किसी अभिनेता की दो फिल्में एक साथ रिलीज हों,और दोनो
ही फिल्मों में उसके अभिनय और चरित्र को खासतौर से रेखांकित भी किया जाय,अमूमन ऐसा
कम देखा जाता है।लेकिन रवि किशन जैसा आमतौर पर हिन्दी सिनेमा के लिए पराया माने वाला
अभिनेता जब ऐसा कमाल कर जाता है, तो मानना पडता है जिंदगी में अनुभव और मेहनत कभी न
कभी जरुर प्रतिदान देती है। अनुभव और मेहनत का यही प्रभाव देखा जा सकता है,हाल ही में
रिलीज 'बजाते रहो' और 'इस्सक' में।एकदम अलग जोनर की सामान्य सी दोनों फिल्मों
को यदि कुछ विशिष्ट बनाती है,तो वह है रवि किशन। 'बजाते रहो' में रवि किशन एक चिटफंड बैंक के
मालिक बने हैं,जो लोगों को रकम बढाने का झांसा देकर करोडों रुपसे इकट्ठा करता है।लेकिन
जब लोगों को रकम लौटाने की बारी आती है तो खुद पीछे हो जाता है और सारी जवाबदेही अपने
एक कर्मचारी पर लाद देता है,जो अपमानित होकर आत्महत्या कर लेता है।एक ओर शातिर ठग और
दूसरी ओर रईस पंजाबी व्यवसायी सब्बरवाल के दोहरे चरित्र को कुशलता से साकार कर रवि
किशन विनय पाठक और रणवीर शौरी जैसे कलाकारों को बराबर की चुनौती ही नहीं देते,अपनी
अलग पहचान बनाने में भी सफल होते हैं।इसके ठीक विपरीत मनीष तिवारी की 'इस्सक' में रवि बनारस के बालू माफिया सीता
सिंह की दबंग भूमिका में दिखते हैं।जो भूमिका छोटी होने के बावजूद पूरी फिल्म को अपने
नियंत्रित रखता है।ये हैं हिन्दी के रवि किशन,अपनी भोजपुरी सिनेमा की जमीन से कोसों
दूर। जिसकी गवाही इन्हीं दोनों फिल्मों के साथ में रिलीज हुई उनकी भोजपुरी फिल्म 'धुरंधर' देती भी है।
सिर्फ 'इस्सक' और 'बजाते रहो' में ही नहीं,रवि किशन जब भी ङिन्दी
सिनेमा में दिखाई देते हैं,भूमिका की लंबाई से परे चमत्कृत करते हैं,चाहे
'रावण' के मंगल हों या '1971' के कैप्टन जैकोब।
1971 के भारत पाक युद्ध पर बनी पियूष मिश्रा लिखित इस फिल्म के साथ रामानंद सागर की प्रतिष्ठित फिल्म कंपनी ने लंबे समय के बाद बडे परदे पर दस्तक ही नहीं
दी थी, रामानंद सागर के बेटे अमृत सागर ने निर्देशन की शुरुआत भी की थी। मनोज वाजपेयी,दीपक
डोबरियाल सहित दर्जन भर पुरुष अभिनेताओं के बीच भी रवि किशन को भुलाना संभव नहीं होता।
खास कर अपने साथी सैनिकों को बचाने के लिए अपनी जान न्यौछावर करने के क्लोज अप में
दिखाए जारहे उनके दृश्य में अभिनय की परिपक्वता देखी जा सकती है। मणि रत्नम की 'रावण' में अभिषेक बच्चन के बरक्स रवि
की कुछेक दृश्यों में सिमटी छोटी सी भूमिका थी,लेकिन 'द हिन्दू' ने अपनी समीक्षा में खास तौर से
रवि के अभिनय की सराहना करते हुए लिखा,अभिषेक बच्चन को रवि किशन से सीखना चाहिए कि
किस तरह अभिनेता को पात्र के अंदर प्रवेश करना होता है।'द हिन्दू' की समीक्षा इसलिए भी अतिशयोक्ति
नहीं लगती कि आखिर कोई तो बात है कि श्याम बेनेगल,मणि रत्नम,डा.चंद्र प्रकाश द्विवेदी,तिग्मांशु
धूलिया,आनंद एल राय जैसे निर्देशक रवि की अभिनय क्षमता पर यकीन कर रहे हैं।'बुलेट
राजा' जैसी हार्डकोर
कामर्शियल फिल्म में रवि को स्त्री और पुरुष की दोहरी भूमिका सौंपी जा रही है। उल्लेखनीय
है कि हिन्दी फिल्मों में रवि के लिए कोई टेलरमेड भूमिका नहीं लिखी जा रही। भोजपुरी
में देशज भूमिकाओं की एकरसता के विपरीत हिन्दी में रवि की पहचान विविधता से है,या कह
सकते हैं उस अभिनेता के रुप में जो कोई भी भूमिका में अपनी छाप छोड सकता है।'एजेंट
विनोद' के रा एजेंट और
'लक' के शातिर अपराधी को देख कर कैसे यकीन किया जा सकता है कि इसकी बुनियाद अभी
भी भोजपुरी सिनेमा पर ही टिकी है।
दांत पीस कर और गले फाडकर संवाद बोलते और नायिकाओं
के लंहगे को रिमोट से उठाते रवि किशन को देख कर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि सिर्फ
भाषा बदलने के साथ किसी अभिनेता का अभिनय ही नहीं,उसका संपूर्ण व्यक्तित्व भी इस कदर किस
तरह बदल सकता है। हिन्दी सिनेमा में रवि की
सिर्फ भाषा ही नहीं बदलती लुक से लेकर जेश्चर पोश्चर तक में एक नए रवि दिखाई देते हैं,जो
इमरान खान के बरक्स श्रुति हसन जैसी आधुनिका को प्रभावित करने की कोशिश करता है। स्वभाविक
सवाल उठता है आखिर रवि किशन अपना उत्कृष्ट हिन्दी के लिए बचा कर क्यों रखते हैं।क्यों
नहीं उसका एकांश भी भोजपुरी सिनेमा में प्रदर्शित कर उसे समृद्ध करने की कोशिश करते
हैं। जब भोजपुरी में सीजंड निर्देशक किरण कांत वर्मा के साथ रवि किशन 'हमार देवदास' में देवदास की भूमिका में अवतरित
हुए तो हर कोई को उम्मीद थी कि भोजपुरी सिनेमा के लिए यह एक प्रस्थान विन्दु बन सकेगा
। लेकिन देवदास की कहानी के बावजूद रवि इसे भोजपुरी की सामान्य फिल्म से बेहतर नहीं
बना सके।
यह बात सही है कि रवि किशन ने शुरुआत हिन्दी फिल्म
से ही की थी, वह भी काजोल जैसी अभिनेत्री के अपोजिट,जितेन्द्र जैसे अभिनेता के साथ,
फिल्म थी 'उधार की जिन्दगी'। फिल्म हिट भी हुई लेकिन रवि के लिए मददगार
साबित नहीं हुई। रवि को वास्तविक पहचान मिली भोजपुरी सिनेमा से ही । यह संयोग ही कहा
जा सकता है कि रवि किशन जब हिन्दी सिनेमा से निराश हो चुके थे, भोजपुरी सिनेमा को सदी के
आखिरी दशक में हिन्दी सिनेमा की वह जमीन मिल गई जो डेविड धवन और गोविन्दा की जोडी के
साथ कायम भदेशपन के हाशिए पर जाने से खाली हुई थी। यह वह समय था जब हिन्दी सिनेमा एन
आर आई दर्शकों को लुभाने के दवाब में भव्यता
को समर्पित होते जा रही थी। स्वभाविक था हिन्दी के मूल दर्शकों को भोजपुरी में थोडा
अपनापन दिखा। भोजपुरी फिल्में बनने की गति भी तेज हुई और उसकी सफलता का प्रतिशत भी।
इसी जमीन पर उदय हुआ रवि का। उत्तर प्रदेश के जौनपुर से मुम्बई पहुचने वाले रवि के
लिए यह सहज भी था। अभिनेता के रुप में रवि की पहचान को भोजपुरी सिनेमा भले ही मजबूत नहीं कर सकी,एक ब्रांड के रुप में स्टैबलिश होने
में रवि को देर नहीं लगी।
लेकिन हिन्दी सिनेमा से शुरुआत करने वाले रवि किशन
अपनी क्षेत्रीय पहचान से संतुष्ट नहीं हो सकते थे। भोजपुरी में लोकप्रियता के चरम पर
रहते हुए ही उन्हे जब 'बिग बास' में आने का आफर मिला ,तो बेहिचक उन्होंने हामी
भर दी ,यह जानते हुए भी कि उनके स्थापित कैरियर के लिए यह खतरनाक हो सकता है। रवि के
आत्म विश्वास ने उसका साथ भी दिया और दर्जन भर सेलिब्रेटी के बीच उसने अपने दर्शकों
को याद करवा दिया,'जिंदगी झंड बा,फिर भी घमंड बा'।बिग बास
के फाइनल तक पहुंचे रवि के व्यक्तित्व और एट्टीट्यड ने हिन्दी सिनेमा को उसे एक बार
फिर करीब से जानने का मौका दिया। और फिर रवि ने मिल रहे एक एक अवसर का, चाहे वह छोटा
हो या बडा, शिद्दत के साथ उपयोग किया।जो भी चुनौती मिली उसे स्वीकार किया,चाहे वह ‘चितकबरे’ में नंगे खडे होने का हो या,'4084' में अतुल कुलकर्णी,नसीरूद्दीन शाह,
के के मेनन जैसे सीजंड अभिनेताओं के सामने उतरने का,या फिर ‘मेरे डैड
की मारुति’ और ‘तनु वेडस मनु’ जैसी फिल्मों की छोटी भूमिकाओं में अपनी उपस्थिती
दर्ज करवाने का। उल्लेखनीय है कि हिन्दी में लगातार सशक्त होती पहचान के बीच भी रवि
भोजपुरी से परहेज करते नहीं दिखते। आज भी रवि किशन की भोजपुरी रिलीज हो रही है,और यहां
रवि उसी फूहडता का निर्वाह करते दिखाई देते हे,जिसके लिए भोजपुरी फिल्म जानी जाती है। रवि कहते हैं,
सिनेमा एक सामूहिक निर्माण प्रक्रिया है।वह किसी एक के बेस्ट देने से बेस्ट नही हो
सकती।कलाकार का अभिनय कई बातों पर निर्भर करता है,पटकथा,निर्देशन, साथी कलाकारों का
अभिनय...भोजपुरी सिनेमा की जैसी निर्माण प्रक्रिया है,एक अभिनेता उसे बहुत प्रभावित
नहीं कर सकता।जाहिर भोजपुरी में भोजपुरी के व्याकरण में ही मुझे भी काम करना होता है।जबकि
जब आप श्याम बेनेगल के साथ काम कर रहे होते हैं या सामने नासिर साहब जैसे महान अभिनेता
के सामने होते हैं तो आप स्वयं अपने को बेहतर करने के लिए तैयार कर लेते हैं।
वाकई हिन्दी
सिनेमा में रवि किशन की सफलता कहीं न कहीं भोजपुरी सिनेमा को मुंह चिढाती दिखती है।
मराठी,बांग्ला,मलयालम,असमिया..जिस भी भाषा में फिल्म बन रही है,उसके पास अपने अभिनेता
हैं,तो अपनी कहानी भी,जिसके बल पर वे फिल्में राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मान तक हासिल
कर रही हैं। लेकिन भोजपुरी शायद एकमात्र ऐसी भाषा होगी जिसके अभिनेता को अपना श्रेष्ठ
दिखाने के लिए दूसरी भाषा के शरण में जाना पडता हो।सवाल रवि किशन नहीं,भोजपुरी के सामने
है,क्या उसके पास भी कभी कोई ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ हो सकेगा,जहां कोई भी अभिनेता अपना सर्वश्रेष्ठ
प्रदर्शन को उत्साहित हो सके।
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