मंगलवार, 5 मई 2015

बेहतर सिनेमा के सपने को सम्मान


मेरे पास मां है,भारतीय सिनेमा के इतिहास में शशिकपूर को अमर बनाने के लिए दीवार का यही एक संवाद काफी था,लेकिन अब जब 77 वर्ष की उम्र में उन्हें दादा साहब फाल्के अवार्ड से सम्मानित के जाने की घोषणा हुई तो यही माना जा सकता है,यह शशि कपूर से कहीं अधिक उनके सिनेमा का सम्मान है,उस सिनेमा का जो उनके सपनों में बसता था, जिस सिनेमा के लिए उन्होंने अपनी पूरी सफलता दांव पर लगा दी थी। शशि कपूर ने कहने को 150 से भी अधिक फिल्मों में काम किया,यदि इनमें से कुछ आरंभिक दौर की फिल्मों को छोड दिया जाय तो अधिकांश काफी सफल रहीं।इसके बावजूद शशि कपूर जब 1978 में जब फिल्म निर्माण में आए तो शुरुआत जूनून से की।1857 के दौर पर ऐतिहासिक संदर्भों के साथ श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी यह फिल्म अपने आप में यह कहती लगती थी कि शशि कपूर आखिर सिनेमा से चाहते क्या थे। जुनून नहीं चली,लेकिन बेहतर सिनेमा के प्रति शशि कपूर ने अपने जुनून के कभी विराम नहीं दिया। वास्तव में शशि कपूर के अभिनय की स्कूलिंग जहां से हुई थी, फकीरा का विजेता के रुप में रुपांतरण अस्वभाविक भी नहीं था। 
पृथ्वीराज कपूर के सबसे छोटे बेटे के रुप में जन्में शशि कपूर के लिए भी बाकी कपूरों की तरह सिनेमा की डगर आसान नहीं रही थी। पृथ्वी राज कपूर एक सख्त अभिभावक थे और उन्होंने कभी किसी बेटे को अपने पोजिशन का लाभ नहीं उठाने नहीं दिया।शशि कपूर की प्रतिभा हालांकि आग और आवारा जैसी फिल्मों से बाल भूमिकाओं में ही दिखने लगी थी,लेकिन पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें थियेटर में सक्रिय होने की सलाह दी।पृथ्वी थियेटर में काम करते हुए शशि कपूर ब्रिटेन के नाटककार केण्डेल के संपर्क में आए जो अपनी नाट्यकंपनी शेक्सपियेराना के साथ भारत आए हुए थे। शेक्सपियेराना के साथ शशिकपूर को देश के कई रंगमंच पर उतरने का मौका मिला। शेक्सपियेराना ने उन्हे जीवन के अनुभवों के साथ जेनिफर केण्डेल जैसी पत्नी भी दी,जिनके साथ ने शशि कपूर के जीवन को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। अस्सी के दशक में शशि कपूर जब सहनायक के रुप में सफलता का नया व्याकरण रच रहे थे,उसी समय जेनिफर की असमय मौत ने उन्हें तोड ही नहीं दिया,उनके जीवन की दशा और दिशा भी बदल दी।वे सिनेमा से भी लापरवाह हो गए और सबसे दुखद अपने आप से भी।
शशि कपूर ने परदे पर अभिनय की शुरुआत 1961 में यश चोपडा की निर्देशक के रुप में पहली फिल्म धर्मपुत्र से की,फिल्म हालांकि नहीं चली लेकिन अपने विषय के कारण आज भी याद की जाती है। प्रेमकथाओं के उस दौर में शशि कपूर को चार दीवारी’, ‘मेहंदी लगी मेरे हाथ’, ‘प्रेमपत्र’, ‘मोहब्बत इसको कहते हैं’, ‘नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे’,’जुआरी’,’कन्यादान’, ‘हसीना मान जाएगी जैसी कई फिल्में मिलीं,लेकिन ज्यादातर फ्लॉप रहीं। यह वह दौर था जब दिलीप कुमार, राजेन्द्र कुमार,देवआनंद जैसे अभिनेता सफलता के पर्याय के रुप में स्थापित थे,जाहिर है शशिकपूर को सफलता के लिए प्रतीक्षा करनी पडी।1965 में जब जब फूल खिले आयी और कश्मीरी हाउसबोट मालिक के रुप में अपनी सहज मुस्कान और खूबसूरत चेहरे से प्रशंसकों की कतार खडी कर ली,जो अब उनकी फिल्मों की प्रतीक्षा कर रही थी। 70 के दशक में उनकी व्यस्तता का यह आलम था कि एक साथ तीन तीन शिफ्टों में वे शूटिंग किया करते थे। यह शशि कपूर का आत्मविश्वास ही था कि उन्होंने कभी भी किसी स्टार या अभिनेता के साथ काम करने में कभी संकोच नहीं किया,न ही कभी अपनी भूमिका के लिए चिंतित रहे।राजेश खन्ना जब निर्विवाद सुपर स्टार थे,शशि कपूर ने प्रेम कहानी जैसी फिल्म में सहनायक की भूमिका में उतरने का जोखिम उठाया,अमिताभ बच्चन के साथ तो कभी कभी,दीवार,सुहाग,इमान धरम,त्रिशूल,काला पत्थर, दो और दो पांच’, सिलसिला’, ‘नमक हलाल जैसी फिल्मों में कमजोर चरित्र के बावजूद वे आते रहे।शत्रुघ्न सिन्हा का भी आ गले लग जा और गौतम गोविंदा जैसी फिल्म में साथ निभाया। वास्तव में इन फिल्मों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि शशि कपूर के लिए महत्वपूर्ण सिर्फ और सिर्फ काम रहा। आश्चर्य नहीं कि लगातार काम करते हुए कभी भी किसी अवार्ड के लिए उन्हें नामांकन नहीं मिल सका।शायद शशि कपूर को भी पता था कि वे इन फिल्मों के लिए नहीं बने हैं।
बेसिरपैर की भूमिकाओं और सिनेमा के प्रति शशि कपूर की अनथक दौड का अर्थ उनके प्रशंसकों को तब समझ में आया जब उन्होंने  शेक्सपीयरवाला के नाम से अपने होम प्रोडक्शन की शुरुआत की। इस बैनर माध्यम से उन्होंने श्याम बेनेगल,गोविंद निहलाणी,अपर्णा सेन,गिरीश कर्नाड जैसे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए चर्चित फिल्मकारों के सहयोग से जूनून (1979), कलयुग (1981), ‘36 चौरंगी लेन (1981), ‘विजेता (1983) तथा उत्सव (1985) जैसी फिल्म का निर्माण कर हिन्दी दर्शकों को एक नए सिनेमा का आस्वाद दिया। अनुभवी शशिकपूर को पता था कि इन फिल्मों का व्यवसायिक हश्र क्या होने वाला है,लेकिन शायद कहीं न कहीं रंगमंच की वैचारिक प्रतिबद्धता का दवाब था कि शशि कपूर पीछे नहीं मुडे। उन्होंने शेक्सपीयरवाला के साथ अपने जीवन का एक बडा हिस्सा पृथ्वी थियेटर के रुप में रंगमंच को समृद्ध करने में लगा दिया,जिसका निर्वहन आज भी उनकी बेटी संजना कपूर पूरे उत्साह के साथ कर रही है।
यह हिन्दी सिनेमा के परंपरागत अभिनेताओं से इतर दिखती परिपक्वता ही थी कि ब्रिटिश फिल्मकारों के वे प्रिय अभिनेताओं में रहे।1972 में कोनार्ड रुक्स की सिद्धार्थ में जब भारतीय चेहरे की बारी आयी तो शशि कपूर का विकल्प नहीं था। जेम्स आइवरी-इस्माइल मर्चेण्ट की फिल्म शशि कपूर से ही जानी और देखी जाती थी। द हाउस होल्डर (1963), ‘शेक्सपीयरवाला (1965), ‘बॉम्बे टॉकी (1970) तथा हीट एंड डस्ट (1983) में अभिनेता के तौर पर उनकी उंचाई किसी को भी चमत्कृत कर सकती है। 1993 में इन्होंने मर्चेंट आइवरी की के साथ इन कस्टडी(मुहाफिज) पूरी की,एक शायर की ढलती हुई जिंदगी को निभाते हुए उन्हें शायद ही अहसास होगा कि यही उनकी जिंदगी का सच बनने जा रहा है।

आज शशि कपूर अस्वस्थ हैं। व्हील चेयर पर हैं। तब उन्हें दादा साहब फाल्के अवार्ड दिया जा रहा है। वास्तव में यह अवार्ड शशि कपूर को नहीं बेहतर सिनेमा के लिए देखे उनके सपने को समर्पित माना जा सकता है।