कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है
मौसम बेमिसाल बेनजीर है
ये कश्मीर है,ये कश्मीर है...
1982 में रिलीज हुई अमिताभ बच्चन और राखी
अभिनीत ‘बेमिसाल’ का यह गीत हिन्दी सिनेमा का कश्मीर के प्रति कायम समझ को शब्द देती
लगती है।कश्मीर मतलब खूबसूरती,कश्मीर मतलब डल लेक,कश्मीर मतलब हाउस बोट और
शिकारे।आश्चर्य नहीं कि लगभग तीन दशकों तक कश्मीर हिंदी सिनेमा के लिए खूबसूरती का
पर्याय बना रहा।प्रेम कहानियां कश्मीर में जाकर ही पूरी होती थी,पूरी फिल्म न सही
एकाध गाने तो कश्मीर में होने हीचाहिए। देवदार के जंगल,सेव के बाग,रंगबिरंगे फूलों
की बहार,सफेद उंचे बर्फीले पहाड,नीला चमकता आसमान ...प्रेम कहानियों के लिए कश्मीर
में बस होना ही काफी होता था।
1964 में बनी ‘कश्मीर की कली’ तो सबों को याद है,कितनी सहजता से यह टाइटिल
स्वीकार किया गया था।फिल्म बडी हिट हुई,इसके गाने आज भी सुने जाते हैं। बात परस्पर
विश्वास की है,आज ऐसे टाइटिल सोचे भी नहीं जा सकते खैर,यह याद करना मुश्किल है कि
कश्मीर में शूट होने वाली पहली फिल्म कौन सी थी।यह अवश्य है कि 1963 में रामानंद
सागर की ‘आरजू’ में कश्मीर की खूबसूरती को हिंदी दर्शकों ने पहली बार अहसास किया।ए फूलों
की रानी, बहारों की मलिका,तेरा मुस्कुराना गजब हो गया... के बैकग्राउंड में झांकती
कश्मीर की खूबसूरती गीत के प्रभाव को दूना कर देती है।यह प्रेम कहानियों का दौर
था,शम्मी कपूर खिलंदडे नायक के रुप में शीर्ष पर थे,उनकी अठखेलियों के लिए कश्मीर
से बेहतर जगह नहीं हो सकती थी।याहू की गूंज के साथ बर्फ की पहाडियों पर जब फिसलते थे तो कश्मीर जैसे लाइव हो उठता था।‘जंगली’,’जानवर’,’कश्मीर
की कली’ जैसी न जाने कितनी फिल्में कश्मीर की खूबसूरती के दस्तावेज के रुप
में देखी जा सकती हैं।
यह कश्मीर की खूबसूरती का ही कमाल था कि दर्शक
बार बार एक ही दृश्य बार बार देखते लेकिन उनका जी नहीं भरता। लेकिन यह भी सच है कि
हिंदी सिनेमा में कश्मीर का उपयोग मात्र दृश्यात्मकता के लिए हो रहा था,न तो
कश्मीर कहानी का हिस्सा बन पा रही थी, न ही कश्मीर का जन जीवन संस्कृति को जगह मिल
पा रही थी।
ऐसे में शशि कपूर की ‘जब
जब फूल खिले’ प्रेम के मिठास में पगी होने के बावजूद एक अलग आस्वाद की याद दिलाती
है।एक अमीर टूरिस्ट और एक शिकारे वाले के बीच पनपती प्रेमकथा के बीच दर्शकों ने
वहां के जीवन को भी झांकते देखा था।उनके जीवन के संघर्ष भले ही कहानी के हिस्सा
नहीं थे,उनकी गरीबी कश्मीर की खूबसूरती के पीछे की कलई अवश्य एक सीमा तक खोलती
लगती थी।टूरिस्ट नायिका को घोडे पर ले जाते नायक का यह गुनगुनाना ...एक था गुल और
एक थी बुलबुल...कहीं न कहीं ‘तीसरी कसम’ की तरह कश्मीर की लोकगाथा से जोडने की एक कोशिश लगती थी।महत्वपूर्ण
यह कि शिकारे वाले और अमीर पर्यटक की इस प्रेमकथा में अमीरी गरीबी मुद्दा बनती
थी,कश्मीरी होना मुद्दा नहीं था। वह 1964 था, आज कश्मीर का प्रतीक धर्म हो गया
है,यह वह समय था जब कश्मीर सिर्फ कश्मीर के रुप में जाना जाता था।
यह वह दौर था जब कश्मीर की पृष्ठभूमि पर
फिल्में सोची जाती थी,लिखी जाती थी और
कश्मीर में ही शूट की जाती थी।कहा जाता है कश्मीर की फील पटकथा में लाने के लिए
फिल्म के पटकथा लेखक और गीतकारों को खास तौर पर कश्मीर भेजा जाता था। लेकिन यह भी
कमाल है कि फिल्मों में कश्मीर तो दिखता था,कशमीरी नहीं दिखते थे।शायद यह हिन्दी
सिनेमा की सीमा भी रही है।कश्मीर की पवित्र वादियां पवित्र प्रेम कहानियों के लिए
84-85 तक आकर्षित करती रही।सन्नी देओल की लांचिंग के लिए ‘बेताब’ की
तैयारी शुरु हुई।एक अमीर बिगडैल लडकी और सीधे साधे किसान लडके की प्रेमकथा।राहुल
रवेल इस कहानी को पहलगाम लेकर चले गए।‘बेताब’ के पिक्चर पोस्टकार्ड जैसे दृश्य आज भी कश्मीर
की एक अलग ही छवि बयान करते हैं।आज भी पहलगाम की वह घाटी बेताब वैली के नाम से
पर्यटकों को खास तौर पर दिखाई जाती है।
वास्तव में सिनेमा की शूटिंग किसी क्षेत्र का
स्वरुप तभी तक नहीं बदलती जब तक शूटिंग चल
रही होती है,वर्षों वर्ष उसका प्रभा कायम रहता है।आखिर कोई तो कारण है कि
स्वीटजरलैंड में झील और सडक यश चोपडा के नाम पर कर उन्हें सम्मानित किया जाता है।
किसी फिल्म की शूटिंग जब तक चल रही होती है तब तक तो स्थानीय व्यापार को लाभ मिलता
ही है।फिल्म बन जाने के बाद ह पर्यटन उद्योग के लिए बगैर कहे ब्रांड एम्बेस्डर का
काम करती है।यश चोपडा की मल्टीस्टारर ‘कभी कभी’ भी मुख्य रुप से कश्मीर में शूट हुई थी।
अमिताभ बच्चन राखी या फिर ऋषि कपूर नीतू सिंह के साथ कश्मीर जिस तरह लुभाता
था,आंकडे बता सकते हैं कि कभी कभी से कश्मीर के पर्यटन को कितना लाभ हुआ होगा।यहां
राजकपूर की अलहदा फिल्म ‘बाबी’ को भी नहीं भूला जा सकता।पता नहीं कितने किशोर 75-76 में स्कूल बैग
में कपडे रख ‘हम तुम एक कमरे में बंद हो...’ वाला काटेज ढूंढने निकल गए थे।यह वह समय था जब
सिनेमा के लिए खूबसूरती का पर्याय कश्मीर था।निश्चित रुप से सिनेमा में एक बडा
संसाधन इन्वाल्व होता है,किसी फिल्मकार को सिर्फ खूबसूरती आकर्षित नहीं कर सकती।यश
चोपडा यदि स्वीटजरलैंडके प्रति आकर्षित थे तो वजह वहां की खूबसूरती को साथ वहां
मिलने वाली सहुलियते भी थी।आश्चर्य नहीं कि हिंदी सिनेमा में एक दौर वह भी आया जब
कश्मीर कीतरह कोई भी फिल्म स्वीटजरलैंड के बगैर पूरी नहीं होती थी।मतलब स्पष्ट है
कि यदि तीन दशकों तक कश्मीर हिंदी सिनेमा का सबसे प्रिय लोकेशन रहा तो इसकी वजह
वहां मिलने वाली सहुलियते,सहयोग और सुविधाएं भी रही होंगी।एक बडे क्रू के साथ ‘बेताब’
जैसी बडी फिल्म की पूरी शूटिंग बगैर स्थानीय सहयोग के संभव हो ही नहीं सकती।किनका
सहयोग मिलता था,कश्मीरयों का।क्यों..शायद इसलिए कि तब तक उन्हें अहसास नहीं कराया
जाता था कि ये हिन्दुस्तानी हैं और तुम कश्मीरी हो।
तस्वीर बदली 1990 से,जब घाटी में आतंकवाद ने
अपनी दखल बढाने की शुरुआत की।घाटी के सीधे शीधे लोग पीछे हटते गए और बंदूक के बल
पर आतंकवादी क्मीर की सांसों को अपने नियंत्रण में लेते चले गए।कभी समय था जब
कश्मीर में 19 सिनेमाघर थे,अकेले श्रीनगर में
11 सिनेमाघर थे,जहां कालेज की लडकियां ग्रुप बना कर सिनेमा देखने जाया करती
थी।ये सिनेमाघर किसी न किसी रुप में शेष भारत की सांस्कृतिक हलचल,संवेदना से भी
कश्मीर को जोडे रखने का काम करती थी।जाहिर है धर्म के बहाने आतंकवादियों ने सबसे
पहली चोट सिनेमाघरों पर की।एक आदेश से सारे सिनेमाघर बंद करवा दिए गए। नेमा देखना
धर्मविरोधी करार दिया गया।1999 में सरकार की कोशिशों से सिनेमाघर फिर से कलने की
कोशिश की गयीं तो बयानक हमला कर दर्शकों को निशाना बनाया गया।हालात बिगडे तो
सिनेमा भी कश्मीर के विकल्प की तलाश में विदेशों की ओर मुड गई।फिल्मकारों की यह
मजबूरी थी और आतंकवादियों की सफलता कि शेष भारत से बने इस सांस्कृतिक पुल को उसने
ध्वस्त कर दिया था।
कश्मीर का यह बदला स्वरुप लंबे अंतराल के बाद दिखा
1992 की तमिल फिल्म ‘रोजा’ में,जो बाद में कई भाषाओं में डब होकर आयीं और बदलते कश्मीर को
रेखांकित करने में सफल रही।‘रोजा’ की सफलता से उत्साहित मणिरत्नम ने
1998 में फिर हिंदी में शाहरुख खान को लेकर ‘दिल से’ बनायी।कश्मीर के दहकते आतंकवाद के बीच प्रेम
की यह संवेदनशील कहानी चली तो नहीं,लेकिन चल छैयां छैयां..जबान पर चढ कश्मीर की
याद आज भी दिलाती है।यह भी अजीब है कि जब परदे पर कश्मीर का दिखना बंद हो गया तो
कश्मीर की कहानियां दिखने लगी। मिशन कश्मीर, यहां, एल ओ सी कारगिल, लक्ष्य और फिर
हैदर। आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर बनी इस तरह की अधिकांश फिल्मों में कश्मीर की
कोमलता की जगह बारुद का ढेर दिखता था।इनमें से कितनी झूठ और कितनी सच थी,यह तो समय
तय करेगा।लेकिन यह भी सच है कि अपनी संवेदना के अनुरुप इस तरह की विषय पर बनी
अधिकांश फिल्मों में आतंकवाद को जस्टिफाई और ग्लोरीफाई करने की कोशिश की गई।यश
चोपडा ‘फना’ जैसी प्रेमकथा में कश्मीर के मामले पर जनमत संग्रह की बात करते हैं,वह
भी सिर्फ भारतीय हिस्से में।वे आतंकवाद को कश्मीर की आजादी की लडाई के रुप में
स्थापित करते हैं।
अब जब कश्मीर 370 की सीमा से आजाद हो गया है हम
विश्वास कर सकते हैं बडे परदे के लिए आतंकवाद की कहानिया इतिहास बन जाएगी और फिर
एक बार हम देख सकेंगे,सुन सकेंगे..
साथी ये हमारी तकदीर है
कितनी खूबसूरत ये कश्मीर है
परदे पर लद्दाख
2009 में आयी ‘थ्री इडियट’ देश
की शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करने में कितना सफल रही यह तो राम जाने लेकिन यह
निःसंदेह कहा जा सकता है कि लद्दाख को आम भारतीयों के आकर्षण के केन्द्र में ला
दिया।यह है सिनेमा की ताकत जिस झील के
किनारे थ्री इडियट का क्लाइमेक्स फिल्माया गया था,वहां साल में 4 लाख से अधिक
पर्यटक पहुंच रहे हैं।करीना कपूर का वह पीला स्कूटर अभी भी वहां है जिस पर बैठ लोग
तस्वीरें लेते हैं। ‘थ्री इडियट’ में दिखती लद्दाख की निश्छल खूबसूरती नए की तलाश में भटकती हिन्दी सिनेमा के लिए भी
आकर्षण का केन्द्र बनी और ‘ट्यूबलाइट’ जैसी बडी फिल्म के साथ सलमान पहुंचे।इसके पहले पूजा भट्ट को लद्धाख
में शूटिंग का श्रेय जाता है जिन्होंने अपनी पहली फिल्म ‘पाप’ की
पूरी शूटिंग लद्दाख को मोनेस्ट्री और पहाडियों में की।शाहरुख खान यश चोपडा की ‘जब
तक जान हैं’ को लेकर लद्दाख पहुंचे थे।उल्लेखनीय है कि आज लद्दाख की पहचान सिर्फ
शूटिंग लोकेशन के रुप में नहीं,सिनेमा में सार्थक हस्तक्षेप के लिए भी है।वहां के
या फिल्मकार अपने सीमित संसाधनों में अपने लोगों के साथ फिल्म बनाकर राष्ट्रीय
पहचान दर्ज कर रहे हैं,यहां बीते वर्ष सर्वश्रेष्ठ फिल्म के रास्ट्रीय पुरस्कार से
सम्मानित ‘वाकिंग विद द विंड’ का स्मरण स्वभाविक है।बीते कई वर्षों से आयोजित होने वाला लद्दाखी
फिल्म फेस्टिल में देश और दुनिया के नामचीन फिल्मकार शिरकत कर रहे हैं।इसे दुनिया
में सबसे अधिक उंचाई पर होने वाला फिल्म फेस्टिवल माना जा रहा है। अब जबकि लद्दाख
को एक अलग केंन्द्र शासित प्रदेश बनाने का निर्णय लिया जा चुका है,निश्चित रुप से
सिनेमा में एक प्रभावशाली हस्तक्षेप के लिए हमें ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी
पडेगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें