बुधवार, 24 अगस्त 2011

सिनेमा से बाहर रहा सत्याग्रह




सत्य पर यकीन हो न हो, हिन्दी सिनेमा का सत्याग्रह पर कभी कतई यकीन नहीं रहा।यह भी दिलचस्प है कि सत्य की लडाई हिन्दी सिनेमी का प्रिय विषय रहा,लेकिन लडाई के जो तौर तरीके इसने स्वीकार किए ,उसका सत्याग्रह से दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं था।आज यह स्मरण अपने आप में चकित कर देता है कि महात्मा गांधी के जिस देश के आधार में ही अहिंसा थी ,आंदोलन के अहिंसक तौरतरीके थे, उस देश की फिल्मों में सत्य की लडाई का एक और एक ही तरीका दिखा ,वह था हिंसक। `इन्कलाब ` में अमिताभ बच्चन याने नायक राजनीतिक भ्रष्टाचार से लडने की कोशिश करता हुआ अंततः विधान सभा में घुसकर एक साथ सभी मंत्रियों को मौत के घाट उतार देता है।इसी का निर्वाह थोडे परिष्कृत रूप में राकेश ओम प्रकाश मेहरा भी अपनी बहुचर्चित फिल्म `रंग दे बसंती `में करते हैं । जब नायक राजनीतिक भ्रष्टाचार से लडने की शुरुआत तो शांतिपूर्ण प्रदर्शन से करता है लेकिन अंतिम रास्ता उसके पास भी मंत्री को गोली मार कर खुद शहीद हो जाना ही होता है।ये कोई एक दो फिल्म नहीं ,शूल या प्रतिघात जैसी विषय को गंभीरता से उठाती हुई फिल्म हो या फिर हरेक वर्ष सैकडों की तादाद बनने वाली `फूल बने अंगारा` की तरह तेरह मसालों वाली फिल्में,लब्बोलुवाब सबका एक ही रहता है,भ्रष्टाचार का हिंसक समाधान। ऐसे में अण्णा हजारे के आंदोलन पर जब हिन्दी सिनेमा उत्साहित दिखती है तो आश्चर्य होता है ,क्या वाकई हिन्दी फिल्मकारों को सत्याग्रह की संवेदनशीलता महसूस होने लगी है । या फिर उद्देश्य एकमात्र अण्णा की लोकप्रियता का दोहन है,जेसिका और नीरज ग्रोवर की तरह।
अण्णा हजारे तो अब उम्र के चौहतरवें पडाव पर हैं,महाराष्ट्र के कई इलाके गवाह हैं उनकी सक्रियता और संघर्ष के। उनकी परिकल्पना महाराष्ट्र के कई गावों में वर्षों से साकार होते दिख रही है।इसी सेवा के लिए वर्षों पूर्व से इनहें राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित किया जाता रहा है।यदि सिनेमा को वाकई अण्णा हजारे या उनके काम में या फिर उनके काम करने के तरीके में रुचि होती तो अब तक कई फिल्में बन चुकी होती।आज सिनेमा को अण्णा की सादगी और सत्याग्रह में यदि ग्लैमर दिख रहा है तो उसकी वजह अचानक से मिली उनकी असीम लोकप्रियता है,आज अणेणा व्यक्ति नहीं ब्रांड बन चुके हैं,चौबीसों घंटे न्यूज चैनलों पर वे दिखाई दे रहे हैं। उनके नाम के टी शर्ट और टोपियां बिक रही हैं,कोई बडी बात नहीं आने वाले दिनों में ब्रांडेड शोरुमों में उनके मर्केंडाईज बिकते दिखे। ऐसे में जब अण्णा पर सिनेमा की घोषणा सुनाई देती है तो स्पष्ट लगता है यह अण्णा के मुद्दे और समर्पण को सम्मानित करने की कोशिश नहीं हो सकती।
यदि हिन्दी सिनेमा इतनी ही जवाबदेह होती तो 74 आंदोलन अभी तक इसके विषय से बाहर क्यों रहता,सुधीर मिश्रा की एक `हजारों ख्वाहिशें ऐसी ` के सिवा उस राष्ट्रव्यापी आंदोलन पर हिन्दी सिनेमा के हाथ खाली हैं। अनुपम ओझा 74 आंदोलन की पृष्ठभूमि पर पटकथा लेकर वर्षों से प्रोड्यूसर तलाश रहे हैं किसी के पास तवज्जो देने का वक्त नहीं। आज अचानक अण्णा के सत्याग्रह में उनलोगों को संभावनाएं दिखने लगी हैं।तो चकित होना स्वाभाविक है।वास्तव में आंदोलन के जनतांत्रिक तौर तरीकों पर हिन्दी सिनेमा को कभी विश्वास नहीं रहा।मेधा पाटकर के साथ आमिर खान भले ही धरने पर बैठने चले जाएं,उसे फिल्म का विषय बनाने की हिम्मत नहीं जुटा सकते।महेश भट्ट भाषण चाहे जितना दे दें, बनाएंगे वे मर्डर का सिक्वल ही.
वास्तव में हिन्दी सिनेमा अतिरेक पर विश्वास पर रखती है.उसे ड्रामा भी चाहिए तो थोडा ज्यादा ,जो जाहिर है जनतांत्रिक आंदोलन में उसे नहीं मिल सकता ।एक आम आदमी का भी संघर्ष दिखाना वह चाहे तो अधिक से अधिक `ए वेडनेस डे `सोच सकती है,जहां अंततः जनतंत्र और संवैधानिक दायरे पर अविश्वास ही स्थापित होता है।`खोसला का घोसला` में भी आम आदमी की लडाई दिखती है ,लेकिन यहां भी कोई सत्याग्रह या संवैधानिक तरीका उन्हें समाधान नहीं देता ,छल छद्म ही मदद करता है।चीनी कम याद होगी आपको,जिसमें नायिका के गांधीवादी पिता अपनी बेटी के अपने से भी उम्रदराज पुरुष से विवाह करने के निर्णय से रोकने की जिद में आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं।सिनेमा में अनशन की यह मिमिक्री भी देखी हमने।सही मायने में हिन्दी सिनेमा की मुख्य धारा में सत्याग्रह के हथियार का इस्तेमाल पहली बार लगे रहो मुन्ना भाई में दिखा था।ईक्कीसवीं सदी में गांधीवाद की प्रासंगिकता स्थापित करती यह फिल्म पूरी संवेदनशीलता और गंभीरता से गांधीवाद के मूल तत्वों को दर्शकों से शेयर करती थी।लेकिन अपार सफलता के बावजूद सत्याग्रह की यह परंपरा परवान नहीं चढ सकी।अपने दर्शकों से दूर होते सिनेमा केलिए यह समझना ही मुश्किल था कि उसका जनता को अभी भी सत्याग्रह और अनशन जैसे शब्द आंदोलित करते हैं। आश्चर्य नहीं कि प्रकाश झा जब `आरक्षण` लेकर आए तो सिनेमा के बिजनेस एक्सपर्ट से लेकर समीक्षकों तक ने इसके अंत पर सवाल उठाए। आज अण्णा ने उनके सवालों का जवाब दे दिया कि सही मुद्दे को लेकर एक व्यक्ति भी संघर्ष की शुरुआत कर दे तो एक एक कर पूरी दुनिया उसके साथ हो सकती है।प्रकाश झा जब भ्रष्ट होती शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ प्रभाकर आनंद के संघर्ष को आमजन के साथ जनतांत्रिक दायरे में सफल होते दिखाते हैं तो विश्वास मिलता है अण्णा के अनशन को परदे पर उतारना असंभव नहीं ,बशर्ते अण्णा के संघर्ष को समझने की कोशिश कि जाय।हालांकि उस हिन्दी सिनेमा से यह उम्मीद कुछ ज्यादा ही है ,जिसे अपना भविष्य हिंसा और सेक्स के दलदल में ही सुरक्षित नजर आता हो।तबतक खुश हो सकते हैं सितारों के टविट से कि जबानी ही सही सिनेमा सत्याग्रह के साथ तो है।

नंगेपन की होड़ में सिनेमा




‘चितकबरी’ आने वाली है। कहा ही नहीं जा रहा, इसके साथ जो दिखाया जा रहा है, उसके हिसाब से भी हिन्दी की सबसे ‘बोल्ड’ फिल्म की दावेदारी के प्रति इसकी गम्भीरता महसूस की जा सकती है। अब ‘बोल्ड’ के शब्दार्थ पर न जाये, हिन्दी सिनेमा से जुड़कर कई सारे शब्दों ने अर्थ बदल लिए हैं। उसी में एक यह ‘बोल्ड’ भी है। सिनेमा में ‘बोल्ड’ का सीधा सा अर्थ सेक्स की प्रस्तुति को लेकर है। चाहे वह नायिका के नंगे शरीर के रूप में हो, नायक नायिकाओं के इन्टीमेट सीन के रूप में हो या फिर अश्लील गालियों के रूप में। तो ‘चितकबरी’ इसी बोल्डनेस के साथ आ रही है, इस हद तक कि उस फिल्म की जारी तस्वीरे दिखाने में वेब साइटों को भी शर्म महसूस हो रही है। कर्इ साइटों पर उसे धुन्धला कर दिखाया जा रहा है। फिल्म अभी सेन्सर होनी बाकी है, इसी लिए इसमें से कितना कुछ दर्शकों तक पहुंच सकेगा, यह तय होना तो अभी बाकी है, लेकिन इतना तय है कि हिन्दी सिनेमा सेक्स प्रदर्शन के मामले में किसी भी सीमा तक जाने को पूरी तरह तैयार हो चुकी है। उल्लेखनीय यह भी है कि हिन्दी सिनेमा के पास वैसी अभिनेत्रियों का जखीरा भी जमा हो गया है जिन्हें कपड़े उतारने के लिए फिल्मकार के इशारे की भी जरूरत नहीं होती। कविता राधेश्याम जैसी कथित अभिनेत्री की फिल्म की घोषणा तो बाद में होती है, उनकी नंगी तस्वीरें पहले ही सार्वजनिक हो जाती हैं। कोइना मित्रा को फिल्मों में चाहे जिस हद तक जाते हुए दर्शकों ने देखा हो, परदे के बाहर भी जब बगैर पैन्टी के उनकी तस्वीर सार्वजनिक हो जाती है तो उनके चेहरे पर जरा भी सिकन नहीं आती, बल्कि गर्व के साथ वे कहती हैं, मुझे पसंद है वह तस्वीर। वास्तव में इन कथित अभिनेत्रियों के पास ये धैर्य नहीं कि दर्शक उनके अभिनय को देखें, सराहे, उनकी संवेदनाओं को महसूस करें, उन्हें पसंद करें। ‘बूम’ से ‘नमस्ते लंदन’ तक पहुंचने में कटरीना को दस वर्ष लग गए, उसने धैर्य के साथ अपने आप को विकसित किया। यदि उसने भी जल्दी मचायी होती तो आज ‘बूम-1’ और ‘बूम-2’ करने के बाद कहीं गुमनामी की जिन्दगी जी रही होती। इन्हें जल्दी है सफलता की, समृद्धि की, इसका सबसे आसान जरीया इन्हें अपना संतुलित शरीर ही लगता है, जिसे दिखाने के लिए न तो किसी तैयारी की जरूरत पड़ती है न ही श्रम की। इन्हें फर्क नहीं पड़ता दर्शक इन्हें किस रूप में याद रखेंगे या याद रखेंगे भी नहीं। इन्हें मतलब बस अपनी कीमत से है। लेकिन सच यह भी है कि इन्हें इसकी हिम्मत हमारी स्वीकार्यता ही देती है।
यदि ‘मर्डर’ अस्वीकार्य कर दी जाती तो आज ‘मर्डर-2’ नहीं बनती। ‘लव सेक्स और धोखा’ असफल हो जाती तो ‘रागिनी एम.एम.एस.’ बनाने की हिम्मत एकता कपूर नहीं जुटा पाती। यदि ‘भिन्डी बाजार’ की गालियों पर हमने तालियां नहीं बजायी होती तो ‘देल्ही बेली’ की मां बहन नहीं सुननी पड़ती। वास्तव में अश्लीलता का यही मनोविज्ञान है कि हर बार जितना हम देखते हैं उससे ज्यादा देखना चाहते हैं। आश्चर्य नहीं कि अश्लीलता परोसने वाली हर फिल्म पिछली फिल्म से ज्यादा अश्लील होती है, नहीं भी होती है तो ज्यादा अश्लील के दावे के साथ जरूर आती है। जब महेश भट्ट जैसे बुद्धिजीवी के रूप में प्रतिष्ठित फिल्मकार ‘मर्डर-2’ का प्रमोशन करते हुए कहते हैं यह पिछली फिल्म मर्डर से ज्यादा बोल्ड होगी। तब सुनीत अरोड़ा क्यों न कहें उनकी ‘चितकबरी’ सबसे ज्यादा बोल्ड होगी। जाहिर है सबसे ज्यादा की यह दौड़ ‘चितकबरी’ पर ठहरने वाली नहीं, क्यों कि इसी के साथ खबरें आने लगी हैं राम गोपाल वर्मा की ‘इट्स नोट ए लव स्टोरी’, जहां माही गिल अपने एक प्रेमी के लाश के सामने दूसरे प्रेमी के साथ हम बिस्तर होती दिखायी देंगी। इसके इन्टीमेट सीन के सीमा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके फिल्मांकन के दौरान निर्देशक राम गोपाल वर्मा भी शरमाकर सेट से बाहर चले गए थे। माही गिल ने शुरूआत ‘देव डी’ से की थी, जहां अपने प्रेमी से मिलने की जिद में साईकिल पर गद्दे लादकर गन्ने की खेत में पहुंच जाती हैं। उम्मीद भी की जाती है और जैसी खबरें भी आ रही हैं ‘साहब बीवी और गुलाम’ के आधुनिक री-मेक ‘साहब बीवी और गैंगस्टर’ में वे एक कदम और आगे दिखायी देंगी। उन्हें पता है हमे पिछली फिल्मों से ज्यादा चाहिए होता है। जहां तक देख लिया दर्शक उससे ज्यादा देखना चाहते हैं, चाहे वह शरीर का मामला हो या सेक्स का। सवाल है सिनेमा से तो ऐसी चाहत हमारी कभी नहीं रही है, यदि राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना और अनिल कपूर तक की परम्परा की बात छोड़ भी दें तो हमने ‘दबंग’ पसन्द की ‘गोलमाल’ भी, ‘सिंघम’ भी, ‘राजनीति’ भी। हमने तो सबसे ज्यादा राजश्री की फिल्में पसंद की जहां नायक नायिका को एक दूसरे के करीब आते आते फिल्म खत्म हो जाती थी। सिनेमा में सेक्स भारतीय दर्शकों की पहली पसंद कभी नहीं रही। आम तौर पर इसे ‘बी’ और ‘सी’ ग्रेड सिनेमा के रूप में चिन्हित किया जाता रहा।
आज जब आमिर खान और महेश भट्ट ऐसी फिल्मों के साथ खड़े नजर आते हैं तो स्पष्ट लगता है अपने मानसिक दिवालिये पन की भरपायी वे सेक्स के नये बाजार में हिस्सेदारी बांटकर कर रहे हैं। निश्चित रूप से कोई ‘लगान’ और ‘जख्म’ छोड़कर ‘देल्ही बेली’ या ‘मर्डर’ सिर्फ नयेपन के लिए नहीं बना सकता। वास्तव में यह प्रतीक है इस बात का कि अब उसके पास कहने को कुछ नहीं। लेकिन बाजार में टिके रहने की मजबूरी उन्हें इसकी भी चिन्ता नहीं करने देती कि ऐसी फिल्मों के साथ उनका खड़ा होना ऐसी फिल्मों को एक नई प्रतिष्ठा देगी जिससे उत्साहित कोर्इ ‘चितकबरी’ बनाने के लिए तैयार हो जाता है, पूरे गर्व के साथ।

रविवार, 7 अगस्त 2011

तुम जो आए......



बौराया था शहर।बौराना स्वाभाविक भी थी।अमिताभ बच्चन शहर में थे।सदी के महानायक,कुछ ने तो दो कदम आगे बढ कर कहा सहस्त्राब्दी के महानायक,पता नहीं सहस्त्राब्दी के शब्दार्थ से भी वे अवगत थे या नहीं।वैसे अतिउत्साह में लोग अक्सर होश गंवा बैठते हैं।होश हम भी गंवा बैठे,भूल गए कि अमिताभ आए नहीं ,लाए गए थे।बिहारी फिल्मकार प्रकाश झा के द्वारा अपनी फिल्म आरक्षण के प्रोमोशन के लिए।
अमिताभ बच्चन पहली बार बिहार आए।यदि प्रकाश झा ने अपनी फिल्म आरक्षण में उन्हें नहीं लिया होता ,यदि आरक्षण के प्रोमोशन का कार्यक्रम पटना में नहीं रखा गया होता ,तो शायद अमिताभ अभी भी बिहार नहीं आते,शायद कभी नहीं आते।क्यों आते,जब अपने 40 वर्षों की लम्बी अभिनय यात्रा में उन्हें बिहार आने की जरुरत महसूस नहीं हुई। वर्षों से अपने कंधे पर सुपर स्टार और अब सदी के महानायक के खिताब को उठाए अमिताभ को यह बेहतर पता है कि हिन्दी सिनेमा में काम करने का अर्थ हिन्दी समाज को जानना नहीं है। हिन्दी समाज की महत्वपूर्ण पहचान बिहार को जाने बगैर ही यदि हम हिन्दी सिनेमा के कालपुरुष बन सकते हैं तो क्या जरुरप है बिहार की धुल मिट्टी फांकने की।
वास्तव में अमिताभ का पटना आना ,यह ज्यादा याद दिलाता है कि अभी तक वे पटना या बिहार आए ही नहीं थे।अमिताभ ही क्यों ,आखिर कौन से हिन्दी सिनेमा के स्टार ने बिहार या हिन्दी प्रदेश को करीब से जानने की कोशिश की।यह हिन्दी सिनेमा की सचाई है,जहां स्टारडम की सीढियां चढने के लिए यह कतई जरुरी नहीं कि उस दुनियां को जानें ,समझें,पहचानें,जिस दुनिया को वे परदे पर साकार कर रहे हैं। अमिताभ का आना बिहार के लिए उत्साह से ज्यादा विचार का अवसर है कि आखिर कहां हमारी चूक रह जाती है कि हमारे ही सितारे हमें जानने की कोसिश नहीं करते।आखिर क्यों हिन्दी सिनेमा की चिन्ता में बिहार शामिल नहीं हो पाता।आश्चर्य़ नहीं कि हिन्दी सिनेमा के अभिनेता जब परदे पर किसी बिहारी को करने की कोशिश करते हैं तो वह किसी दूसरे ग्रह का प्राणी हो जाता है ।
सवाल ये भी है कि आखिर अमिताभ क्यों जानें बिहार को।उन्हें पता है बिहार सिनेमा का बाजार नहीं है।बिहार और झारखंड दोनों मिल कर किसी फिल्म के व्यवसाय में मात्र दो प्रतिशत की भागीदारी करते हैं ।ऐसे में उनका मुम्बई या पंजाब को जानना ज्यादा व्यवहारिक होता है जो 30 से 40 प्रतिशत तक की भागीदारी सुनिश्चत करती है।उन्हें पता है बनने के लिए फिल्में हिन्दी में बनती जरुर हैं ,लेकिन उसका हिन्दी दिखना कतई जरुरी नहीं होता।वहां भांगडा दिखना जरुरी होता है,सामा चकेवा या मधुश्रावणी नहीं।आखिर क्यों आते अमिताभ।
लेकिन अच्छा लगा अमिताभ का आना,कुफ्र तो टूटा।भले ही वजह प्रकाश झा का बिहार प्रेम हो,लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कहीं न कहीं हिन्दी सिनेमा को बिहार के बदलते आर्थिक हालातों में अपने लिए अब बेहतर संभावना भी दिखने लगी हो।निश्चित रुप से एक दर्शक के रुप में हम जितने ही मजबूत होंगे,अमिताभ जैसों का हमारे बीच आना उनकी मजबूरी होती जाएगी।

बुधवार, 3 अगस्त 2011

आरक्षण पर हंगामा,बहस से बचने की सियायत







बात ममता बनर्जी की नहीं,छगन भुजबल की है।एन सी पी कोटे से आए गुमनाम से केंद्रीय मंत्री अचानक खबरों में आ गए जब उन्होंने प्रकाश झा की 12अगस्त को रीलिज होने वाली फिल्म आरक्षण के खिलाफ आंदोलन की धमकी दे डाली।भारतीय सेंसर बोर्ड द्वारा अ-व श्रेणी केलिए पारित फिल्म पर महाराष्ट्र के ही आर सी पी के राम दास अठावले आग बबूला होते हैं तो बात समझ में आती है कि आरक्षण विरोध उनकी राजनीति का हिस्सा रही है।इस पर किसी विमर्श का अस्वीकार उनके लोकप्रिय राजनीति का स्वाभाविक कदम है।लेकिन एक केंद्रीय मंत्री भी जब उसी टोन में बात करता है तो वाकई चिंता होती है क्या किसी व्यक्ति के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकारों का विरोध किसी मंत्री के लिए जायज है।वह बी तब जब इन्हीं की सरकार द्वारा नियोजित संवैधानिक अधिकार प्राप्त संस्था भारतीय सेंसर बोर्ड उसे सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति दे चुका हो।यह विरोध वास्तव में किसी एक फिल्म के विरोध से ज्यादा एक संवैधानिक संस्था के निर्णय का विरोध ज्यादा है।कम से कम जिसका अधिकार किसी केंद्रीय मंत्री को तो कतई नहीं हो सकता । लेकिन यह भारतीय राजनीति है,यह किसी दायरे में बंध कर नहीं रहती।इसके लिए न तो संविधान मायने रखता है,न ही किसी के संवैधानिक अधिकार ।मतलब रखते हैं बस अपनी पीछे लगने वाली भीड ।वैसी भीड जिसे वे विमर्श का अवसर नहीं देना चाहते,उन्हें विचार का अवसर नहीं देनी चाहते।बस चाहते हैं वह भीड अनके निर्णय में आंखें मूंद कर उनके पीछे शामिल रहे।आश्चर्य नहीं कि महाराष्ट्र से शुरु हुए इस मुखर विरोध की नींव उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार ने दो हफ्ते पहले ही रख दी थी ,जब वहां आरक्षण के प्रमोशन के किसी भी कार्यक्रम पर प्रशासन ने रोक लगा दी।पहले विश्व विद्यालय में,फिर लखनऊ में,अब कहते हैं पूरे उत्तर प्रदेश में। प्रकाश झा की कोशिश थी कि उत्तर प्रदेश के छात्रों से अमिताभ बच्चन की सीधी बातचीत हो,इसलिए कि वहां की राजनीतिक और सामाजिक समझ निर्विवाद रही है।हालांकि अमिताभ बच्चन काफी संभल कर बोलने वाले सेलिब्रेटी रहे हैं।इसलिए यह तो कतई उम्मीद नहीं थी कि आरक्षण जैसे मुद्दे पर वे कोई ऐसी बात रखेंगे जिस पर विवाद की गुंजाइश हो।अभीतक आरक्षण पर जो उनके बयान आए हैं उसे देखते हुए भी ऐसा कहा जा सकता है। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक सरगर्मीयां सारे देश को गर्माती रही हैं,ऐसे में अमिताभ की उपस्थिती से प्रशासन का डरना थोडा चिंतित करता है।क्या वाकई अमिताभ जैसे अभिनेताओं की स्वीकार्यता राजनेताओं से ज्यादा है।क्या प्रशासन को वाकई यह लगता था कि आरक्षण पर अमिताभ का स्टैंड लोगों को उत्तेजित कर सकता है।यदि यह सही भी हो तो क्या यह तूफान के आगे आंखें मुंद लेने जैसा नहीं है।यदि आरक्षण को लेकर अभी भी लोगों के मन में कुछ शंकाएं हैं तो क्या जरुरी नहीं कि उस पर विमर्श हो,बातें हो।यह तो अवसर होता कि अमिताभ बच्चन जैसे सम्मानित सेलिब्रेटी की राय हमें विमर्श का जमीन देती । अमिताभ बच्चन हों या प्रकाश झा वास्तव में भारतीय संविधान के अनुसार उनकी अहमियत एक व्यक्ती से अधिक नहीं।बाकी नागरिकों की तरह उन्हें भी किसी मुद्दे पर अपनी बात रखने का हक है, संकट यह है कि अपनी बातें रखने का हक हम बाकी नागरिकों को देते हैं,अपने कलाकारों को नहीं देना चाहते।

दीग्विजय सिंह जो चाहे बोल सकते हैं किसी को कोई आपत्ति नहींहोती,वे एक सुर से बाबा रामदेव को भी गाली दे सकते हैं और अण्णा हजारे को भी।कोई रोक उनपर नही लगायी जाती कि इससे तनाव बढ सकता है,अमर सिंह जो चाहे बोल सकते हैं ,कभी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की जाती,वे संविधान की भी बखिया उधेड सकते हैं ,न्यायपालिका की भी,सर्वस्वीकार्य।लेकिन जब अमिताभ बच्चन,तस्लीमा नसरीन,सलमान रश्दी...या हुसैन की बात होती है तो तमाम सीमाएं लगाने की कोशिश की जाती है।उनसे उम्मीद की जाती है कि वे वही बोलें जो हम चाहते हैं।हम मानना ही नहीं चाहते कि उनकी अपनी भी कोई राय हो सकती है।और उसे जाहिर करने का उन्हे हक भी है।

प्रकाश झा ने आरक्षण बनायी.जाहिर है अमिताभ बच्चन ,सैफ अली खान,दीपिका पादुकोण,मनोज वाजपेयी जैसे सितारों को लेकर वे यह फिल्म बना रहे हैं तो कोशिश एक मास अपील की ही होगी,दशर्कों को आकर्षित करने वाली कहानी होगी, आकर्षक गीत होंगे,रोचक संवाद होंगे,निश्चित रुप से 30करोड की लागत लगती है तो इस उम्मीद के साथ कि60करोड की वापसी होगी,किसी भी फिल्म की यह पहली शर्त होती है।लेकिन प्रकाश झा चुंकि वैचारिक फिल्मकारों में जाने जाते हैं इसिलिए एक विमर्श का आधार उनकी फिल्मों में बोनस को रुप में मिलता है।लेकिन भारत में चुंकि सिनेमा से विचार की कतई उम्मीद नहीं रखी जाती इसिलिए जैसे ही आरक्षण जैसी कोई फिल्म आती है हमारे कान खडे हो जाते हैं।हम उनके प्रति अतिरक्ति सचेत हो जाते हैं कि हमारे स्थापित मान्यताओं पर यह कोई सवाल तो खडे नहीं कर देगी।हम इन कृतियों के कला की तरह स्वीकार ही नहीं कर पाते ।

आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी एल पूनिया आरक्षण आने के पहले ही बयान देते हैं कि आरक्षण फिल्म भारत के संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।उन्होंने सेंसर बोर्ड को नोटिस दिया है कि आयोग की सहमति प्राप्त करने के बाद ही वे फिल्म को पास करें।प्रकाश झा जैसे सचेत फिल्मकार से संविधान के खिलाफ जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती,फिर भी यदि वे जाते ही हैं तो उसकी निगरानी के लिए भारतीय सेंसर बोर्ड जैसी संवैधानिक संस्था भी है,फिल्मों पर विचार करने का अधिकार संसद ने सेंसर बोर्ड को सौंपा है तो उसपर यकीन नहीं करने का अर्थ सीधे तौर पर संविधान की मूल अवधारणा पर सवाल खडा करना माना जायेगा।वास्तव में जब ऐसे सवाल उठते हैं तो उसका मतलब कहीं भी संविधान का अनुपालन नहीं होता ,होता है अपने जिद का अनुपालन।जिद इस बात की ,कि सामने वाले कलाकार की कृति में मेरे विचार क्यों नहीं दिख रहे।

ऐसा संभव है क्या।कोई भी कला कलाकार की समझ ,उसके अनुभव की ,उसके चिंतन की अबिव्यक्ति होती है ,उसे हम निर्धारित नहीं कर सकते।एम एफ हुसैन इसी विडम्बना को आजीवन झेलते रहे,तस्लीमा नसरीन और सलमान रश्दी अभी भी झेल रहे हैं।मी नाथूराम बोलतोय का गला शुरु होते ही घोंट दिया जाता है।सिन्स पर इसाइयों को आपत्ति होती है,फायर पर हिंदुओं को,जो बोले सो निहाल पर सिक्खों को।वास्तव में जहां भी कोई वैचारिक मुद्दे आते हैं हरेक समूह की जिद उसमें अपनी बात ढूढने की होती है,हम मानते ही नहीं कि कलाकार को भी अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है।आश्चर्य यह भी है कि इन्हीं समूहों की ओर से तब कोई आपत्ति नहीं आती जब मर्डर और देल्ही बेली जैसी फिल्में आती हैं।सवाल महत्वपुर्ण यह है कि देश में कानून का शासन चलेगा या समूहों का। इस तरह के दबाब में आकर प्रकाश झा रीलिज के पहले उन्हें फिल्म दिखा कर दिखा कर संतुष्ट करना भी चाहें ,तो आखिर कितनों के कहे पर संसोधन कर सकते हैं और कितना, और फिर उसके बाद क्या वह प्रकाश झा की कृति रह जायेगी।

मूल बात यह कि हम विमर्श से डरने लगे हैं,हम में दूसरों को सुनने की सहिष्णुता समाप्त हो गई है।आश्चर्य नहीं कि पत्रकारों पर प्रहार की घटनाएं दिनोंदिन बढते जा रही है।हम भूल जाते हैं कि इसका खामियाजा अंततः हमें ही उटाना होगा।तस्लीमा अपनी बात नहीं रख पा रही तो उनका क्या बिगड रहा, अमिताभ बच्चन या प्रकाश झा को अपनी बात रखने से रोका जाता है तो उनका क्या नुक्शान,बे तो डबल धमाल में लग जायेंगे,जहां कोई विवाद नहीं,हमें विचारों के प्रवाह से महरुम हो जाना पडेगा।