एक देश
के रुप में पाकिस्तान से भारत के रिश्ते कभी दोस्ताना नहीं रहे।लेकिन यह भी सच है
कि इसी तनाव के बीच पडोसी होने के नाते औपचारिक रिश्ते भी बने रहे। चाहे क्रिकेट
का हो या कला का। चूंकि दोनों देश की सांस्कृतिक जमीन एक ही रही है इसीलिए तमाम
तनावों के बीच सांस्कृतिक आवाजाही बनी रही, सांस्कृतिक ‘सामग्रियों’ के रुप में ही नहीं,सांस्कृतिक व्यक्तियों के रुप में भी। यहां तक कि पाकिस्तान के कंटेट पर
केंद्रित स्वतंत्र टेलीविजन चैनल तक की शुरुआत हुई।यह भारत की ओर से पाकिस्तान के
तमाम दुर्भावनाओं को नजरअंदाज कर सांस्कृतिक रिश्ते बनाए रखने की कोशिश ही थी कि
‘हीना’ ही नहीं,‘वीर जारा’ और फिर ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी
फिल्में भी बनी। और फिर पाकिस्तानी कलाकारों के लिए हिन्दी सिनेमा के दरवाजे भी
खोल ही नहीं दिए गए,दर्शकों ने उन्हें सर माथे पर बिठाया भी।
वास्तव
में यह कला की खासियत भी है जब हम उससे रु ब रु होते हैं,तो उसे पसंद ना पसंद करने
का कोई दूसरा आधार नहीं होता।सिनेमा को भी सिनेमा के व्याकरण के आधार पर ही हम
पसंद ना पसंद करते हैं।सिनेमा देखते हुए कलाकार की राष्ट्रीयता या उसके चरित्र या
अन्य दीगर जुडी चीजों पर हम ध्यान दे ही नहीं सकते।गुलाम अली व्यक्ति को याद करें
तो उनके बयान,उनकी राष्ट्रीयता याद आती है,लेकिन उनके गजल सुन रहे हों तो आप सिर्फ और सिर्फ उनके गायन से जुडते हैं।
क्या आश्चर्य कि कंगना रनौत भी अपने रील में पाकिस्तानी
गाने का प्रयोग करती हैं। कला और कलाकार में फर्क होता है.कला तमाम सीमाओं से परे होती है,व्यक्ति चाहे वह कलाकार ही
क्यों न हो,सीमाएं होती हैं।आश्चर्य नहीं कि कला को पासपोर्ट
की जरुरत नहीं होती,कलाकार को होती है।
कला को स्वीकार करते हुए अक्सर हम भूल जाते हैं कि कलाकार कोई एलियन नहीं
होता। उनका भी देश होता है,समाज होता है,जाति होती है,धर्म होता है। दिलीप कुमार की फिल्में वैश्विक अपील रख सकती हैं,लेकिन वे हिन्दुस्तानी की पहचान से कैसे मुक्त हो सकते हैं।सलमान खान कलाकार
हैं तो क्यों अदालत में पेशी के समय उन्हें जालीदार टोपी पहनने की जरुरत पड जाती
है।अक्षय कुमार क्यों नमस्कार और शाहरुख क्यों आदाब और इंशा अल्लाह करते हैं। किसी
कलाकार की कला इस सबसे ऊपर होती है,लेकिन व्यक्ति के रुप में
यह कैसे माना जा सकता है कि उसमें सामान्य कमजोरियां नहीं होंगी। कलाकार होने की
यह कोई गारंटी नहीं हो सकती कि वह कोई गलत काम नहीं करेगा।
वास्तव
में जब कलाकार और आतंकवादी की बात होती है तो बरबस आमिर खान अभिनीत ‘सरफरोश’ की
याद आती है।जॉन मैथ्यू की यह फिल्म इतने वर्ष बात जाने के बाद भी शायद ही किसी
भारतीय की स्मृति से निकल सकी है।यह फिल्म एक जांबाज पुलिस अधिकारी की कहानी थी,जो पडोसी मुल्क द्वारा देश
में चलाए जा रहे आपराधिक षडयंत्रों का खुलासा करता है।इस फिल्म में आतंकवादियों के
एक सरगना के रुप में एक विश्व प्रसिद्ध गजल गायक को चिन्हित किया गया था।वह गायक
अपनी कला के बल पर देश की शीर्ष हस्तियों के बीच अपनी पकड मजबूत बनाता है,और उसका उपयोग आपराधिक षडयंत्रों के लिए करता है।सार्वजनिक जीवन में उसके
सौम्य व्यक्तित्व और कलाकार के आवरण से उस पर किसी को शक भी नहीं होता।
निश्चित
रुप से ‘सरफरोश’ एक फिल्म थी,एक कहानी कहती थी,और हम हमेशा
चाहेंगे कि वह कहानी ही बनी रहे।लेकिन यह फिल्म यह तो इशारा करती ही थी कि किसी को
कलाकार कह कर हम उसे देश दुनिया से ऊपर होने का दर्जा नहीं दे सकते। जो तमाम
कमजोरियां गडबडियां एक सामान्य मनुष्य में होती हैं,उससे
वंचित किसी कलाकार को भी नहीं समझा जा सकता।कलाकारों के बारे में भी यही कहा सुना
जाता रहा है,वे तो कलाकार हैं,उन्हें
देशों की राजनीति से क्या लेना देना,पलक झपकते फवाद खान और
माहिरा खान जैसे कलाकार हमारी गलतफहमी साफ कर देते हैं,कि वे पाकिस्तान के हर सही
गलत के साथ हैं,और बाकी हिन्दुस्तान दुश्मन है तो उसके लिए भी है। वास्तव में हम
अपने स्वार्थ या कथित उदारता में यह समझ कर भी नहीं समझना चाहते।
यह तीसरी
बार है जब पाकिस्तान के कलाकारों पर भारत में रोक लगाने की बात की जा रही है।इसके
पहले 2016 में उरी हमले के समय,फिर 2019 में पुलवामा हमले और अब 2025 पहलगाम।कहा
जाता है ये कलाकार तो आतंकवादी नही,फिर इन्हें सजा क्यों। ये सही है कि वे
आतंकवादी नहीं, लेकिन यह कैसे भूला जा सकता है कि वे पाकिस्तानी नागरिक हैं।ये उस देश के
नागरिक हैं, आतंकवादी घटनाओं में जिसकी स्पष्ट भागीदारी देखी
जा रही है। भारत के प्रति जिस तरह की घृणा ये सोशल मीडिया पर जाहिर कर रहे, स्पष्ट
लगता है किसी भी सामान्य नागरिक की तरह उनके लिए भी वह नागरिकता प्रथम थी। इसमें
कुछ गलत भी नहीं,फवाद को एक पाकिस्तानी नागरिक के रुप में यह जाहिर करना भी चाहिए
था।क्या जब हिन्दुस्तान के कलाकार अमेरिका या अन्य किसी देश में काम करते हैं तो
यह स्वीकार हम कर सकते है कि कथित कलाकार होने के नाते वे हिन्दुस्तान के हित की
बात नहीं करें। फिर फवाद या अली जफर या माहिरा जैसे पाकिस्तानी नागरिकों से अपने
देश के खिलाफ बोले जाने की उम्मीद क्यों। सही या गलत,बात जब
देश के फैसले की हो तो देश के साथ कैसै खडा हुआ जाता है यह भारतीय कलाकारों को भी
उनसे सीखना चाहिए।
वास्तव
में जब पाकिस्तानी कलाकार पर रोक की बात कही जाती है तो,यह किसी कलाकार पर रोक की बात
नहीं होती,यह उस देश के नागरिक के प्रति हमारी सामान्य
प्रतिक्रिया होती है,जिस देश ने हमें बीते 77 वर्षों से
बेचैन रखने में कोई कसर नहीं छोडी है।हमारे पास यह जांचने का कोई उपकरण नहीं है कि
कोई अपने देश के हित में किस हद तक जा सकता है,ऐसे में यह
सहज प्रतिक्रिया है कि या तो आप अदनान सामी तरह अपने देश के मोह से मुक्त हो जाओ
या फिर खुल कर अपने देश के साथ दिखो,जो तुम्हारा हक है।
पाकिस्तानी
कलाकारों पर रोक की बात जितनी भावनात्मक है,उससे कहीं ज्यादा व्यवहारिक। यह सही है कि आज उदारीकरण
के दौर में हर व्यक्ति को किसी देश में काम करने और अपने देश को मजबूत बनाने का हक
है,लेकिन यह तब तक ही जायज मान जा सकता है जबतक उस मजबूती से
किसी दूसरे देश की संप्रभुता अखंडता को खतरा न हो। आज जब पाकिस्तानी कलाकार अपनी
हिन्दुस्तानी कमाई का एक बडा हिस्सा टैक्स के रुप में पाकिस्तान को दे रहे होते
हैं,और पाकिस्तान उसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ आतंकवादियों
के नेटवर्क मजबूत करने में लगा रहा होता है तो क्यों नहीं कमाई के इस स्त्रोत का
विरोध होना चाहिए।हम यह क्यों नहीं याद करें कि अपने पेट काटकर जिस पैसे से हम
पाकिस्तानी कलाकारों को अमीर बना रहे होते हैं,उसका इस्तेमाल
हमारे ही खिलाफ होता है।
मुश्किल
यह है कि हमारी उदारता ने हमारी यादयाश्त को कुंद कर रखा है,नहीं तो रोक का यह
तीसरा अवसर नहीं होता।क्या उरी के बाद पाकिस्तान बदल गया था,क्या पुलवामा के बाद
पाकिस्तान बदल गया,फिर हमने क्यों फवाद जैसे पाकिस्तानी कलाकारों के लिए पलक
पांवडे बिछाए।क्यों अबीर गुलाल के लिए फवाद ही जरुरी था।
हम उदार
हैं,हमारे
लिए यह मानना मुश्किल है लेकिन सच यही है कि पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध न तो
कला का विरोध है,न ही भाईचारे का,यह
विरोध है पाकिस्तान का और उसकी नीयत का।