कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
नायिका अपने
जमीन्दार पिता को कविता सुना रही होती है।नायक कविता पूरी करते हुए दृश्य में
प्रवेश करता है,
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
और कविता के बारे में ही नहीं,कविता के रचयिता बाबा नागार्जुन के बारे में भी
विस्तार से बताता है।उनके मैथिली उपनाम वैद्यनाथ मिश्र यात्री तक।किसी भी फिल्म के
लिए बाबा नागार्जुन की यह कविता यू एस पी या कहे विशिष्ट आकर्षण हो सकती थी। जैसा
बाबा की ‘मंत्र’ कविता संजय झा
की अल्प चर्चित फिल्म ‘स्ट्रिंग्स’ में थी।इसी ‘मंत्र’ कविता को लेकर संजय झा को अदालत तक का सामना करना पडा और
अंततः फिल्म प्रदर्शित नही हो सकी।लेकिन जहां कहीं भी कुंभ मेले पर केंद्रित फिल्म
‘स्ट्रिंग्स’ देखी गई,बाबा के
‘मंत्र’ को फिल्म की
विशिष्टता के रुप में स्वीकार किया गया।
यूं तो आमतौर पर हिन्दी कविता और हिन्दी सिनेमा में छत्तीस का ही रिश्ता रहा
है, लेकिन यह भी सच है कि परदे पर जब भी हिन्दी कविता ध्वनित हुई है,लंबे समय तक
याद ही नहीं रखी गई,फिल्म की प्रतिष्ठा में भी इजाफा हुआ है,चाहे वह ‘अर्धसत्य’ में ओम पुरी की
आवाज में दिलीप चित्रे की कविता का पाठ हो या ‘सिलसिला’ में अमिताभ बच्चन की गंभीर आवाज में हरिवंश राय बच्चन की
कविता का पाठ।लेकिन ‘लुटेरा’ में पाखी(सोनाक्षी सिन्हा) और वरुण(रणबीर सिंह) द्वारा
बाबा नागार्जुन की ‘अकाल’ कविता का पाठ हिन्दी भाषियों को थोडी देर के लिए गुदगुदाता
अवश्य है,लेकिन अंततः पटकथा में पैबन्द का ही अहसास देती है।1953 के बंगाल के एक
छोटे से जमींदार के घर में बाबा नागार्जुन के कविता संग्रह की उपस्थिती जहां सहज
स्वीकार्य नहीं होती,वहीं बंगाल के एक गांव में रहने वाली युवती से खरी हिन्दी में
कविता पाठ भी निर्देशक द्वारा मेहनत से तैयार किए गए बंगाल के वातावरण को बाधित
करता है। यह सवाल तो अपनी जगह है ही कि जब
1953 के पीरिएड को फिल्म में पूरी तरह से स्थापित किया जा रहा था,लगभग उसी वर्ष
रचित कोई हिन्दी कविता बंगाल के किसी गांव तक कैसे पहुंच जा सकती थी।यह सही है कि
उस समय बंगाल और मिथिला में सांस्कृतिक निकटता थी,लेकिन निश्चित रुप से वह निकटता इस
हद तक तो नहीं ही थी कि बंगाल के गांव में रवीन्द्र संगीत के स्थान पर बाबा
नागार्जुन की कविता पढी जा सके।
चेखव ने लिखा था,यदि नाटक के पहले दृश्य में दिवार पर बंदूक टंगी दिखाई जा रही
हो तो निश्चित रुप से उसे अंतिम दृश्य तक चलनी चाहिए।विक्रमादित्य मोटवाणे ‘लुटेरा’ के शुरुआती
दृश्य में ही बाबा नागार्जुन की कालजयी कविता ‘अकाल’ का उपयोग तो कर लेते हैं,लेकिन क्यों ,यह अंत तक स्थापित
नहीं हो पाता। यदि नायिका के हिन्दी अध्ययन की पृष्ठभूमि के रुप में या
पूर्वपीठिका के रुप में इस पाठ को दिखाया जाता तब भी इस पाठ की सार्थकता समझी जा
सकती थी। फिल्म के शुरुआती दृश्यों में जब बंगाल और 1953 को स्थापित करने की कोशिश
निर्देशक कर रहा होता है,शायद रवीन्द्र संगीत या शरत साहित्य की चर्चा दृश्य को
ससक्त बनाने में सहायक हो सकती थी।लेकिन यह चूक दाल में कंकड की तरह खटकती अवश्य
है,शानदार तडके के साथ बनी दाल के स्वाद को प्रभावित नहीं कर पाती।
सिनेमा के जिस परदे पर दो हफ्ते पहले ‘ये जवानी है
दिवानी’ गुजर चुकी हो,वहां ‘लुटेरा’ जैसी दुखांत
प्रेमकथा की उपस्थिती ही विस्मित करती है। उल्लेखनीय है कि विक्रमादित्य ने इस
प्रेमकथा को ओ हेनरी की प्रसिद्ध कहानी ‘द लास्ट लीफ’ से भी जोडने की कोशिश की है,हालांकि इसकी झलक फिल्म के
आखिरी हिस्से में ही मिलती है। फिल्म आजादी के बाद हिन्दुस्तान,खासकर बंगाल के
जमीन्दारों की बिगडते हालातों को रेखांकित करते शुरु होती है। यह विक्रमादित्य का
निर्देशकीय कौशल ही है कि जमींदार की हवेली में मन रहे दुर्गापूजा के बीच ही वे
अवसाद की रचना करते हैं,जो शुरुआत से ही फिल्म के मूड को स्थापित कर देता है।परदे
पर दुर्गापूजा की भीडभाड भी होती है,रामलीला भी, लेकिन सिर्फ लाइट और रंग पर
नियंत्रण रख वे दर्शकों को इसके लिए तैयार करते हैं कि आगे उन्हें त्योहार का
उत्साह नहीं,जीवन के दुख से रु ब रु होना है। रामलीला देखते देखते ही जमींदार की बेटी
पाखी की सांस खिंचने लगती है,उसे अपने कमरे तक ले जाने के क्रम में हवेली का असीम
विस्तार जहां जमींदारी के समृद्ध दिनों की ओर इशारा करता है वहीं उसका सूनापन और
अंधेरा आने वाले दुर्दिन को भी स्थापित कर देता है।
उनके जीवन के सूनेपन में वरुण उत्साह के झोंके के साथ आता है।पुरातत्वविद के
रुप में आया वरुण बताता है कि सरकार के आदेश पर वह गांव में खुदाई करने आया
है।उसकी बातों से प्रभावित होकर जमींदार खुदाई के लिए मजदूरों की ही व्यवस्था नहीं
कर देता,बल्कि उसे भी अपनी हवेली में रोक लेता है। वरुण के व्यक्तित्व से प्रभावित
होकर पाखी उससे प्यार कर बैठती है।जमीन्दार विवाह को भी राजी हो जाता है,लेकिन तब
पता चलता है कि वे पेशेवर चोर थे।इस धोखे से आहत जमींदार की मौत हो जाती है और
पाखी अकेले बंगाल के हिल स्टेशन डलहौजी के अपने बंगले में रहने चली आती है।टी बी
से ग्रसित होने के बाद भी जब डाक्टर उसे किसी गर्म स्थान पर जाने की सलाह देते हैं
तो वह साफ इन्कार कर देती है।वास्तव में अपने प्यार को न तो वह भूल पाती है,न ही
भूलना चाहती है।अपने आपको वह अपने आखिरी दिनों के लिए तैयार कर चुकी है,तभी पुलिस
से भागते भागते वरुण भी अपने दोस्त के साथ डलहौजी पहुंच जाता है।वरुण और पाखी का
सामना होता है।एक ओर अपने पिता की मौत और अपनी बरबादी का अहसास, दूसरी ओर प्रेम,
और सिर्फ प्रेम।पाखी के लिए जीवन और कठिन हो जाता है जब वरुण पुलिस की गोली से
घायल होकर उसी के घर में शरण लेता है। पाखी चाहते हुए भी उसे पुलिस के हवाले नहीं
कर पाती, और वरुण अवसर मिलने पर भी पाखी को छोड कर भाग नहीं पाता। दोनों में बीते
प्रेम को लेकर कोई गिले शिकवे नहीं होते,न ही आने वाले दिनों के लिए कोई आश्वासन
लेकिन फिर भी दर्शकों को दोनों के बीच के मजबूत होते इमोशन को समझने में कोई कठिनाई
नहीं होती।
शायद इसलिए कि दर्शक प्रेम की यह गाथा 1953 की पृष्ठभूमि में देख रहे होते
हैं। आज की तारीख में प्रेम का वह उच्चतर स्वरुप संभव ही नहीं। समय के साथ प्रेम
की परिभाषा भी बदली है और प्रेम की प्रस्तुती भी।प्रेम के प्रति यह शिद्दत आज
उपभोक्तावाद के दवाब में संभव ही नहीं।विक्रमादित्य को पता है कि शिद्दत की इस
प्रेमकथा से दर्शकों को जोडने के लिए जरुरी है कि पहले उन्हें 1953 में ले जाया
जाय।वे 1953 को स्थापित करने में कोई कमी नहीं छोडते।वस्त्र विन्यास से लेकर
कलाकारों के बाडी लैंग्वेज तक में समय की पहचान देखी जा सकती है।फिल्म में रेडियो
जैसी प्रापर्टी का विक्रमादित्य ने बखुबी इस्तेमाल किया है। जहां रेडियो पर बजते
जिंदगी पर इक दांव लगा ले जैसे गाने अगले दृश्य की भूमिका के रुपाते हैं वहीं नायक
नायिका के संवादों में आए तत्कालीन सिनेमा के संदर्भ उनके एक सामान्य युवा होने का
भी संकेत देते हैं।संवाद अनुराग कश्यप ने लिखे हैं,और उनका अनुभव संवादों में सुना
भी जा सकता है।अधिकांश संवाद सामान्य बातचीत के रुप में हैं जो सीधे पात्रों से
जुडने में मदद करती हैं।निश्चित रुप से विक्रमादित्य के सामने सबसे बडा टास्क 2013
के दर्शक को 1953 में ले जाना रहा
होगा,लेकिन शुरुआती दृश्यों से ही दर्शकों को वे अपने कथा समय में ले जाने में सफल
होते हैं,जिससे कहानी कहना उनके लिए सहज हो जाता है।दर्शकों को समय से जोडे रखने
के लिए ही वे फिल्म की गति को भी नियंत्रित रखते हैं।50 के दशक की फिल्मों की तरह ‘लुटेरा’ भी आराम से चलती
है,एक एक दृश्यों के साथ ठहर कर बात करते हुए।लंबे शाट्स जो अब हिन्दी सिनेमा में
आमतौर पर नहीं देखे जाते,शायद आशुतोष गोवारीकर की ‘स्वदेश’ आखिरी फिल्म थी,जिसमें लंबे शाट्स देखे गए थे,यहां भी हैं।
इस तरह की इन्टेन्स प्रेमकथा का सबसे अनिवार्य तत्व अभिनय होता है। यहां
मुगलेआजम की तरह संवाद नहीं हैं।पात्रों के पास अपनी बातें या भावनाएं व्यक्त करने
का एकमात्र साधन अपना चेहरा और अपनी आंखें हैं।सुखद है कि सोनाक्षी पाखी के दर्द
को पूरी तरह स्वीकार करती है।आमतौर पर कोई भी समझदार निर्देशक अभिनेता के क्लोजअप
का जोखिम तभी उठाता है जब उसे उसके अभिनय पर विश्वास हो। सोनाक्षी का बार बार
दिखता क्लोजअप निर्देशक के विश्वास का ही प्रतीक लगता है।वास्तव में पूरी फिल्म
में शायद ही कहीं दर्शक सोनाक्षी को याद कर पाते हैं,उनके सामने पाखी राय चौधरी ही
होती है। बगैर मेकअप के क्लोजअप में दिखने
का जोखिम उठाकर सोनाक्षी मुख्यधारा की अभिनेत्रियों के सामने एक चुनौती रखती
दिखायी देती है।फिल्म में अभिनेताओं की कोई भीड नहीं है,जितने लोगों की जरुरत होती
है आमतौर पर परदे पर वही दिखते हैं।कहीं कहीं यह सन्नाटा अजीब भी लगता है,खास कर डलहौजी
का सूनापन।तर्क की दृष्टि से यह भले ही अटपटा हो लेकिन फिल्म के इमोशन में यह
सूनापन कहीं न कहीं सहायक होता है।रही बात तर्क की तो माना जा सकता है कि 1953 में
वर्फबारी के दौरान डलहौजी जैसा हिल स्टेशन वीरान ही हो जाता हो।क्योंकि डलहौजी
जैसी जगह में तब का जीवन बहुत आसान तो नहीं ही रहता होगा।
वास्तव में ‘लुटेरा’ एक ऐसी प्रेमगाथा लेकर आती है जिसे हम सिर्फ किताबों में
पढना पसंद करते हैं।वह दर्द हमें द्रवित करता है,लेकिन उसे उठाने के लिए हम तैयार
नहीं होते।‘लुटेरा’ हमें अपने अंदर झांकने को बाध्य करती है कि इन 60सालों में
कितने बदल चुके हैं हम,कितनी बदल चुकी है हमारी संवेदनाएं।
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