दावे के आहिस्ते के साथ एक प्रतीक के रुप में दर्शकों के सामने स्थापित करते हैं। यूं तो क्वीन के हरेक दृश्यों पर विस्तार से बात की जा सकती है,लेकिन कुछ दृश्यों में विकास जिस सहजता से विषय को रेखांकित करते जाते हैं,विस्मित करती है।इसलिए नहीं कि दृश्य भव्य हैं,संवाद में गंभीर बात कही जा रही हो,विस्मित अपने नएपन और सार्थकता के कारण करती है।पेरिस में वह रात मे  अकेले सूने सडक से गुजर रही होती है।एक गुंडा उसका बैग छीन कर भागने की कोशिश करता है।पहली बार विदेश गयी रानी बगैर धैर्य खोये बैग की कसकर पकड लेती है, उस अनजान मुल्क की सडक पर अपनी ही भाषा में चीखती है,चिल्लाती है।पकड मजबूत बनाने के लिए वह बैग पकडे हाथों को पैर के बीच दबा लेती है,और बीच सडक पर लोट जाती है।आस पास से लोगों की आवाजें आने लगती है और अंततः वह हट्ठे कट्ठे गुंडे से अपने बैग बचा लेती है।  

रानी राजौरी गार्डन की एक आम लडकी है।पारिवारिक दोस्त के बेटे विजय(राज कुमार राव) से उसकी शादी हो रही है। विजय रानी को पहली ही नजर में दिल दे बैठा था और लगातार पीछा कर रानी को प्रभावित करने में सफल रहा था।लेकिन अब जबकि दो दिन बाद शादी होने वाली है,लंदन से इंजीनियरिंग पढ कर लौटा विजय रानी के देशज व्यक्तित्व के कारण शादी से इन्कार कर देता है।रानी कोई कारण समझ नहीं पाती और टूट जाती है।लेकिन दादी के हिम्मत देने पर वह अपने आपको संभालती है और हनीमून के लिए पेरिस में आरक्षित होटल में अकेले समय बिताने के लिए निकल पडती है। यह वही रानी है जो अपने मंगेतर से भी मिलने अपने छोटे भाई के साथ जाती है। लेकिन अब विजय ने हनीमून पर जो सब दिखाने की उम्मीदे बधायीं थी,रानी वह सब कुछ देख लेना चाहती है।

होटल में ही उसकी मुलाकात रुम अटेंडेंट विजयलक्ष्मी(लीजा हेडेन) से होती है।वह सिंगल मदर है, उसे शराब और सेक्स से परहेज नहीं। लेकिन रानी के लिए वह मायने नहीं रखता, मायने रखता है विजयलक्ष्मी का सद्भाव।विजयलक्ष्मी के साथ एक नई दुनिया से वह रु ब रु होती है।यहां सबसे महत्वपूर्ण उसकी इच्छाएं आकांक्षाएं हैं।विजयलक्ष्मी उसका ख्याल रखती है,लेकिन किसी बडी बहन की तरह नहीं,दोस्त की तरह एक स्पेश देते हुए। विकास की खासियत है कि क्वीन में वे महिला सशक्तीकरण को उसकी शारिरिक स्वतंत्रता से अलग कर देखते ही नहीं,स्थापित भी करते हैं। आजादी रानी को अच्छी लग रही है,लेकिन वह शरीर दिखाने वाले कपडे पहनने को तैयार नहीं हो पाती। क्वीन में परदे पर कई बार ब्रा दिखायी जाती है। कहीं न कहीं विकास 60 के दशक में अमेरिका में शुरु हुए बर्न द ब्रा मूवमेंट का शालीनता से जवाब देते देखते हैं। वे शायद यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि ब्रा उतार फेकना आजादी का प्रतीक नहीं हो सकता। विजयलक्ष्मी शराब और सेक्स की चाह में एक क्लब में जाने को तैयार होती है,लेकिन रानी आग्रह करती है,कहीं और नहीं चल सकते,और वह मान जाती है।रानी जब विजयलक्षमी से अलग हो रही होती है तब वह रानी के कुरते में होती है।स्वभाविक है यहां महादेवी वर्मा के उस संस्मरण की याद आती है जिसमें वे अपनी सेविका को हिन्दी नहीं सिखा सकी,लेकिन उन्हें  भोजपुरी सिखा देती है।

विदा लेते हुए रानी कहती भी है।शराब थोडी कम पिया करो,और वो हर किसी के साथ सेक्स भी ठीक नहीं।लेकिन इसी रानी को जब रेस्टोरेंट का मालिक यह कहता है कि गोलगप्पे भले ही हिन्दुस्तानी अच्छे होते हैं,लेकिन फ्रेच किस का जवाब नहीं,तो रानी पल भर नहीं हिचकती उसे किस करने से।निश्चय ही विकास आजादी और अराजकता के फर्क का अहसास कराने की कोशिश करते हैं।

रानी शराब नहीं पीती,सेक्स नहीं करती,सिगरेट नहीं पीती,छोटे कपडे नहीं पहनती..इसके बावजूद पेरिस से लौटने के बाद उसमें इतनी हिम्मत दिखती है कि वह शादी के लिए घिघनते अपने मंगेतर के हाथ में मंगनी की अंगूठी खुद जाकर थमा सकती है। महिलाओं की आजादी के नाम पर शुद्ध देशी रोमांस और सशक्तीकरण के नाम पर गुलाब गैंग जैसे तमाशे के बाद क्वीन वाकई सुकून देती है।

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