खबरों में है कि अर्जुन रामपाल प्रकाश झा से नाराज हैं, इसलिए कि उन्होंने ‘चक्रव्यूह’ के लिए इशा गुप्ता के साथ खासतौर पर फिल्माए गए उनके ‘स्टीमी लव सीन’ को फिल्म से हटा दिया। आज जब तथाकथित इंटरटेनमेंट के नाम पर हिन्दी सिनेमा में सिर्फ और सिर्फ सेक्स बेचने की कोशिशें सर्वस्वीकार्य हो चुकी हों, ऐसे में बावजूद आयटम नंबर के प्रकाश झा की सिर्फ इसलिए प्रशंसा की जा सकती है कि सफलता के लिए वे अपने विषय पर इस कदर यकीन रखते हैं। हिन्दी सिनेमा में बलात्कार दृश्य दिखते रहे हैं, बलात्कार ‘चक्रव्यूह’ में भी है, लेकिन निसंकोच कह सकते हैं कि हिन्दी सिनेमा के लिए यह बलात्कार दृश्य किसी पाठ से कम नहीं। प्रकाश झा न तो इसे विद्रुपता से फिल्माते हैं, न ही रोचकता प्रदान करते हैं,यह मात्र एक दुर्घटना की तरह दर्शकों तक पहुचती है। कह सकते हैं, हिन्दी सिनेमा में बलात्कार का यह एकमात्र दृश्य होगा, जिसमें बलात्कार होते नहीं दिखाया जाता, बावजूद इसके बलात्कार के दर्द से दर्शक रु ब रु होते है।
प्रकाश झा हिन्दी सिनेमा के ऐसे फिल्मकारों में रहे हैं, जिन्होंने सिनेमा की अपनी परिभाषा ही नहीं गढी, उसे लोकप्रियता की कसौटी पर भी सही साबित किया। उन्होंने जब भी फिल्में बनायीं,हिन्दी सिनेमा के आमफहम विषय से एकदम हटकर। आम हिन्दी सिनेमा जहां प्रेम और परिवार के बीच विचरण करती रही, प्रकाश झा सामाजिक –राजनीतिक द्व्न्द के के बीच से अपने लिए विषय का चुनाव करते रहे हैं। हमेशा उनके कथानक के मूल में कोई न कोई मुद्दा रहा है। आश्चर्य नहीं कि फिल्म इंडस्ट्री में अभिनय के 40 साल बिता चुके अमिताभ बच्चन भी उनके साथ काम कर मानते हैं कि मुद्दे पर आधारित फिल्म में काम करने का वह उनकी जिंदगी का पहला अवसर था। ‘दामुल’ से लेकर ‘चक्रव्यूह’ तक उनकी सभी फिल्मों में प्रेम और परिवार सामाजिक जीवन के मात्र एक अंश के रुप में दिखता है। ‘अपहरण’ में अजय देवगण और विपाशा बसु की एक प्रेम कथा भी थी कितने लोग याद कर सकते हैं। ‘चक्रव्यूह’ में भी प्रेम की एक महीन सी धारा चलती है, लेकिन प्रकाश झा के लिए मुद्दा महत्वपूर्ण होता है, उनका प्रेम दर्शकों को मुद्दा से दिकभ्रमित नहीं कर पाता।
‘चक्रव्यूह’ में मुद्दा नक्सलवाद है, जिसे प्रकाश झा एक आकर्षक आवरण में प्रस्तुत करते हैं। आकर्षक इसलिए कि दिल और दिमाग की जंग भारतीय दर्शकों को सदा से आकर्षित करता रहा है। अमिताभ बच्चन की अधिकांश फिल्मों की सफलता का राज ही इमोशन और कर्तव्य का द्वन्द रहा है। चक्रव्यूह में भी यह द्व्न्द अपने चरम रुप में दिखता है। दो विपरीत स्वभाव के मित्र, कबीर और आदिल। संतुलित और महत्वाकांक्षी आदिल सफलता की सीढियां चढता आइ पी एस अधिकारी बनता है। जबकि कबीर अपनी आइ पी एस की ट्रेनिंग अधूरी छोड, इलेक्ट्रोनिक्स पढता है,मोबाइल बनाने का काम शुरु करता है और लगातार असफल होता है। नक्सलियों के नेटवर्क के सामने निरंतर पिछडते जाने के बाद जब आदिल की प्रतिष्ठा पर आंच आती है तो कबीर उसके सहयोग के लिए आगे आता है। वह नक्सलियों के नेटवर्क में शामिल ही नहीं होता, उनका विश्वास भी जीत लेता है। आदिल को नक्सलियों के नेटवर्क को तोडने में सफलता मिलने लगती है।लेकिन इसी दरम्यान कबीर को नक्सलियों की लडाई की वास्तविकता और राज्यसत्ता के दमनकारी स्वरुप का बोध होता है, और वह पुलिस के सामने नक्सलियों के लिए ढाल बन कर खडा हो जाता है। लेकिन ‘चक्रव्यूह’ सिर्फ दोस्ती और विश्वासघात की कहानी नहीं कहती।
कथानक के इस लोकप्रिय आवरण में प्रकाश झा अपने मुद्दे को केन्द्र में रखते हैं, और पुलिस, राजनेता, उद्योगपति के गठजोड के बरक्स नक्सल आंदोलन की इमानदारी और जीवट को रेखांकित करते हैं, मुश्किल यह है कि इसके साथ वे कोशिश विश्लेषण की भी करते हैं। मुश्किल यहीं होती है, नक्सलवाद भारतीय समाज के लिए इतना संवेदनशील मुद्दा है कि इसका विश्लेषण हमेशा ही तलवार की धार पर चलने जैसे संतुलन की मांग करता है। प्रजातंत्र में अपने अधिकारों की लडाई के लिए हिंसक आंदोलन की वकालत नहीं की जा सकती, न ही राज्यसत्ता की हिंसक और दमनकारी नीतियों की की जा सकती है। लेकिन यह भी सच है कि भारतीय प्रजातांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था और नक्सलवाद दोनों में से किसी एक के ही साथ हम हो सकते हैं। ‘चक्रव्यूह’ में प्रकाश झा एक मुश्किल संतुलन साधने की कोशिश करते हैं, और अंततः नक्सलवादी आंदोलन को समझने में हुई आरंभिक गडबडियां बाद में उनके कदम डगमगा देती है।
प्रकाश झा बिहार से रहे हैं, आंदोलन को उन्होंने करीब से देखा भी है।आश्चर्य होता है जब नक्सलवादी आंदोलन को वे आदिवासियों के आंदोलन के पर्याय के रुप में मनवाने की कोशिश करते हैं। न तो सभी नक्सलवादी आदिवासी हैं, न ही सभी आदिवासी नक्सलवादी। ‘चक्रव्यूह’ में नक्सलवाद को औद्योगिकीकरण और सेज जैसे मुद्दे के साथ जोड कर देखने की कोशिश की गई है, बार बार खदान पर अधिकार की बाते होती हैं, जब कि नक्सलवाद के सामान्य विद्यार्थी को भी पता है कि नक्सलवाद मूलतः भूमि संघर्ष से जुडा रहा है। कतई आश्चर्य कि पूरी फिल्म में भूमि संघर्ष की बात कहीं नहीं आती। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रकाश झा अपने बिहार के दर्शकों को नाराज नहीं करना चाहते, जिनके लिए भूमिसंघर्ष सबसे संवेदनशील मुद्दा रहा ही नहीं,आज भी है, इतना संवेदनशील कि नीतीश कुमार तक को भूमि सुधार की बात कह कर उसे तुरंत वापस ले लेनी पडती है।
चक्रव्यूह में ‘नंदी घाट’ और ‘महान्ता’ जैसे नामों का इस्तेमाल इसे समकालीन तो बनाते हैं, लेकिन मुद्दे से भ्रमित भी करती हैं। फिल्म में बार बार इस सवाल को उठाया जाता है कि विकास का लाभ आदिवासियों तक नहीं पहुच रहा है। अब जब उद्योग आप स्थापित होने ही नहीं देना चाहते, इस पूर्वाग्रह के साथ कि इसका सारा लाभ उद्योगपतियों को मिलेगा। आखिर कैसे विकास हो सकता है। पुल आप ध्वस्त कर देंगे, स्कूल उडा देंगे, अस्पताल बनने नहीं देंगे, यह तो ऐसा ही है कि कमरे को बंद कर लें फिर कहें कि कोई हमें रोशनी क्यों नहीं दे रहा। अधिकार की लडाई तो तब वाजिब मानी जा सकती थी, जब उद्योग लग जाने के बाद उन्हें उनका लाभ नहीं मिल पाता। गांव उजाडने की वकालत किसी भी कीमत पर नहीं की जा सकती , लेकिन गांव यदि लोहे के खदान पर या तेल के कुएं पर बसा हो तो क्या विकास के लिए जिद की बजाय सुलह का रास्ता नहीं निकाला जाना चाहिए।
कई सवाल हैं,जिसका जवाब ढूंढने की कोशिश ‘चक्रव्यूह’ नहीं करती। लेकिन अफसोस कि बगैर जवाब ढूंढे ही अधिकार के कथित हिंसक आंदोलन को जायज ठहराने की हडबडी में भी दिखती है। फिल्म में महान्ता के बेटे का अपहरण भी दिखाया जाता है, जबकि सच यही है कि आज तक नक्सल आंदोलन ने निजी तौर पर न तो किसी उद्योगपति को निशाना बनाया है, न ही बडे जमिंदारों को, आमतौर पर नक्सलियों के निशाने पर उद्योगपतियों ,ठेकेदारों के कारिन्दे और छोटे किसान ही रहे हैं। ‘चक्रव्यूह’ इन सवालों का भी जवाब ढूंढने की कोशिश नहीं करती कि नक्सल आंदोलन के नाम पर पैसेंजर ट्रेनों को उडा कर सैकडों यात्रियों की जान ले लेना किस तरह आंदोलन का हिस्सा हो सकता है। फिल्म यह भी स्पष्ट नहीं करती कि नक्सलवादियों को आधुनिक हथियारों की खेप आखिर आ कहां से रही है,ये हथियार बाजार में तो बिकते नहीं कि पैसे से खरीदे जा सकें। सबसे बडी बात नक्सलवादियों का मांगे आखिर हैं क्या, ये अभी तक तो अमूर्त हैं, फिल्म भी इसे स्पष्ट नहीं करती। ये बात तो समझ में आती है कि विकास में हिस्सेदारी आदिवासियों को भी मिलना चाहिए, लेकिन सवाल है उस हिस्सेदारी का अनुपात क्या होगा,कैसे होगा,क्या उसकी जवाबदेही ‘जनताना अदालत’ उठायेगी। वास्तव में नक्सलवादियों की एक, और एकमात्र मांग है राज्यसत्ता में हिस्सेदारी, इससे शायद ही कोई इन्कार कर सके। सवाल है प्रजातंत्र की कीमत पर क्या हम इसके लिए तैयार हैं।काश. ‘चक्रव्यूह’ इसका भी जवाब ढूंढ पाती.संतोष सिर्फ इतना है कि सिनेमा के परदे पर ‘लाल सलाम’ और ‘टैंगो चार्ली’ जैसी फिल्मों की जगह नक्सलवाद पर एक गंभीर विमर्श की शुरुआत तो प्रकाश झा ने की।
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