आखिरकार शाहरुख खान भी ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ पर सवार हो गए। हिन्दी सिनेमा के लिए
दक्षिण भारतीय जमीन जिस तरह सफलता के खदान में तब्दील होती जा रही थी, शाहरुख के
लिए लम्बे समय तक धौर्य रख पाना संभव भी नहीं था। क्यों कि शाहरुख
जैसे सितारों को अपनी पहचान अंततः बाक्स आफिस सफलता में ही सुरक्षित दिखायी देती
है।यह बात सही है कि हिन्दी के तमाम वरिष्ठ सितारों में शाहरुख ही एकमात्र बच रहे
थे जिन्होंने सफलता के लिए दक्षिण के आगे हाथ नहीं पसारे थे। लेकिन लगता है कमाई
में आगे निकलते सितारों ने कहीं न कहीं अपने मैनरिज्म पर उनके विश्वास को कमजोर
किया है,कि रोहित शेट्टी और दक्षिण, सफलता के पर्याय बन चुके दो गारंटेड ब्रांड को
उन्हें अपने साथ लेना पडा। जाहिर है जिसका असर भी दिखा, कहते हैं पहले तीन दिनों
में ही 100करोड की कमाई कर ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ ने इतिहास रच दिया,जबकि शाहरुख की ‘रा वन’ और ‘जब तक है जान’ दोनों ही फिल्मों
को 100 करोड पार करने में पसीने छूट गए थे।जाहिर है हिन्दी सिनेमा में दक्षिण की
लोकप्रियता एक बार फिर स्थापित हो गई। लेकिन क्या वाकई हिन्दी समाज में इसे दक्षिण
की लोकप्रियता का प्रतीक माना जा सकता है।
सच यही है कि दक्षिण भारतीय फिल्मों के रिमेक के
रुप में आयी अधिकांश फिल्मों को सप्रयास उनकी वास्तविक पहचान से बचाकर रखने की
कोशिश की जाती है,सिर्फ एक्शन दृश्यों को छोड दें तो उन्हे किसी भी सामान्य हिन्दी
फिल्म से अलग नहीं किया जा सकता,यहां साजिद खान की ‘हिम्मतवाला’ जरुर अपवाद है जिसमें सीन दर सीन कापी
करने की कोशिश की गई थी,और ऐतिहासिक रुप से असफल हुई। शाहरुख की ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ दक्षिण से प्रभावित
बाकी फिल्मों से इस अर्थ में अलग है कि जहां ‘गजनी’, ‘बाडीगार्ड’, ‘राउडी राठौड’, ‘सिंघम’ जैसी फिल्मों में दक्षिण भारत ढूंढना भी
मुश्किल होता है, वहीं ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ में रिमेक नहीं होने के बावजूद सिर्फ और सिर्फ
दक्षिण भारत ही दिखता है। कथकली से लुंगी तक,नायिका के खूबसूरत गजरे से नारियल
काटने वाला गंडासे लेकर भागते बदसूरत एक्सट्रा तक,यहां दक्षिण भारत की हरेक पहचान
को स्थापित करने की कोशिश की गई है। कह सकते हैं रिमेक के नाम पर जहां पहले दक्षिण
को उसकी जमीन से काट कर हिन्दी सिनेमा तक लाने की कोशिशें हुई थी,यह पहली बार है
जब हिन्दी सिनेमा को दक्षिण की जमीन पर ले जाने की कोशिश दिख रही है।ठीक वैसै ही जैसे
आमतौर पर इसे पंजाब और कभी कभी बंगाल ले जाने की कोशिश दिखती है।
‘चेन्नई एक्सप्रेस’ की कहानी उत्तर भारत से शुरु होती है,और
दक्षिण भारत में पूरी होती है।वास्तव में यह उत्तर दक्षिण के नाभिनाल संबंध को
स्थापित करती है,अपने रोचक अंदाज में। यह हर उस दादा दादी की कहानी हैजिसे देश को
एक समझने के लिए किसी राष्ट्रीय एकता के नारे की जरुरत नहीं। वह राजनीतिक विभाजन
नहीं जानता,न जानना चाहता है,वह रामेश्वरम, तिरुपति, पांडिचेरी, हरिद्वार,
द्वारिका,वैष्णोदेवी जानता है,उसे फर्क नहीं पडता कि ये तेलांगना में है कि
उत्तराखंड में। वह जन्म लेता है मुम्बई में और अस्थि विसर्जन चाहता है हरिद्वार और
रामेश्वरम में। राहुल(शाहरुख खान) के मां बाप बचपन में ही गुजर चुके हैं। दादा
दादी ने उसे पाला है। दादा दादी की देखभाल में उसकी उम्र के 40 वर्ष निकल जाते
हैं,वह न तो प्यार के लिए समय निकाल पाता है,न ही उसकी शादी हो पाती है। अपने जीवन
की एकरसता दूर करने वह दोस्तों के साथ गोवा जाने का प्रोगाम बनाता है,कि तभी उसके
दादा की मौत हो जाती है,और उसकी दादी उसे दादा की अस्थियों को रामेश्वरम में
विसर्जित करने की जवाबदेही सौंपती है। राहुल यह मान कर निकलता है कि अस्थियों को
गोवा में ही विसर्जित कर देगा,लेकिन ट्रेन में उसकी मुलाकात संयोगवश
मिनियम्मा(दीपिका)से होती है,जो जबरन विवाह के डर से अपने पिता के चंगुल से भाग
निकली थी,लेकिन भाइयों द्वारा पकडे जाने के बाद अपने गांव लौट रही होती है। राहुल
भी मिनियम्मा के साथ उसके गांव पहुंच जाता है। जहां उसके पिता का राज चलता है।
हमेशा की तरह ताकत और इमोशन की लडाई चलती है,और अंततः इमोशन की जीत होती है। कहानी
भले कुछ खास नहीं लगती हो,लेकिन इसके साथ जुडे तत्व चलते चलते ढेर सारे मुद्दों को
उकेरते चलते हैं,जो कहीं न कहीं रोहित शेट्टी की फिल्म में बोनस की तरह दिखता है।क्योंकि
रोहित शेट्टी से और चाहे जितनी उम्मीद रख लें,किसी मैसेज की उम्मीद तो नहीं ही रख
सकते हैं।लेकिन यहां रोहित कई जगहों पर ठोस मैसेज के साथ दिखते हैं।इसका अंदाजा
गाने के इस बोल से लगाया जा सकता है...मैं कश्मीर,तू कन्या कुमारी,नार्थ साउथ की
देखो मिट गई दूरी ही सारी।..एक तरफ झगडा है,साथ तो फिर भी तगडा है। दो कदम चलते
हैं तो लगता है आठ। दो तरह के फ्लेवर हैं,सौ तरह के तेवर। दरबदर फिरते हैं जी,फिर
भी अपना ठाठ है। .....महत्वपूर्ण है कि यदि आखिरी दृश्य में शाहरुख के इमोशनल भाषण
को छोड दें तो ये मैसेज फिल्म में काफी सहजता से आते हैं,जिसे तत्काल हम भले ही
हंसी में उडा देते हैं,लेकिन कहीं न कहीं वे अवचेतन में जगह बनाने का सामर्थ्य
रखती हैं।
फिल्म के अंतिम दृश्य में राहुल का लंबा संवाद
है,जिसमें वह आजादी की 66 वी वर्षगांठ में लडकियों की आजादी को जरुरी भी बताता
है।लेकिन यह सारा व्याख्यान हास्यास्पद हो जाता है,जब मिनियम्मा को जीतने के लिए
उसे पिता द्वारा पसंद किए गुंडे से युद्ध भी करना होता है। और आश्चर्य कि जीतने के
बाद ही नहीं,उस गुंडे द्वारा अनुमति दिए जाने के बाद ही वे अपनी बेटी का हाथ छोडते
है। फिल्म के आखिरी दृश्यों में सामने खडी लडकी और उसे हासिल करने के लिए दो लोगों
के बीच जंग देख ऐया लगता है शानदार दावत के आखिरी निवालें में कंकड आ गया हो। शानदार
दावत इस अर्थ में कि पूरी फिल्म में दक्षिण भारत की विलक्ष्ण खूबसूरती कहीं पलक
झपकाने का अवसर नहीं देती,कह सकते हैं और कुछ नहीं तो दक्षिण भारत के विहंगम
प्राकृतिक सौंदर्य के लिए ही यह फिल्म कई बार देखी जा सकती है।वास्तव में चेन्नई
एक्सप्रेस देखते हुए अहसास होता है,देश के आधे हिस्से से किस कदर दूर हैं हम। फिल्म
में मिनियम्मा तमिल और हिन्दी के साथ मराठी भी बोलती है,जब नायक उसके मराठी बोलने
पर चकित होता है,तो वह बोलती है,जब तुम तमिल सीख सकते हो तो मैं मराठी क्यों नहीं
सीख सकती। फिल्म में लगभग आधे संवाद तमिल में हैं।जिसे कभी कभी मिनियम्मा अनुवाद
कर बताती है,लेकिन अधिकांश स्थानों पर भाव से अर्थ निकाल लेते हैं।वास्तव में
चेन्नई एक्सप्रेस तब सवाल करते लगती है,जब वहां दक्षिण के धुर देहात में हिन्दी
बोलने समझने वाले लोग दिख जाते हैं,जबकि मुम्बई से गया राहुल नायिका और उसके पिता
के नाम का भी उच्चारण नहीं कर पाता।
चेन्नई एक्सप्रेस में रोहित शेट्टी यही स्थापित
करने की कोशिश में दिखते हैं कि भौगोलिक,राजनीतिक और भाषायी स्तर पर हम भले ही अलग
दिखते हों,संवेदना और संस्कृति की एक जमीन है,जहां हम एक हो जाते हैं।राहुल और
मिनियम्मा गुंडों से बच कर भाग रहे होते हैं, राहुल को याद भी नहीं कि उसके दादा
का अस्थि कलश पीछे ही छूट गया है,तभी मिनियम्मा अपनी सारी चिन्ता छोड अस्थियां
लाने दौड जाती है। इतना ही नहीं फिल्म में और भी बहुत कुछ है जो उत्तर-दक्षिण को एक जमीन
पर दिखाने की कोशिश करता है।मिनियम्मा के पिता का अपने गांव कोंबन के इलाके में
तूती बोलती है।मजा आता है जब देखते हैं ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ को दो स्टेशनों के बीच ठीक गांव के सामने
चेन खींच कर रोक लिया जाता है,और मिनियम्मा सहजता से बोलती है,हमलोग तो ऐसा ही ‘करती’,जहां हम खडा हो ‘जाती’ स्टेशन वहीं से शुरु
होती है।‘अभीतक
हिन्दी सिनेमा में अपराधिक इलाके के रुप में मोतिहारी,लालगंज और रामगढ ही दिखाया
जाता रहा है,पहली बार रोहित शेट्टी दक्षिण भारत के किसी ‘कोंबन’ को दिखाते हैं,जहां या तो गुंडे हैं या
गुंडों का साथ देने वाले,जहां अपराध का राज इस कदर चलता है कि पुलिस
भी पनाह मांगती है।
उम्मीद है ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ हिन्दी सिनेमा को दक्षिण तक ले जाने में
सफल हो सकेगी और हिन्दी दर्शकों को अपने ही देश के एक बडे हिस्से को और भी करीब से
जानने का अवसर मिल सकेगा।
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