यदि परिवार न होता तो भारत में सिनेमा की नींव ही
न पडी होती। यह सुनने में थोडा अटपटा अवश्य लगे लेकिन दादा साहब फाल्के के जीवन पर
बनी मराठी फिल्म फिल्म ‘हरिश्चंद्रायाची फैक्टरी’ देखने के बाद इस
सच्चाई पर विश्वास करने में कोई शंका नहीं रह जाती। देश को पहला सिनेमा देने के
लिए दादा साहब के साथ उनके परिवार का एक एक सदस्य खडा दिखता है।उनकी पत्नी,उनके
बच्चे,उनके रिश्तेदार..यहां तक कि जब धन जुटाने के लिए घर का एक एक सामान वे बेच
देते हैं तब भी उनका परिवार उनके साथ खडा रहता है। स्वभाविक है परिवार की नींव पर खडे हुए सिनेमा
के लिए विषय के स्तर पर भी परिवार का चयन सबसे सुरक्षित माना जाता रहा। 70 के दशक
में जब छोटे कस्बों में रिक्शे पर सिनेमा के प्रचार हुए करते थे,तब भी हरेक फिल्म
के साथ महान पारिवारिक फिल्म कहने से नहीं चूका जाता था। दारा सिंह तक की फिल्म के
लिए कहा जाता था,मारधाड सीन शिनहरी से भरपूर महान पारिवारिक फिल्म...। परिवार
भारतीय समाज में ताकत का प्रतीक रहा है,यह उस विश्वास को प्रदर्शित करता रहा है कि
परिवार साथ है तो हर संकट का सामना किया जा सकता है। वक्त जैसी फिल्म में एक
भरेपूरे परिवार को भूकंप बर्बाद कर देता,लेकिन यही परिवार फिर एक होकर खडा होता
है। 2006 में आयी राजकुमार संतोषी की ‘फेमिली’ में भी परिवार की
इस ताकत का अहसास किया जा सकता है।2018 में वरुण धवन,अनुष्का की ‘सुई
धागा’ में पूरा समाज ही एक परिवार की तरह खडा होता है, और अपने गृह उद्योग
की रक्षा करता है।
आश्चर्य नहीं कि दिलीप कुमार,राजेन्द्र कुमार,शशि
कपूर,धर्मेन्द्र,जीतेन्द्र से लेकर राजेश खन्ना तक की सफलता की कहानी उनके द्वारा
अभिनीत पारिवारिक फिल्मों के साथ पूरी होती है। राजेश खन्ना की लोकप्रियता की सबसे
बडी वजह ही यही माना जाती है वे उस दौर
में फिल्मों में परिवार लेकर आ रहे थे, जब भारतीय समाज एकल परिवार की ओर बढ रहा
था। ‘आराधना’, ‘कटी पतंग’, ‘दो
रास्ते’, ‘शहजादा’, ‘दुश्मन’,’बावर्ची’ जैसी
कई फिल्में थी जिनमें परिवार के बीच ही समस्याएं खडी होती थी, और परिवार के बीच ही
रोते गाते सुलझा ली जाती थी। इन फिल्मों में पात्रों के साथ दर्शक रोते भी थे और
हंसते भी थे। 80-90 के दशक में खासकर जीतेन्द्र के साथ ‘प्यासा सावन’ और ‘जुदाई’ जैसी
दक्षिण भारतीय फिल्मों की एक बडी खेप आयी, जिसमें परिवार को पूरे मेलोड्रामेटिक
अंदाज में प्रस्तुत किया जा रहा था। ऐसी फिल्मों की महिला दर्शकों ने जमकर सराहना
की और फिर उस दौर में ‘परिवार’,’घर परिवार’,’स्वर्ग
से सुंदर’,’बडे घर की बेटी’,’अमृत’ जैसी
कई फिल्में आयीं। यह नहीं भूल सकते कि इसी दौर में सुखी परिवार की तलाश में बेचैन
विद्रोही नायक की छवि के साथ अमिताभ बच्चन भी आए।
ये भी आश्चर्य कि जिस अमिताभ के आने से हिंदी सिनेमा
में परिवार के बिखरने की शुरुआत हुई, उसी अमिताभ ने ‘बागबान’ के साथ
परिवार को नए सिरे से परिभाषित भी करने की शुरुआत की। बाद में ‘पीकू’ जैसी
फिल्म के साथ परिवार सिकुडता भले ही चला गया,परिवार की बांडिंग किसी न किसी रुप
में दिखती रही। वास्तव में आमतौर परदे पर हम अपने सपने को साकार होते देखना चाहते
हैं, परिवार हमारे पास न हो, हमारे नास्टेलजिया
में परिवार रहा है,शायद इसीलिए ‘हम आपके हैं कौन’, ‘विवाह’ और ‘कभी
खुशी कभी गम’ की तरह परिवार के बीच विचरती लगभग हरेक फिल्म के
प्रति दर्शकों की कमजोरी दिखती रही।
अफसोस अब सिनेमा उन हाथों में हैं जिन्होंने
परिवार देखा ही नहीं।इनके नास्टेलजिया में भी परिवार नहीं है।जाहिर है सिनेमा में
अब व्यक्ति दिखते, व्यक्ति का अहं दिखता,बहाने कुछ भी हो,परिवार नहीं दिखता,
परिवार की ताकत नहीं दिखता।
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