जयराज
और अनिता गुहा अभिनीत1959 में बनी ‘टीपू
सुल्तान’ स्मृतियों में नहीं
हो, स्मृतियों में तो 1977
में रज्जाक कैसर के निर्देशन में बनी ‘टीपू
सुल्तान’ भी नहीं होगी, लेकिन
1990 में दूरदर्शन के लिए बनाया गया संजय खान का धारावाहिक ‘स्वार्ड आफ टीपू सुल्तान’ उस दौर के दर्शकों की स्मृतियों
में कहीं न कहीं अभी भी सुरक्षित होगी। ‘स्वार्ड आफ टीपू सुल्तान’ के 45 - 45 मिनट के 60 ऐपीसोड में सीन दर सीन बस उनकी बहादुरी के, उनकी महानता के किस्से
दिखाए गए थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ उनके युदध को वीरता,युद्धकौशल और देशभक्ति
की पराकाष्ठा के रुप में दिखाया गया था। इतिहास की किताबों और हिंदी सिनेमा ने
मुगल शासकों की कुछ ऐसी ही छवि हमारे लिए निर्मित कर रखी है कि टीपू सुल्तान के
साथ तलवार की याद आती। अब आजादी के 75 वर्षों के बाद हम इस सत्य से रु ब रु हो रहे
हैं कि टीपू सुल्तान ने 800 मंदिर और 27 गिरजाघर ध्वस्त किए थे,40 लाख हिंन्दुओं को
इस्लाम मानने के लिए मजबूर कर दिया था। एक लाख से अधिक हिंदुओं को जेल में डाल
दिया गया।कालीकट के 2000 ब्राह्मण परिवारों को समाप्त कर दिया था। 1783 से टीपू ने
इस जिहाद की शुरुआत थी। यह जानकारी इरोज इंटरनेशनल की आनेवाली फिल्म ‘टीपू’ के मोशन पोस्टर में दी
जा रही है, और अंत में टीपू के चेहरे पर कालिख लगाये जाते हम देखते हैं।जाहिर है दशकों से
सिनेमा जिस झूठ के साथ जीता रहा और दर्शकों तक झूठ परोसता रहा,अब उससे उबरने की कोशिश में दिखने लगा
है।
आजादी
के बाद से ही भारतीय इतिहास की तरह भारतीय सिनेमा भी एक ऐसी जवाबदेही के दवाब में
फंसती चली गई,जो उसे सौंपी ही नहीं गई थी।विभाजन के बाद जिस तरह की सांप्रदायिक
हिंसा पूरे देश में फैली उसके तह में जाने के बजाय राजनीतिज्ञों की तरह
इतिहासकारों,साहित्यकारों और फिल्मकारों नें भी एक आसान रास्ते का चुनाव किया कि
लोगों तक सच पहुंचने ही नहीं दिया जाय,ऐसा सच जिसमें धर्म के नाम पर किए गए
क्रूरता की जानकारी हो।धर्म के नाम एक पूरा देश अलग हो गया, कत्लेआम कर दूसरे धर्म
के लोगों भागने पर मजबूर कर दिया गया।और यहां सिनेमा गुनगुनाता रहा, न हिंदू
बनेगा,न मुसलमान बनेगा,इंसान की औलाद है,इंसान बनेगा। यह तथ्य है कि हिंदी सिनेमा
के विकास में विभाजन के बाद भारत लौटे कलाकारों ने अपनी अहम भूमिका निभाई थी।
लेकिन उनके सिनेमा को देख ऐसा लगता है विभाजन के खौफनाक मंजर ने उनकी हिम्मत इस
कदर तोड दी कि आजीवन वे सच को सच नहीं कह सके। क्या यह सिर्फ संयोग है कि भारत में
विभाजन पर फिल्में न के बराबर बनी। जबकि विभाजन झेल कर आए राजकपूर ‘हिना’ और यश चोपडा ‘फना’ और ‘वीरजारा’ बनाने में लगे रहे।
आश्चर्य
नहीं कि बीते कुछ वर्षों में पंजाबी में भले ही ‘चार साहिबजादे’ जैसी मुगलों के बेइंतहा जुल्म को
प्रदर्शित करती फिल्में बनी,लेकिन हिंदी सिनेमा के लिए ‘जोधा अकबर’
का दामन छोडना आसान नहीं था।उधर आतंकवाद से कश्मीर कराह रहा था,और विधुविनोद चोपडा
‘मिशन कश्मीर’ में फौज के जुल्म की कहानी कह रहे
थे।निर्दोष मारे जा रहे थे,और गुलजार साहब ‘माचिस’
में आतंकियों का भोलापन चित्रित करते कह रहे थे,आतंकवादी खेतों में नहीं उगते।ऐसा
जैसे उन्हें पता ही नहीं हो कि किस तरह कश्मीर से लेकर सीरिया तक आतंकियों की खेती
हो रही है।ऐसे में हिंदी सिनेमा की सुप्तप्राय समझदारी को विवेक अग्निहोत्री ने ‘द
कश्मीर फाइल्स’ के साथ लगा झकझोर कर
जगा दिया हो।दर्शकों के लिए सिनेमा के बडे परदे पर सच को इस तरह देखने का पहला
अवसर था, ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बहाने देश ने कश्मीर के
आतंकवाद पीडित लोगों से पहली बार खुल कर अपनी एकजुटता प्रदर्शित की।
हिंदी
सिनेमा ने महसूस किया कि हिंदी सिनेमा के दर्शक तो पूरी जवाबदेही के साथ सच देखने
सुनने को तैयार हैं,कहीं न कहीं उनकी समझदारी पर अविश्वास कर वह चूक कर रही थी।हाल
में ‘द केरल स्टोरी’ जैसी संवेदनशील फिल्म को जिस
जवाबदेही के साथ देश के दर्शकों ने देखी,उसकी सराहना की जानी चाहिए।वास्तव में
हिंदी सिनेमा पूर्व प्रधानमंत्री के उस वकतव्य से प्रभावित दिखती थी,जिसमें
उन्होंने कहा था,देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। हिंदी सिनेमा भी
यही मान कर चल रही थी,उसे हर हाल में अल्पसंख्यकों के साथ खडे रहना है।इंतहा कि ‘मैं हूं ना’ जैसी फिल्म में तो आतंकवादी भी
हिंदू परिकल्पित कर लिए गए। मुसलमान मतलब ईमानदार,वचन का पक्का,दोस्ती पर जान देने
वाला,गरीबों का रखवाला इसके बरक्स अत्याचारी,बलात्कारी,डाकू सब के सब हिंदू, हर
दूसरी फिल्म जब दशकों से चीख चीख कर यही कह रही थी,फिर इसे नहीं मानने का कोई कारण
भी नहीं था।
आज
भी हिंदी में ‘एक ही बंदा काफी है’,बनाना आसान है।यह फिल्म ओटीटी से
निकल कर थिएटर तक पहुंच जाती है।लेकिन जब रिलाइंस इंटरनेशनल की ‘अजमेर92’ की चर्चा होती है तो एक खास समूह की भवें तन जाती
हैं।250 से भी अधिक लडकियों के बलात्कार और कई आत्महत्यों की सच्चाई बडे परदे पर
सिर्फ इसलिए नहीं आनी चाहिए थी कि इसके पीछे अजमेर का प्रभावशाली खादिम परिवार जुडा
था।संतोष व्यक्त कर सकते हैं कि हिंदी सिनेमा अब इस तरह के सेलेक्टिव नैरेटिव से
उबर रही है।आश्चर्य नहीं कि इंदिरा गांधी फिल्म पुरस्कार से सम्मानित संजय पूरण सिंह चौहान जैसे फिल्मकार की फिल्म ‘72 हूरें’ भी अब सिनेमाघरों तक पहुंच रही है।‘द डायरी आफ वेस्ट बंगाल’ और ‘गोधरा-एक्सीडेंट
या षडयंत्र’ की घोषणा भी जाहिर कर
रही कि हिंदी सिनेमा अपने पूर्वाग्रहों से उबर कर सच के साथ खडे होने को तैयार है।
वास्तव
में लंबी प्रतीक्षा के बाद देश को सच जानने का,सच देखने का,सच सुनने का अवसर मिला
है।जरुरत है देश की आवाज को समझा जाय,बजाय इसके कि सच को एजेंडा और प्रोपगंडा कह
किनारे करने की कोशिश की जाय़।
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