गुरुवार, 15 नवंबर 2012

अमिताभ के दौर में सिनेमा

ख्वाजा अहमद अब्बास को भी शायद अहसास नहीं होगा कि गोवा की आजादी की पृष्ठभूमि पर बनने वाली अपनी फिल्म के लिए सात हिन्दुस्तानियों के समूह में उन्होंने जिस एक हिन्दुस्तानी का चयन किया है, उसमें से सबसे अलग, सबसे लम्बा ,इतना कि कैमरा भी समेटने में संकोच करे, वह हिन्दी सिनेमा के सबसे लम्बे या कहें अंतहीन लगते दौर का केन्द्र बनेगा।सात हिन्दुस्तानी 1969 में आयी,  और यह 2012, इन 43 सालों में अमिताभ की फिल्में आयीं या नहीं, फर्क नहीं पडा, अमिताभ हिन्दी सिनेमा के केन्द्र में रहे। शायद राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के उस वक्त की जूरी को इस बेडौल से लगते नौजवान में भविष्य के अमिताभ की झलक दिख गई थी। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ नवागन्तुक अभिनेता के रुप में सात में से इसी एक हिन्दुस्तानी का चयन किया, पहचान मिली, अमिताभ बच्चन। लेकिन हिन्दी की मुख्य धारा के सिनेमा के लिए इस पहचान का कोई अर्थ नहीं था। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और हिन्दी सिनेमा उस समय लगभग एक दूसरे के लिए अप्रसांगिक थे। अमिताभ बच्चन को अपनी दूसरी और घटिया सी भूमिका वाली फिल्म परवाना के लिए दो साल की प्रतीक्षा करनी पडी। कहते हैं उस दौर में अमिताभ फिल्मकारों से मिलने स्टूडियो जाते तो कहा जाता, हो गया गोवा आजाद, अब घर जाओ। लेकिन हिन्दी सिनेमा को अमिताभ बच्चन मिलना था, बगैर किसी चयन के जो भी भूमिकायें मिली, कैमरे के सामने वे पूरी शिद्दत से उतरे। चाहे संजोग में कलक्टर माला सिन्हा के क्लर्क पति की दब्बू भूमिका हो या बाम्बे टू गोवा में महमूद का साथ भर देने की। अधिकांश फिल्मों में नायक होने के बावजूद नायिका या सहनायक से उनकी भूमिका कमतर ही रखी जा रही थी,चाहे वह शत्रुघ्न सिन्हा के साथ रास्ते का पत्थर हो या मुमताज के साथ बंधे हाथ। वास्तव में राजेश खन्ना की चमक में जब देव आनंद, राजेन्द्र कुमार,धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र जैसे सारे बडे और पुराने सितारे गुम हो चुके थे, अमिताभ के लिए यही बडी उपलब्धि थी कि आनंद के बाबू मोशाय को दर्शक याद कर ले रहे थे। हृषिकेश मुखर्जी (अभिमान) और शुभेन्दु राय (सौदागर) जैसी फिल्म परिकल्पित कर रहे थे, तो अमिताभ को केन्द्र में रखने लगे थे। लेकिन यह अमिताभ के दौर की शुरुआत नहीं थी। उसकी पूर्व पीठिका भर थी।
वाकई यह प्रकाश मेहरा की विलक्षणता ही थी कि इन्हीं दब्बू भूमिकाओं में छिपे आक्रामक युवा की उन्होंने पहचान कर ली, और जंजीर में परिवार की हत्या का बदला लेने वाले युवा की भूमिका उन्हें सौंपी। कहा जाता है कानून के दायरे से बाहर जाकर अपराध से मुकाबला करने वाले इस पुलिस इंस्पेक्टर के प्रकाश मेहरा की पहली पसंद देव आनंद थे। देव आनंद के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद जंजीर में अमिताभ बच्चन की जगह देव आनंद की कल्पना से ही हंसी आती है। देव आनंद ही नहीं किसी भी दूसरे अभिनेता को उस स्थान पर रख कर देखना संभव नहीं, अपने अभिनय से अमिताभ ने ऐसे नए नायक की नींव रखी,जो सिर्फ प्रस्तुती में ही नहीं,शील, स्वभाव में भी हिन्दी सिनेमा के परंपरागत नायकों से नितान्त अलग था।
वास्तव में मौके तो मेहनत ही दिला सकती है, लेकिन सिनेमा में सफलता समय और समाज के साथ फिल्मकार की परिकल्पना पर ही मिलती है। 1973 में जंजीर की सफलता कहीं न कहीं इस बात का संकेत थी कि मौजूदा व्यवस्था से लोगों का विश्वास डगमगा रहा है। वे ऐसे नायक पसंद करने लगे हैं जो व्यवस्था से बाहर जाकर समस्या का निदान ढूंढने के लिए तैयार हो। याद करें तो एक ओर 1971 भारत की जयगाथा के लिए याद की जाती है, दूसरी ओर नक्सलवाद की शुरुआत के लिए भी। कतई आश्चर्य ही था कि एक ओर जहां देश आत्म गौरव में झूम रहा था, वहीं देश के एक कोने में असंतोष के हिंसक निदान की राह तलाश की जा रही थी, यह कोना छोटा भले ही था, लेकिन इसकी धमक ने देश के बडे बुद्धिजीवी तबके को आत्मगौरव से दमकते चेहरे के पीछे छिपे झुर्रियों को देखने के लिए बाध्य कर दिया। विचारों के इस प्रभाव से सिनेमा भी अपने आपको बचाए नहीं रख सका। आश्चर्य नहीं कि समस्या के निदान की एक राह अमिताभ सुझा रहे थे, प्रकाश मेहरा के साथ तो दूसरी ओर श्याम बेनेगल अपने तरीके से उसे प्रतिविम्बित कर रहे थे, अंकुर और निशांत जैसी फिल्मों में।1969 में बनी भुवन शोम जैसी संवेदनशील फिल्मों की नई धारा को श्याम बेनेगल ने 71 के बाद एक नया अर्थ दिया, जिसकी एक स्वतंत्र परंपरा बनी। हालांकि ये फिल्में खास दर्शक वर्ग के लिए बन रही थी, लेकिन कहीं न कहीं इसके सामाजिक और बौद्धिक सम्मान ने अमिताभ के कथित विद्रोही भूमिकाओं की स्वीकार्यता के लिए भी जमीन तैयार की।
आखिर कोई तो वजह होगी कि 1975 के बाद राजेश खन्ना महाचोर, शशिकपूर फकीरा और तो और मनोज कुमार भी दस नंबरी बनने का निर्णय लेते हैं, तभी जब कि दीवार में अमिताभ बच्चन एक अलग समाज के युवा आक्रोश को आकार देने में सफल होते हैं।वास्तव में इसकी पूर्व पीठिका 1967 में राज्यों में संविद सरकारों के गठन के बाद ही बननी शुरु हो गई थी। यह आम जनता का कांग्रेस से मोह भंग या कहें आजादी की खुमारी के दौर से निकलने का प्रतीक था।जनता को आजादी अब बेमानी लगने लगी थी। जाहिर है राजनीतिक अस्थिरता बढी, इसी के साथ जनता का विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से भी मोहभंग हुआ,जिसकी अभिव्यक्ति को विभिन्न कला माध्यमों ने स्वीकार किया,सिनेमा ने भी, अपने तरीके से। यही वह समय था जब कृषि के प्रति निरपेक्षता की मजबूरी और विकास की धुंधली रोशनी की आश में लोग शहर की ओर भागे। देखते देखते हिन्दुस्तान के हर शहर के भीतर एक अवांछित शहर बन कर तैयार हो गया। जिनके पास थी तो सिर्फ सपने और अपने आपको बचाए रखने की जद्दोजहद। खास बात यह कि हिन्दी सिनेमा के लिए यह सबसे बडा दर्शक वर्ग था।गांवों के अपने भरे पूरे समाज और लोक संस्कृति को छोड कर आए लोगों को मनोरंजन सस्ते मनोरंजन की जरुरत थी,जिसे सिनेमा पूरी कर रहा था। लोग चवन्नी में सिनेमा देखते थे, और खुश होते थे तो परदे पर इकन्नी लुटा देते थे। उसे परदे पर दोनों ही चीजें अच्छी लगती थी अपने सपने भी और अपने संघर्ष भी। अमिताभ में इन्होंने अपने आपको देखा। 1973 में जंजीर की सफलता में भारतीय संवैधानिक ढांचे के चरमराने की आवाज भर सुनाई दे रही थी,दीवार में वह स्पष्ट दिखने लगी। हिंसा दिखाने के लिए फिल्मकारों को अब धर्मात्मा की तरह काल्पनिक कथा की जरुरत नहीं थी, परदे पर आम जीवन और उनके बीच की हिंसा दिखाने की शुरुआत हो गई थी।
अमिताभ को सफल होना ही था। इस सफलता में कहीं न कहीं थोडा योगदान अमिताभ के व्यक्तित्व का भी था। उंचा कद जो कभी हिन्दी सिनेमा के नायकों के लिए असामान्य माना जाता था,वही अमिताभ के लिए यू. एस. पी. बन गया, शायद उनके दर्शकों को अपने नायक का सामान्य हिन्दुस्तानियों से अलग दिखना संतोष देता था। अमिताभ तो वही बंशी बिरजू थे, लेकिन उनकी फिल्में बदल गई थी। दीवार, शोले, जमीर, हेरा फेरी, अदालत, खून पसीना, परवरिश, त्रिशूल, डान, मुकद्दर का सिकन्दर, मि.नटवर लाल, सुहाग, शान, लावारिस, कालिया.....अमिताभ के 1975 से 1990 के बीच की फिल्मों के  अधिकांश किरदार उसी हाशिए पर पडे शहर से जुडे दिखते हैं। दीवार में उनकी भूमिका की शुरुआत डाकयार्ड के कुली से होती है जो बाद में अपनी हैसियत ऐसी बना लेता है कि कह सके, 'मेरे पास गाडी है, बंगला है, पैसा है, तुम्हारे पास क्या है'। अमिताभ यह सवाल भले ही परदे पर अपने पुलिस अधिकारी भाई से करते दिखते हैं, लेकिन लोगों को लगता है उनके बीच का कोई व्यक्ति पूरे अभिजात्य समाज से रु ब रु है। शोले में अमिताभ सहृदय चोर की भूमिका में हैं, कालिया में टैक्सी ड्राइवर, नसीब में वेटर, मुकद्दर का सिकन्दर में अनाथ,जो बाद में स्मगलरों को पकडवा कर उनकी कमाई से अमीर बनता है।
अमिताभ के दौर को यदि 1990 में आयी अग्निपथ तक के रुप में याद करें तो कुली, मर्द, नास्तिक, नमकहलाल, खुद्दार अमिताभ की सफलता उनके निभाए चरित्र में समाहित दिखती है। आश्चर्य नहीं कि कि लावारिस, कालिया, और तूफान जैसी फिल्मों की सफलता आज भी सिनेमा के जानकारों के लिए किसी तिलिस्म से कम नहीं। इसके बरक्स यदि 1975 के पहले की फिल्मों को याद करें तो वे सामाजिक समन्वय की कथा बयान करती थी। उसमें परिवार दिखता था, मां बाप ही नहीं, चाचा, मामा से लेकर फूफी मौसी तक का कहानी में अहम किरदार रहा करते थे। कहानियां परिवार में विचरण करती थी और सामाजिक नियंत्रण का निर्वाह करती समाप्त हो जाती थी। अमिताभ सिनेमा को उस बंधे बंधाये दायरे से बाहर निकाल लाये। अमिताभ की फिल्मों में मां तो दिखती थी, लेकिन पिता या तो रहता ही नहीं,यदि रहा भी तो अमजद खान सरीखा। आज का अर्जुन में तो अमिताभ अपने मामा अमरीश पुरी से ही मुकाबला में उतरते दिखते हैं। शायद बदलते समय की यही मांग थी। आश्चर्य नहीं कि अमिताभ ही नहीं, राजेश खन्ना और जीतेन्द्र जैसे रोमांटिक माने जाने वाले अभिनेताओं को भी 'जुझाडू' भूमिकाओं में उतरने को बाध्य होना पडा। राजेश खन्ना की कोशिश तो आमतौर पर असफल रही, लेकिन जीतेन्द्र ने मेरी आवाज सुनो और ज्योति बने ज्वाला जैसी फिल्मों के साथ जरुर हस्तक्षेप करने की कोशिश की।
चूंकि अमिताभ के पहले की फिल्मों की कहानी सामाजिक संदर्भों के साथ बनती थी,इसीलिए एक मूल कथा के साथ कई उपकथाएं भी साथ चलती थी,राजेन्द्र कुमार माला सिन्हा की कहानी का एक ट्रैक रहता था तो महमूद अरुणा इरानी का दूसरा ट्रैक समानान्तर चलता था।ढेर सारे सह अभिनेताओं की भीड देखी जाती थी। अमिताभ की व्यक्ति केन्द्रित कहानियों से समाज का संदर्भ कटा तो पात्र भी कटे। लेकिन सिनेमा को हास्य जाहिए,थोडा नाच गाना चाहिए...अमिताभ ने सारी जवाबदेही अपने कंधे पर उठा ली। राजेश खन्ना को कोई नहीं तो अपने साथ जूनियर महमुद भी चाहिए था, अमिताभ वन मैन आर्मी बन कर उभरे, वही हंसाते थे,वही रुलाते थे, उन्हीं का आयटम भी होता था,उन्हीं का स्टन्ट भी।वास्तव में वे उस वर्ग के नायक थे जिसे अपनी सारी लडाई खुद लडनी थी।
अमिताभ के दौर का सबसे ज्यादा खामियाजा यदि किसी कलाकार को भुगतना पडा तो वे थे संजीव कुमार, आज भी हिन्दी सिनेमा के सबसे प्रतिभाशाली अभिनेताओं की सूची बनायी जायेगी तो उसमें संजीव कुमार शीर्ष पर होंगे। अमिताभ के दौर में संजीव कुमार की सक्रियता इस बात की प्रतीक है कि उस समय अमिताभ के सिनेमा के साथ सिनेमा की एक समानान्तर धारा भी चल रही थी। वास्तव में भारतीय समाज की विविधता के अनुरुप सिनेमा अपने विविध रुपों में हर काल में उपस्थित रहा है,जब बिमल राय  सिनेमा बना रहे थे,उसी समय दारा सिंह और शेख मुख्तार की भी फिल्में आ रही थी। आज यह याद करना भी दिलचस्प लगता है कि जिस साल 'दीवार' रीलिज हुई, उसी साल राजकपूर ने 'बाबी' के साथ हिन्दी दर्शकों को प्रेम का एक नया आस्वाद भी दिया था। 'खेल खेल में', 'रफूचक्कर' जैसी फिल्मों के साथ ऋषिकपूर युवतम दर्शकों में क्रेज बन कर उभरे ,जिनके पास न तो कोई सामाजिक जवाबदेही थी,न ही सामाजिक चिन्ता। 1981 में जब याराना, कालिया, लावारिस, नसीब जैसी फिल्मों के साथ अमिताभ चरम पर दिख रहे थे,उसी समय राजेन्द्र कुमार ने अपने बेटे को लांच करने के 'लव स्टोरी' बनायी, हालांकि बेटा कुमार गौरव नहीं चल सका लेकिन लव स्टोरी उस समय खूब चली। इसी समय मनोज कुमार भी 'क्रांति' के साथ देश प्रेम की अपनी आखिरी लडाई लड रहे थे। जीतेन्द्र ने दक्षिण भारतीय फिल्मकारों के साथ 'हिम्मतवाला', 'तोहफा' के रुप में मनोरंजन और इमोशन का एक अलग खजाना खोला।अमिताभ से मुकाबले के लिए उसी समय मल्टी स्टारर फिल्मों की भी शुरुआत हुई, और मनोरंजन की एकरसता से ऊबे दर्शकों ने उसे स्वीकार भी किया।
लेकिन इस सबके बावजूद यदि 75 से 90 के काल को अमिताभ बच्चन के दौर के रुप में याद किया जाता है तो उसकी वजह है कि अधिकांश कलाकारों की लोकप्रियता अपने सीमित दर्शक वर्ग में थी, दक्षिण भारतीय फिल्में महिलाओं के बीच पसंद की जा रही थी, तो मल्टी स्टारर मध्य वर्ग को लुभा रही थी। अमिताभ एक मात्र ऐसे नायक थे जिनकी स्वीकार्यता सर्वमान्य थी। उनकी फिल्मों की कथा भूमि उन्हें शहरी सर्वहारा से जोडती थी, संवेदना महिलाओं को छूती थी, उनका सहज हास्य मध्य वर्ग को लुभाता था।तो उनका संपूर्ण व्यक्तित्व और संवाद शैली उन्हें क्लास देता था। अमिताभ को भी अपनी इस क्षमता का अहसास था यही कारण है कि अमिताभ का दौर 'कालिया' , 'दीवार' के लिए जितना याद किया जाता है उतना ही 'चुपके चुपके', 'कभी कभी', 'बेमिसाल' और 'सिलसिला' के लिए भी।

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