रमाकांत पंडित को आप भले ही नहीं जानते हों,उनके बेटे गुड्डू भैया को तो जानते ही होंगे,वही मिर्जापुर वाले। गुड्डू भैया को फर्जी एनकाउंटर से बचाने की कोशिश में वे एक पुलिस अधिकारी को गोली मार देते हैं,और अपराध भी कबूल कर लेते हैं।अब कोर्ट में मुकदमा शुरु होता है,सरकारी वकील और रमाकंत पंडित के बीच जिरह शुरु होती है कि आइ पी सी की धारा 302 के तहत उन्हें कडी से कडी दी जा सकी है,या नहीं।अब इसके लेखकों को क्या पता था कि इसके रिलीज होने के दो दिन पहले देश में आई पी सी और उसकी धाराएं ही खत्म हो जाएंगी और उसके स्थान पर नई धाराओं के साथ भारतीय न्याय संहिता की शुरुआत हो जाएगी। वैसे यह तय तो काफी पहले हो गया था,लेकिन लेखकों को शायद लगा होगा,अभी दर्शकों को नई धाराओं से रिलेट करने में कठिनाई होगी,इसीलिए 302 ही सही होगा। वास्तव में आइ पी सी 302 के स्थानापन्न बी एन एस 103 को स्वीकार करने में अभी जितनी असुविधा होगी,उससे कहीं अधिक असुविधा तब होगी जब कुछ अंतराल के बाद हम आइ पी सी को पूरी तरह भूल चुके होंगें।कुछेक सालों के बाद जब नए दर्शक यही सीरिज देखेंगे,तो उन्हें वाकई समझने में कठिनाई होगी कि वकील साहब हत्या के लिए 302 का मुकदमा क्यों चला रहे हैं।
वाकई ‘मिर्जापुर’ कोई एक तो
नहीं,हिंदी सिनेमा ने तो अपने जन्म के साथ ही आइ पी सी की धाराएं ही पढी,और जरुरत
पडने पर अपने दर्शकों को उन्हें अच्छी तरह रटवा भी दिया।यदि 302 और 420 जैसी
धाराएं मुहावरे की तरह आमलोगों की जबान पर चढी हैं तो उसमें सिनेमा का योगदान कम
नहीं माना जा सकता। कोर्टरुम ड्रामा हिंदी सिनेमा का प्रिय जोनर रहा है,1960 में
बनी बी आर चोपडा की ‘कानून’ से लेकर ‘पिंक’ और फिर ‘ओएमजी2’ तक। ताजिरात
ए हिंद के दफा... का मतलब भले ही हम
नहीं समझते हों,लेकिन हिंदी सिनेमा का शायद ही कोई दर्शको हो,जिसे धारा और सजा
सहित पूरा वाक्य याद न हो।‘कानून’ जैसी फिल्मों के तो केन्द्र में ही धारा 302
है,अब जब नए दर्शक इस फिल्म को देखेंगे,तो किस तरह सारी बहस को समझ पाएंगे।आज
महसूस न भी करें,आने वाले समय में जैसे जैसे आई पी सी धाराएं विस्मृति में चली जांएगी,सैकडों
नहीं,हजारों फिल्मों को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की चुनौती का सामना करना होगा।
चार सौ
बीसी हमारे स्वभाव में हो न हो,हिंदी मुहावरे में तो शामिल है।मामूली झूठा बहाने
बनाने वाले को भी हम कहते है,चारसौबीसी नहीं करो,और वह समझ जाता है।अब कहना पडेगा
318 नहीं करो।भारतीय न्याय संहिता में धोखाधडी के लिए अब यही धारा निर्धारित की गई
है।अब हिंदी में तो कम से कम दर्जन भर फिल्में होंगी जिसके टाइटिल में ही 420
है,राजकपूर की ‘श्री420’ से लेकर कमल हासन
की ‘चाची
420’ और फिर
अक्षय कुमार की ‘खिलाडी
420’ तक।यह
कोई स्लेट पर लिखी ईबारत तो नहीं कि मिटा कर बदल दिया
जाय। लेकिन यह तो तय है कि अब जिस तरह नई पीढी चेन्नई और मुंबई के साथ ही अधिक सहज
हो गई है,420 सुनना उसके लिए किसी अजूबे से कम नहीं होगा,शायद तब तक 318 उसके
मुहावरे में शामिल हो चुका होगा।ऐसे में इस तरह की कई कालजयी फिल्मों का
अप्रासंगिक होना वाकई चिंतित कर सकता है। टाइटिल की ही बात करें तो 2019 में बनी
अक्षय खन्ना और हुमा कुरेशी अभिनीत ‘सेक्शन 375’ को सेक्शन 63 के रुप में आना
होगा,क्योंकि बलात्कार के लिए भारतीय न्याय संहिता में धारा 63 निर्धारित की गई
है।
आई पी
सी में 511 धाराएं थी,अब बी एन एस में 356 बच रही हैं,कुछ बदल दी गई,कुछ हटा दी
गई,कुछ जोडी भी गई।जाहिर है अपराध और कानून के आस पास विचरते हिंदी सिनेमा को अब
अपने को भारतीय न्याय संहिता की जानकारियों से लैस होना होगा।आप ‘मुल्क’,’थप्पड’ या ‘पिंक’ जैसी गंभीर फिल्म
बना रहे हों,या सामान्य अपराध कथा,अब दर्शक उम्मीद करेंगे कि सिनेमा उन्हें अपने
नए कानूनों से ही जोडने की कोशिश करेगी।लेकिन यह सवाल वहीं है कि ‘कानून’ और ‘श्री 420’ जैसी फिल्मों का
क्या? क्या इन्हें भारतीय न्याय संहिता की धाराओं के साथ
संशोधित किया जाएगा? वास्तव
में कोई भी कला अपने समय के साथ संवाद करती है।‘पथेर पंचाली’ या ‘गोदान’ की वास्तविकता हम आज के भारत में नहीं
ढूंढ सकते,बावजूद इसके उन्हें हम कालजयी कृतियां मानते हैं,इसलिए कि हम उन कृतियों
से उस समय के भारत को जानने की कोशिश करते हैं। इस तरह की फिल्मों को भी पीरिएड फिल्म की तरह देखा जाएगा तो शायद नए दर्शक रिलेट कर पाएंगे।‘सेक्शन 375’ या ‘पिंक’ जैसी अपेक्षाकृत
नई फिल्मों में सीन के साथ डिस्क्लेमर का भी सहारा लिया जा सकता है।