रविवार, 26 जून 2011

बॉलीवुड के बाबाओं का विरोध


             


गुरूदत्त, बलराज साहनी, सलील चौधरी, विमल राय से लेकर राजकपूर, दिलीप कुमार तक की पहचान अपनी राजनीतिक सामाजिक समझ के साथ रही है। लेकिन इस समझ के लिए उन्हें ना तो कभी बयान जारी करने पड़े थे, ना ही धरने प्रदर्शन में शामिल होने की जरूरत पड़ी थी। उनकी समझ और सक्रियता उनकी फिल्मों से अभिव्यकत होती थी, निश्चित रूप से जो कहीं न कहीं दर्शकों के जेहन पर स्थार्इ प्रभाव भी छोड़ती थी। यदि बलराज साहनी फिल्म में हैं तो दर्शक निश्चिंत हो जाते थे कि उसमें समाज के प्रति वैज्ञानिक चिंतन अवश्य दिखेगा। उनकी सक्रियता उनके बयानों से नहीं, उनकी फिल्मों से अभिव्यक्त होती थी। हाल के कुछ वर्षों में बॉलीवुड ने कर्इ मामलों में एबाउट टर्न लिया है तो उसमें एक यह भी है। बॉलीवुड की सामाजिक सक्रियता और राजनीतिक समझ अब फिल्मों से नहीं आती, सीधे बयानों से आती है। बीते दशक में हिन्दी सिनेमा के आधार पर देखें तो महेश भटट की पहचान अश्लीलता के सूत्रधार के रूप में की जा सकती है, लेकिन बयानों के आधार पर वे भारत के सबसे सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जाने जा सकते हैं। मुद्दा कोर्इ भी हो चाहे फारबिस गंज में सरकारी जमीन पर अवैध अधिकार को लेकर हुए गोली काण्ड का या फिर डॉ. विनायक सेन की गिरफ्रतारी का महेश भटट के बयान सबसे पहले जारी होते रहे हैं। अदभुत है हिन्दी सिनेमा की यह समझ जो काम वे जानते हैं उसके माध्यम से सामाजिक बुरार्इयों को तरजीह देंगे और जो काम वे नहीं जानते उसके माध्यम से उसे सुधारने की कोशिश करेंगे।

वास्तव में समाचार माध्यमों के बढ़ते ‘पेट’ का भी यह प्रभाव है। अब रोज अधिक से अधिक खबरे चाहिए। सबो को थोड़ा एक्सक्लुसिव। सबसे आसान होता है बॉलीवुड के दुधमुहें बाबाओं से कुछ उगलवा लेना। यदि लग गया तो तीर, ना तो तुक्का। खबर तो बन ही जानी है। जाहिर है इस चलन ने बॉलीवुड के सितारों को भी यह गलतफहमी दे दी कि अब हर मुद्दे पर उनका बोलना आवश्यक है, इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभा दी फेसबुक और ट्वीटर जैसे माध्यमों ने। जहां रोज अपडेट नहीं हुए तो पिछड़े मान लिये जायेंगे। अब पर्यावरण हो या परिवार हर मुद्दे पर उनका मुंह खोलना जरूरी हो जाता है। भले ही वह निरर्थक ही हो। शाहरूख खान जब बोलते हैं कि बाबा रामदेव को वही करना चाहिए, जो वे करना जानते हैं यानि योग। तो शायद वे यह भूल जाते हैं कि यही सलाह उनके समेत बॉलीवुड के तमाम बाबाओं को भी दी जा सकती है। भैया वही करो जो आप जानते हो।

सलमान खान कहते हैं, मैं किसी बाबा रामदेव को नहीं जानता। मैं तीन ही बाबा को जानता हूँ, अपने बाबा, सांर्इ बाबा और संजु बाबा। वाजिब है इतने बड़े देश में सभी के लिए सभी को जानना संभव भी नहीं। इसपर दिलीप साहब का एक मजेदार संस्मरण है, किसी हवार्इ यात्रा में एक बार उनकी नजर आगे बैठे हुए उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला पर पड़ी। दिलीप साहब उनके पास गये और हाथ बढ़ाकर परिचय दिया, मैं दिलीप कुमार। बिड़ला महोदय ने उत्साह से हाथ तो मिलाया, फिर पूछा आप करते क्या हैं? वास्तव में यह अहम् हमारे बॉलीवुड के सितारों में ही है कि उन्हें पूरी दुनियां जानती है। जबकि आज भी आप उत्तरप्रदेश-बिहार के गांवों में चले जाइये तो लोग मनोज तिवारी और खेसारी लाल को ज्यादा जानते हैं बजाय शाहरूख या सलमान के। छत्तीसगंढ़, झारखण्ड या उड़िसा के जनजातिये इलाकों में चले जाइये सिनेमा वे जानते ही नहीं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप किसे जानते हैं, महत्वपूर्ण यह है कि बताने की जरूरत क्या है आप किसे नहीं जानते। वास्तव में यह कहना भी सलमान के अहम् को प्रतिविम्बित करता है कि जिस व्यक्ति को वे नहीं जानते, उसकी कोर्इ सामाजिक औकात नहीं।

बाबा रामदेव का बॉलीवुड से कोर्इ सीधा सरोकार शायद ही कभी रहा, सिवा इसके कि शिल्पा शेटटी और मल्लिका शेरावत जैसी कुछेक अभिनेत्रियां उनके शिविरों में भागीदारी करती रही हैं। शिल्पा तो शायद अपने योग का डीवीडी भी उन्हें समर्पित करने गर्इ थी। लेकिन आज बाबा रामदेव के खिलाफ बॉलीवुड का ऐका वाकर्इ चकित करता है। राम गोपाल वर्मा से लेकर शाहरूख खान तक और शिल्पा शेटटी से लेकर कविता राधेश्याम तक। सभी अपनी समझ से बाबा के खिलाफ बयानबाजी में लगे हैं। कोर्इ रावण कह रहा है तो कोर्इ ठग। उल्लेखनीय है कि बाबा रामदेव का यह विरोध बॉलीवुड से तब आया जब बाबा ने भ्रष्टाचार और काले धन के प्रति मोर्चा खोला। क्या यह स्पष्ट नहीं करता कि बॉलीवुड को परेशानी बाबा रामदेव से नहीं, बाबा रामदेव के मुद्दे से है।

बीते वर्षों में बॉलीवुड पर संकट के कर्इ बार बादल छाये, कभी वह भी समय था जब अंडरवल्र्ड ने बॉलीवुड पर लगभग कब्जा कर लिया था। सितारों की डेट्स से लेकर फिल्म की रिलीज तक वही तय करते थे। कहा जाता है आधे से अधिक फिल्मों में उन्हीं का पैसा लगाया जा रहा था। राकेश रौशन जैसे प्रतिष्ठित फिल्मकार को धमकी ही नहीं मिल रही थी उसे साकार भी किया जा रहा था। लेकिन बॉलीवुड में उस समय भी यह एकता नहीं दिखी थी। हिन्दी सिनेमा को ना तो अपने हित में, ना ही दर्शकों के हित में इस तरह कभी एक होते देखा गया, फिर भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर इतनी बेचैनी चिंतित करती है। क्या वाकर्इ बाबा रामदेव बॉलीवुड के दुखती रग पर तो उंगली नहीं रख दी?

इसमें कोर्इ शक नहीं कि भारत में काले धन के आमदरफ्त की सबसे सुरक्षित जगह बॉलीवुड रही है। चाहे हसन अली का मामला हो या मधुकोड़ा का या फिर बिहार के पशुपालन घोटाले का। बॉलीवुड से हमेशा इनके स्वागत की खबरें आती रही हैं। बॉलीवुड ने कभी पैसे के रंग को तरजीह नहीं दी। आश्चर्य नहीं कि वित्तिय मामलों में शायद सबसे अराजक इंडस्ट्री है बॉलीवुड। कुछ औद्योगिक कम्पनियों और बैंकों की भागीदारी से उम्मीद की गर्इ थी कि स्थिति नियंत्रित होगी, लेकिन भला कौन काले धन के समुद्र को नियंत्रित करना चाहेगा। सितारों की दर अखबारों को पता होती है, उनके प्रशंसको पता होती है, लेकिन शायद ही आयकर विभाग जानकारी हासिल कर पाता है की किस फिल्म में किस सितारे को कितना मिला। अधिकांश लेन-देन अभी भी बॉलीवुड का जबानी ही होता है। आश्चर्य नहीं कि काले धन और विदेश में निवेश के मुद्दे ने जब नेताओं की नींद छिनी तो बॉलीवुड के बाबाओं के भी होश उड़ गए। सवाल तो है ही कि आखिर वह कितनी वाजिब कमार्इ है जिसकी खपत देश में नहीं हो सकती और उसे खर्च करने के लिए दुबर्इ और शारजाह में संपत्ति खरीदनी पड़ती है।

बाबा रामदेव ने अनशन तोड़ दिया। बॉलीवुड के बाबा लोग भी संतोष की सांस ले सकते हैं। लेकिन बात निकली है तो दूर तक जायेगी। समय है काले धन के मुद्दे के विरोध में अपनी उर्जा गंवाने के बजाय बॉलीवुड अपने घर को साफ कर लेने की कोशिश करे।

शुक्रवार, 24 जून 2011

भोजपुरी सिनेमा- जमीनी हकीकत से मुंह चुराती!



कतई यह आश्चर्य ही है कि बीते दस वर्षों से अपनी कामयाबी पर इतरा रही भोजपुरी सिनेमा के पास मात्र तीन नायक है, रवि किशन, मनोज तिवारी और दिनेस लाल यादव ‘निरहुआ’। हाल के दिनों में जब मनोज तिवारी और रवि किशन कमजोर पड़े हैं तो पवन सिंह की चर्चा भले ही जोर पकड़ने लगी है लेकिन भोजपुरी सिनेमा के साथ जो तीन नाम याद आते हैं वे रवि, मनोज और निरहुआ हीं हैं। नायिका की कतार यहां काफी लम्बी है, रानी चटर्जी, पाखी हेगड़े से लेकर मोनालिसा तक। लेकिन इनमें से शायद किसी की ऐसी स्थिति नहीं जो कट्रीना, करीना और ऐश्वर्या की तरह दर्शकों को सिनेमा घर तक खींच सके। ये फिल्मों में इसलिए होती हैं कि फिल्म में ग्लैमर का होना जरूरी होता है। अन्यथा इनकी मार्केट वैल्यू शून्य है। यह भोजपुरी के नायक भी समझते हैं इसलिए आश्चर्य नहीं कि एक फिल्म में काम करने के लिए अब वे 50 लाख तक मांगने में संकोच नहीं करते। लगभग बजट का आधा।

पिछले दिनों जब एक नामचीन भोजपुरी अभिनेता से 50 लाख की मांग पर सवाल उठाया तो उन्हौंने छूटते ही कहा, ‘रजनीकांत तो एक फिल्म के 80 करोड़ लेते हैं, हम तो उसके सामने कुछ भी नहीं मांगते। वह भी रिजनल फिल्म में हैं, हम भी। हम चाहते हैं हमारा सिनेमा भी उसी उचाई तक पहुंचे’। कौन नहीं मर मिटेगा इस भोलेपन पर! भोजफरी सिनेमा के बेहतर भविष्य की चाहत सराहनीय है, लेकिन यह चाहत यदि नितान्त हवा में हो तो सिर्फ हास्य के क्षण उपलब्ध करा सकती है, और कुछ नहीं। सवाल यह भी है कि रजनीकांत ने पहले ही 80 करोड़ मांगने शुरू कर दिये या फिर इंडस्ट्री को उस लायक बनाने के बाद 80 करोड़ हासिल किए? अपने निजी स्वार्थ में हमारे नामचीन अभिनेता भूल जाते हैं कि उनकी इंडस्ट्री किस लायक है, और उसे बेहतर बनाने के लिए उन्होंने कोशिश क्या की है? वास्तव में यदि भोजफरी सिनेमा के बीते दस वर्षों के इतिहास पर गौर करें तो शायद ही अपनी इंडस्ट्री के विकास और बेहतरी के लिए किसी अभिनेता की कोई कोशिश नजर आ सकती है। कोशिश एक ही हुई अपने पारिश्रमिक में निरंतर बढ़ोतरी की। इन तीनों नामचीनों में से शायद ही किसी ने कभी भोजपुरी सिनेमा के शक्ल को सुधारने की कोशिश की। दावे के साथ यह भी कहा जा सकता है कि इन तीनों में से शायद ही किसी ने अपने निर्माता-निर्देशक या पटकथा लेखक के साथ सार्थक हस्तक्षेप के लिए कभी कोई बैठक की होगी। शायद ही किसी ने अपनी फिल्मों की तकनीकी कमजोरियों पर अप्रसन्नता व्यक्त की होगी। अपनी फिल्मों की सफलता या असफलता के कारणों को जानने की कोशिश की होगी। कहा जा सकता है, अभिनेताओं से इतनी उम्मीदें क्यों? वह इसलिए कि जब फिल्म के बजट के आधे हिस्से की मांग वे करते हैं तो पूरी फिल्म की जवाबदेही से भी वे बच नहीं सकते।

वास्तव में भोजफरी सिनेमा के आरंभिक दौर को याद करते हैं तो नासिर हुसैन के नाम याद आते हैं, राजकुमार शाहाबादी के नाम याद आते हैं, कुंदन कुमार के नाम याद आते हैं, नायक नायिका के नाम याद नहीं आते। लेकिन आज भोजपुरी सिनेमा के इस तीसरे दौर में शायद ही किसी भोजपुरी फिल्मकार का नाम उनके फिल्मों के साथ याद कर सकें, याद आते हैं तो सिर्फ नायकों के नाम। ‘ससुरा बड़ा पइसा वाला’ के साथ मनोज तिवारी, ‘निरहुआ रिक्शावाला’ के साथ निरहुआ तो ‘मार देब गोली....’ के साथ रवि किशन। जाहिर है जब भोजपुरी सिनेमा का पूरा बाजार नायकों के इशारे पर दौड़ रहा हो तो इसकी अच्छाइ-बुराइ से भी इन्हें बरी नहीं किया जा सकता। मेरी स्पष्ट समझ है कि मनोज तिवारी और रवि किशन को भोजपुरी ने लोकप्रियता के उस शिखर तक पहुंचा दिया था, जहां वे भी भोजपुरी के लिए एक ‘पीपली लाइव’ और ‘लगान’ परिकल्पित कर सकते थे, लेकिन उन्होंने नहीं चाहा।

सबसे बड़ी मुश्किल यह रही कि वे भोजपुरी सिनेमा को एक क्षेत्रीय सिनेमा की तरह स्वीकार ही नहीं कर पाये। वे कर भी नहीं सकते थे, क्यों कि असमीया, मलयालम, बंगला और छत्तीसगढ़ी सिनेमा की तरह भोजपुरी सिनेमा का विकास अपनी जमीन पर हुआ ही नहीं। न तो इसका केन्द्र पटना बन पाया, न ही गोरखपुर। एक स्वतंत्र आकाश में विकसित होने के बजाय, इसने हिन्दी के हिमालय की छांव में अपने आपको सुरक्षित पाया। शुरूआत तकनीशियनों से हुइ, बाद में यहां के फिल्मकारों ने भी मुम्बइ में आशियाना तलाश लिया, कलाकार तो तैयार बैठे ही थे। वे भी मुम्बइ बस गये। नतीजा यह हुआ कि तथाकथित लोकप्रियता के दस वर्ष गुजारने के बाद भी भोजफरी सिनेमा की कोइ स्वतंत्र पहचान नहीं बन सकी, और न ही पहचान पाने की कोइ जिद दिखी।

आश्चर्य नहीं कि मुम्बइ में ही विकसित मराठी सिनेमा से प्रेरित होने के बजाय भोजपुरी सिनेमा हिन्दी की भोंड़ी नकल कर संतुष्ट होती रही। इतना ही नहीं हिन्दी के सान्निध्य ने भोजपुरी सिनेमा को भी राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय होने की गलत फहमी दे दी। आज भोजपुरी सिनेमा की बात होती है तो लोग सीधे मॉरीशस, सूरीनाम से शुरूआत करते हैं। बाक्स ऑफिस की बात आती है तो हिन्दी की तरह ये भी पंजाब, महाराष्ट्र, बंगाल, गुजरात के सर्किट की भी चर्चा करते हैं। कुल मिलाकर जब भोजपुरी सिनेमा के बाजार की चर्चा होती है तो भ्रम यह पैफलाया जाता है कि इसका बाजार हिन्दी के बराबर अभी भले ही न हो, होना जरूर चाहिए।

यह गलतफहमी जहां से भी खड़ी की गइ हो, भोजपुरी सिनेमा के लिए सबसे नुकशानदायक रही। इस गलतफहमी ने भोजपुरी सिनेमा को कभी भी अपने बाजार का सही आंकलन करने नहीं दिया। मॉरीशस और सूरीनाम से कमाइ कर पता नहीं कितनी भोजपुरी फिल्में लौट सकीं, इसकी ओवरसीज बिजनेस का कोइ रिकार्ड कम से कम सार्वजनिक तो नहीं हुइ है। लुधियाना, सूरत और मुम्बइ में भी भोजपुरी सिनेमा कितनी कमाइ कर पाती है, लोगों को अंदाजा है। वास्तव में यदि भोजफरी सिनेमा का कोइ तयशुदा बाजार है तो वह है, बिहार और उत्तर प्रदेश के लगभग 200 बी ग्रेड सिनेमा घर। जहां टिकट की दर अभी भी 50 रूपये से 10 रूपये की बीच है। यह सीधा गणित का मामला है कि यदि सारे शो भी हाउसफुल हो तो एक भोजपुरी सिनेमा कितनी कमाइ कर पाती है? लेकिन भोजपुरी सिनेमा से जुड़े लोग इस सीधे से गणित को स्वीकार करने के लिए कतइ तैयार नहीं हैं। उन्हें लगता है यदि तमिल फिल्म 100 करोड़ की बन सकती है तो भोजपुरी की क्यों नहीं? यदि हिन्दी 20 करोड़ की बन सकती है तो भोजपुरी की क्यों नहीं? हम भुल जाते हैं कि जितने सिनेमा घर पूरे बिहार में है उतने अकेले चेन्नई शहर में, हिन्दी फिल्म यदि मल्टीप्लेक्स में तीन दिन चल जाती है तो मुनाफे में चली जाती है, लागत तो वह रिलीज होने के पहले ही तरह तरह के राइट्स से निकाल लेती है। आप को कौन से राइट्स मिलते हैं भाई?

मुश्किल यह है कि जब भी भोजपुरी सिनेमा को उसकी औकात की याद दिलायी जाती है, आप उसके दुश्मन में शुमार कर लिए जाते हैं। भाई साहब, पुरानी कहावत है पांव उतना ही फैलाना चाहिए जितनी बड़ी चादर हो। यदि भोजपुरी सिनेमा के अधिकतम वापसी दो करोड़ की भी मान ली जाय तो किस उम्मीद पर कोइ फिल्मकार 8 करोड़ की फिल्म बनाने की हिम्मत करेगा? और यदि उसने हिम्मत कर भी ली तो क्या फिर दोबारा वह भोजपुरी सिनेमा बनाने की कोशिश करेगा? आश्चर्य नहीं कि सुभाष घई से लेकर सरोज खान और दिलीप कुमार तक न जाने कितने फिल्मकार भोजपुरी की बहती गंगा में हाथ धोने आए लेकिन दोबारा पलटकर नहीं लौट सके। टिके वही जिन्हें भोजपुरी सिनेमा के बाजार की सीमा का अहसास था, चाहे वह अभय सिन्हा हो या संजय सिन्हा या फिर डॉ. सुनील कुमार।

लेकिन बजट इनके लिए भी समस्या बनी रही, जिसका प्रभाव भोजपुरी सिनेमा पर स्पष्ट महसुस किया जा सकता है। दो करोड़ अधिकतम कमाइ वाली फिल्म यदि बहुत उदारता के साथ भी बनायी जाय तो डेढ़ करोड़ से ज्यादा लगाने की हिम्मत कोइ भी समझदार प्रोड्युसर सायद ही जुटा पाए। इस डेढ़ करोड़ में यदि 40 से 50 लाख किसी एक ही कलाकार को देने की बाध्यता हो तो बाकी फिल्म के लिए संसाधन जुटाना कितना मुश्किल हो सकता है, यह भोजपुरी फिल्मकार ही समझ सकते हैं। आश्चर्य नहीं कि भोजपुरी फिल्म के तकनीकी पहलुओं पर गौर करने की कोशिश कोइ भी फिल्मकार नहीं उठाता, क्यों कि गौर करने का अर्थ है अधिक खर्च। और इस अधिक खर्च से बचने की कोशिश में उनकी कोशिश बस किसी तरह औने पौने फिल्म तैयार कर लेने की होती है क्यों कि उन्हें पता होता है कि सिंगल थियेटरों के लिए अब हिन्दी में फिल्में बन ही नहीं रही हैं, वे जो भी बनाएगें उन्हें दिखाना बी ग्रेड शहरों के सिंगल थियेटरों की मजबूरी है। और जब फिल्म पर्दे तक पहुंच गयी तो भला लागत निकलते कितनी देर लगती है। उन्हें यह भी पता है उनकी फिल्में वही देखते हैं जिन्हें कोइ भी फिल्म देख लेनी है। क्या यह आश्चर्य नहीं कि बीते दस वर्षों में या कहें पचास वर्षों में भोजपुरी दर्शकों के सामने कभी कोइ चयन की सुविधा नहीं रही। हमेशा से ही एक ही तरीके से, कमोबेस एक ही पृष्ठभूमि पर, एक ही विषय पर भी फिल्में बनती रहीं। बीते पचास वर्ष में प्रयोग के नाम पर देखें तो भोजपुरी सिनेमा में एक अद्भुत सन्नाटा दिखता है। यह शायद इसलिए कि भोजपुरी सिनेमा भोजपुरी के लिए बनती ही नहीं, बनती सिर्फ बाजार के लिए है।

जबकि उनके बरक्स मलयालम फिल्मों में देखें तो अश्लीलता की बाढ़ है तो अदूर गोपालकृष्णन भी हैं, बाग्ला में बाजार के लिए भी फिल्में हैं तो गौतम घोष भी हैं, मराठी में फूहड़ हास्य है तो ‘श्वास’ भी है। भोजपुरी में ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा? शायद इसलिए कि क्षेत्रीय सिनेमा की तरह इसके प्रति हमने लगाव ही महसूस नहीं किया।

यही माकूल समय है। बड़े बजट और काल्पनिक बाजार का भ्रम छोड़कर छोटे बजट में नये प्रयोगधर्मी भोजपुरी सिनेमा की शुरूआत हो सकती है। जाहिर है इसके लिए बजट का बड़ा हिस्सा सितारों के बजाय हमें शोध और पटकथा पर खर्च करना होगा, कैमरा और संपादन पर खर्च करना होगा। लाइट्स और संगीत का इस्तेमाल सीखना होगा। ‘पिपली लाइव’ और ‘वेलडन अब्बा’ आखिर भोजफरी में क्यों नहीं बन सकती?

निश्चित रूप से इसके लिए भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री को मुम्बइ की सुविधाओं का मोह छोड़कर पटना या गोरखपुर में अपनी जमीन की तलाश करनी पड़ेगी। शायद तभी सितारों को भी अहसास हो सकेगा कि अपनी छोटी सी इंडस्ट्री में उन्हें कितनी बड़ी हिस्सेदारी चाहिए। सोने के अंडे देने वाली मुर्गी के पेट चीरने की कोशिश कभी भी हमें खाली हाथ कर दे सकती है। एक बार नहीं भोजपुरी सिनेमा ने कइ बार दुर्दिन देखें हैं। कोइ नहीं चाहेगा वे दिन दोबारा आए। लेकिन जरूरी है सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को धैर्य से संभाल कर रखने की।

सोमवार, 20 जून 2011

ग्लोबल विलेज में बनारस का निजत्व



          कभी ‘बनारसी बाबू भी बनी थी, यह अलग बात है कि गले में छींट का स्कार्क बांधे और अपनी स्टाइल से कतइ समझौते के लिए तैयार नहीं होने वाले देव आनंद में दूर-दूर तक बनारस को ढूंढना असंभव था। लेकिन बनारस के अनूठेपन का ही प्रभाव था कि चाहे जिस भी रूप में हो, हिन्दी सिनेमा के लिए बनारस से मुकरना कभी संभव नहीं हो सका। इसके घाट, घाटों की पहचान बांस की छतरियां, गंगा की लहरें और लहरों पर तैरती नावें किसी न किसी रूप से रूपहले परदे पर आती रहीं। यह अलग बात है कि इनमें कितनों को बनारस से ले जाया गया था और कितनों को मुम्बइ के स्टूडियो में गढ़ लिया गया था। हद तो तब हो गइ जब पूरी तरह बनारस पर केन्द्रित कहानी ‘वाटर’ को शूट करने के लिए दीपा मेहता श्रीलंका चली गइ, क्यों कि बनारस को बनारस पर बनने वाली यह फिल्म स्वीकार नहीं थी। दीपा मेहता के लिए बनारस महत्वपूर्ण नहीं था, कहानी महत्वपूर्ण थी, आश्चर्य होता है आखिर ‘वाटर’ जैसी कहानी जिसमें सबसे मुख्य पात्र शहर ही हो, बगैर शहर के उसे कैसे चित्रित की जा सकती है। ‘वाटर’ एक बहुत अच्छी पीरिएड फिल्म मानी जा सकती है, ‘ऑस्कर’ तक गइ तो नहीं मानने का कोइ कारण भी नहीं। लेकिन जब उसमें बनारस को ढूंढने की कोशिश करते हैं तो पूरी तरह निराशा हाथ लगती है। और भारतीय दर्शकों को उसे रिजेक्ट करने में देर नहीं लगती। वास्तव में दीपा मेहता बनारस की विशेषता को आत्मसात कर ही नहीं सकी, कथा कहने की हड़बड़ी में उन्होंने बनारस के दिल में प्रवेश करने की जहमत नहीं उठायी, अन्यथा बनारस के गंगा की मटमैली लहरों को वे श्रीलंका के किसी शान्त झील में ढ़ूंढ़ने की कोशिश नहीं करती। वे जरूर समझ सकती थी कि किसी नदी या झील के किनारे सीढ़ियों पर बांस की छतरियां लगा देने भर से बनारस नहीं बन जाता, उसके साथ एक जीवंत वातावरण भी दिखाना जरूरी होता है, जिसमें एक व्यक्ति की कोइ पहचान नहीं होती, पहचान होती है एक समाज की, संस्कृति की।


          2006 में पंकज पाराशर ने बनायी थी, ‘बनारस ए मिस्टिक लब स्टोरी’। उर्मिला और अस्मित जैसे कमजोर अभिनेताओं वाली इस फिल्म की ताकत थी बनारस। शायद इसलिए कि यहां बनारस की तस्वीर नहीं थी, जीवन्त बनारस था। मणिकर्णिका घाट, हरिश्चन्द्र घाट, तुलसी दास घाट के साथ बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय और सारनाथ के दृश्य कथानक में पात्र की भागीदारी निभाते दिखते थे। एक सम्मानित पुरोहित की लड़की और अछूत लड़के की प्रेम कहानी का पीरियेड बनारस में स्वत: साकार हो जाता था। लेकिन आश्चर्य होता है जब कल्पना लाजमी जैसी फिल्मकार जिनकी ‘रूदाली’ जैसी फिल्में अपनी वातावरण की प्रस्तुति के लिए ही जानी जाती है, जब बनारस के महन्थों द्वारा किये गए महिलाओं के शोषण पर ‘चिंगारी’ बनाती हैं तो वहां बनारस सिरे से गायब हो जाता है। सुष्मिता सेन, मिथुन चक्रवर्ती जैसे बड़े सितारों के बावजूद बनारस की कहानी में यदि बनारस उपस्थित नहीं होता है तो वह मामूली सामंती अत्याचार की कहानी बन कर रह जाती है। आश्चर्य नहीं कि ‘चिंगारी’ कल्पना लाजमी की शायद सबसे कमजोर फिल्म मानी जाती है। कमजोर इस अर्थ में कि बनारस को, बनारस की संस्कृति को नहीं समझने की जिद उन्हें कथानक की आत्मा में प्रवेश ही नहीं करने देती, और सुष्मिता सेन का चुनौती पूर्ण अभिनय भी ‘चिंगारी’ को बचा नहीं सका।


          बनारस की विशेषता है कि आप उसे रिप्लीकेट नहीं कर सकते। क्योंकि बनारस कोर्इ भौतिक वस्तु है ही नहीं की तमाम संसाधनों के साथ आप उसके किसी कोने का ढ़ांचा कहीं और खड़ा करलें। आगरा, मुम्बर्इ और दिल्ली की तरह बनारस की पहचान उसके इमारतों से नहीं होती, उसके लोगों से होती है, उसकी संस्कृति से होती है। गंगातट आप कृत्रिम बनाने की कोशिश करले सकते हैं, लेकिन वहां उमड़े लोगों को कैसे निर्मित कर सकते हैं। घाटों पर आपने पात्रों की भीड़ भी जुटा ली लेकिन तय मान लिजिए गंगा के प्रति वह श्रद्धा और सबसे बढ़कर वह अपनापन कभी भी सिर्फ अभिनय के बल पर नहीं आ सकता। वह हरेक बनारसी को विरासत में मिलती है। जैसे इंग्लैंड के बच्चे को अंग्रेजी नहीं सिखानी होती, किसी बनारसी को भी अपने संस्कृति और अपने शहर से प्रेम सिखाना नहीं होता।


          आश्चर्य नहीं कि जब बनारस की पृष्ठभूमि पर कल्पना तलवार ‘धर्म’ परिकल्पित करती हैं तो उन्हें पूरे क्रू के साथ बनारस की गलियों में उतरना ही होता है। होगा शिमला और नैनीताल के सुबह का अदभुत नजारा, लेकिन बनारस के अलसाये सुबह को आप कहीं और के सुबह से प्रदर्शित कर ही नहीं सकते। यह बनारस ही है जहां के सुबह में किसी पंडित के हुमाद और किसी संकरे नुक्कड़ पर फसी सी चाय दुकान के घुंए की गंध एक साथ मिली होती है। वास्तव में बनारस को वही ढ़ूंढ़ सकता है जिसके लिए बनारस को ढूंढ़ना मजबूरी न हो, मामला दिल का हो।


          प्रदीप सरकार की ‘लागा चुनरी में दाग’ की कहानी जब बनारस से शुरू होती है तो वाकइ संतोष देती है। लेकिन यह संतोष खुशी में तबदील होने के पहले ही काफुर हो जाती है, जब देखते देखते कहानी अनियंत्रित होकर सीधे हिन्दी सिनेमा के फार्मूले को समर्पित हो जाती हैं। बनारस हासिये पर बिसुरता रह जात है और कहानी मुम्बइ पहुंच जाती है। 1968 में बनी दिलीप कुमार, संजीव कुमार के ‘संघर्ष’ की याद आज भी कइ लोगों के जेहन में होगी, अफसोस उसके साथ बनारस की याद नहीं आती। आश्चर्य नहीं कि कहने को बनारस तो कइ हिन्दी फिल्मों में दिखा-सुना गया, लेकिन कहानी के एक पात्र के रूप में बनारस की उपस्थिति वाकइ काफी कम रही।


          बनारस है ‘यमला पगला दिवाना’ में भी। लेकिन बनारस की पहचान यहां है ठगों की नगरी के रूप में। धरम सिंह और गजोधर सिंह यानि धर्मेन्द्र और बॉबी देओल बनारस के नामी ठग के रूप में फिल्म में हैं। कोर्इ फर्क नहीं पड़ता यदि वे लुधियाना के ही ठग होते या फिर आम हिन्दी सिनेमा के गणित के अनुसार किसी भी नामालूम सी कल्पित जगह के। पता नहीं हिन्दी सिनेमा ने आखिरकार यह कौन सा कन्वेन्सन स्वीकार्य कर लिया है कि अच्छी कहानी, अच्छे चरित्र, अच्छे वातावरण दिखेंगे तो वे पंजाब, गुजरात में दिखेंगे, जबकि अपराध दिखेंगे तो बिहार-उत्तरप्रदेश का चुनाव कर लिया जायेगा। यह अजीब संयोग है कि इसकी शुरूआत प्रकाश झा ने की और अब अभिनव चौबे जैसे फिल्मकार भी ‘इश्किया’ लेकर गोरखपुर आते हैं तो दर्शकों को बताते हैं कि यहां के बच्चे ‘गांड धोना सीखने से पहले पिस्तौल चलाना सीख जाते हैं’। खुशी होती है जब अनुराग कश्यप ‘गैंग ऑफ वासेपुर’ लेकर बनारस आते हैं। लेकिन अफसोस भी होता है कि, क्यों भाइ, अपनी मातृभूमि के हिस्से गैंगवार की ही कहानी बची थी। आप तो स्वयं बनारस के रग-रग से वाकिफ रहे हैं। ऐसा कुछ करते कि लोग सदियों तक याद रख पाते बनारस को, बनारस की संस्कृति को। क्या आश्चर्य कि ‘यमला पगला दिवाना’ जैसी हार्डकोर कॉमर्शियल फिल्म के लिए ठग भी बनाये जाते हैं तो बनारस के। लेकिन निश्चित रूप से डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी होने के लिए किसी का बनारस में जन्म लेना ही जरूरी नहीं होता जिसे अस्सी की जीवन्तता स्पंदित कर सके।


          चाणक्य के रूप में पूरी भारतीय संस्कृति को आत्मसात कर चुके डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी बनारस को सिर्फ इस लिए ढूंढने की कोशिश नहीं करते कि उन्हें एक फिल्म बनानी है। वे इसलिए ढूंढने की कोशिश करते हैं कि उन्हें बनारस को ढूंढना है। उनकी प्राथमिकता में बनारस है, स्वभाविक है उनके कैमरे में बनारस खुद-ब-खुद सिमटता चला आता है। काशी नाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’, अब यह सवाल अपनी जगह पर है कि उसे उपन्यास माना जाय या नहीं, का चुनाव जब डॉ. द्विवेदी फिल्म के लिए करते हैं तो तय रूप से उनके सामने बनारस का भौतिक परिदृश्य नहीं, बनारस की जीवन्तता होती है। वहां के छोटे-छोटे लोगों के सुख-दु:ख होते हैं, उनके आपसी सरोकार होते हैं, उनके सम्बोधन उनके मोड्युलेशन होते हैं। ‘काशी का अस्सी’ ना तो ‘वाटर’ की तरह तीखी टिप्पणी है, ना ही ‘बनारस ए मिस्टीक लव स्टोरी’ की तरह प्रेम कहानी, यह जीवन की दिनचर्या है। निश्चित रूप से जिसे प्रदर्शित करने के लिए पात्रों का भी सहारा लिया गया है, लेकिन सन्नी देओल जैसे स्थापित छवि वाले अभिनेताओं का जिस तरह से डॉ. द्विवेदी ने बनारसीकरण किया है, उसमें शायद ढ़ेर सारे बनारसी पंडित अपनी छवि ढूंढने की कोशिश कर सकते हैं। सुखद है कि ‘मोहल्ला अस्सी’ के फिल्मांकन के लिए जितने उत्साहित डॉ. द्विवेदी स्वयं रहे, उतना ही उत्साहित बनारस स्वयं भी रहा। ‘तीसरी कसम’ के बाद ये शायद पहला अवसर होगा, जब फिल्मकार के साथ कथाकार भी सेट पर उपस्थित देखे गये। वास्तव में डॉ. द्विवेदी की इस कोशिश ने इस भ्रम को पूरी तरह साफ कर डाला कि बिहार और उत्तर प्रदेश में फिल्मों की शूटिंग नहीं हो सकती। अपनी भोजफरी फिल्मों की शूटिंग के लिए बहाने बनाकर गुजरात और महाराष्ट्र भागने वाले फिल्मकारों के लिए डॉ. द्विवेदी ने एक सबक छोड़ा है।


          एक ओर फिल्माकंन के लिए ‘काशी का अस्सी’ जैसी कृति का चुनाव दूसरी ओर काशी और उसके अस्सी के प्रति यह श्रद्धा निश्चित रूप से डॉ. द्विवेदी को हिन्दी सिनेमा में अलग पहचान देती है। ‘मोहल्ला अस्सी’ की प्रतीक्षा रहेगी, बनारस को ही नहीं, पूरे उत्तर भारत को, क्योंकि उत्तर भारत के किसी शहर के किसी मोहल्ले को अपने पूरे वजूद में दिखने का पहला अवसर होगा यह।


          कोइ फिल्मकार अपनी फिल्म को बनारस जैसे किसी ‘ब्रांडेड’ शहर में शूट करने की कोशिश तभी कर सकता है, जब बनारस एक पात्र के रूप में हो। प्रकाश झा हर बार अपना बिहार, मध्यप्रदेश के किसी शहर में बना लेते हैं, बना सकते है लेकिन बनारस में पटना नहीं बना सकते, ना ही पटना में बनारस बना सकते हैं। बनारस जब भी दिखेगा, बनारस में ही दिखेगा। ग्लोबल विलेज में जहां हरेक शहर कि अपनी विशिष्ट पहचान मिटती जा रही है, जहां अपार्टमेंटों ने लोगों के घरों की तरह उनके शहर की निजी पहचान भी समाप्त कर दी है। बनारस का बचा हुआ निजत्व ही है जो डॉ. द्विवेदी जैसे गम्भीर व्यक्ति को अपने हुनर के साथ आने के लिए बाध्य करता है। काश! यही निजत्व पटना ने भी संरक्षित रखा होता तो प्रकाश झा का काम भी भोपाल से नहीं चल पाता।