शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हिन्दी के रवि किशन



किसी अभिनेता की दो फिल्में एक साथ रिलीज हों,और दोनो ही फिल्मों में उसके अभिनय और चरित्र को खासतौर से रेखांकित भी किया जाय,अमूमन ऐसा कम देखा जाता है।लेकिन रवि किशन जैसा आमतौर पर हिन्दी सिनेमा के लिए पराया माने वाला अभिनेता जब ऐसा कमाल कर जाता है, तो मानना पडता है जिंदगी में अनुभव और मेहनत कभी न कभी जरुर प्रतिदान देती है। अनुभव और मेहनत का यही प्रभाव देखा जा सकता है,हाल ही में रिलीज 'बजाते रहो' और 'इस्सक' में।एकदम अलग जोनर की सामान्य सी दोनों फिल्मों को यदि कुछ विशिष्ट बनाती है,तो वह है रवि किशन। 'बजाते रहो' में रवि किशन एक चिटफंड बैंक के मालिक बने हैं,जो लोगों को रकम बढाने का झांसा देकर करोडों रुपसे इकट्ठा करता है।लेकिन जब लोगों को रकम लौटाने की बारी आती है तो खुद पीछे हो जाता है और सारी जवाबदेही अपने एक कर्मचारी पर लाद देता है,जो अपमानित होकर आत्महत्या कर लेता है।एक ओर शातिर ठग और दूसरी ओर रईस पंजाबी व्यवसायी सब्बरवाल के दोहरे चरित्र को कुशलता से साकार कर रवि किशन विनय पाठक और रणवीर शौरी जैसे कलाकारों को बराबर की चुनौती ही नहीं देते,अपनी अलग पहचान बनाने में भी सफल होते हैं।इसके ठीक विपरीत मनीष तिवारी की 'इस्सक' में रवि बनारस के बालू माफिया सीता सिंह की दबंग भूमिका में दिखते हैं।जो भूमिका छोटी होने के बावजूद पूरी फिल्म को अपने नियंत्रित रखता है।ये हैं हिन्दी के रवि किशन,अपनी भोजपुरी सिनेमा की जमीन से कोसों दूर। जिसकी गवाही इन्हीं दोनों फिल्मों के साथ में रिलीज हुई उनकी भोजपुरी फिल्म 'धुरंधर' देती भी है।
सिर्फ 'इस्सक' और 'बजाते रहो' में ही नहीं,रवि किशन जब भी ङिन्दी सिनेमा में दिखाई देते हैं,भूमिका  की  लंबाई से परे चमत्कृत करते हैं,चाहे 'रावण' के मंगल हों या '1971' के कैप्टन जैकोब। 1971 के भारत पाक युद्ध पर बनी  पियूष मिश्रा लिखित इस  फिल्म के साथ रामानंद सागर की प्रतिष्ठित फिल्म  कंपनी ने लंबे समय के बाद बडे परदे पर दस्तक ही नहीं दी थी, रामानंद सागर के बेटे अमृत सागर ने निर्देशन की शुरुआत भी की थी। मनोज वाजपेयी,दीपक डोबरियाल सहित दर्जन भर पुरुष अभिनेताओं के बीच भी रवि किशन को भुलाना संभव नहीं होता। खास कर अपने साथी सैनिकों को बचाने के लिए अपनी जान न्यौछावर करने के क्लोज अप में दिखाए जारहे उनके दृश्य में अभिनय की परिपक्वता देखी जा सकती है। मणि रत्नम की 'रावण' में अभिषेक बच्चन के बरक्स रवि की कुछेक दृश्यों में सिमटी छोटी सी भूमिका थी,लेकिन 'द हिन्दू' ने अपनी समीक्षा में खास तौर से रवि के अभिनय की सराहना करते हुए लिखा,अभिषेक बच्चन को रवि किशन से सीखना चाहिए कि किस तरह अभिनेता को पात्र के अंदर प्रवेश करना होता है।'द हिन्दू' की समीक्षा इसलिए भी अतिशयोक्ति नहीं लगती कि आखिर कोई तो बात है कि श्याम बेनेगल,मणि रत्नम,डा.चंद्र प्रकाश द्विवेदी,तिग्मांशु धूलिया,आनंद एल राय जैसे निर्देशक रवि की अभिनय क्षमता पर यकीन कर रहे हैं।'बुलेट राजा' जैसी हार्डकोर कामर्शियल फिल्म में रवि को स्त्री और पुरुष की दोहरी भूमिका सौंपी जा रही है। उल्लेखनीय है कि हिन्दी फिल्मों में रवि के लिए कोई टेलरमेड भूमिका नहीं लिखी जा रही। भोजपुरी में देशज भूमिकाओं की एकरसता के विपरीत हिन्दी में रवि की पहचान विविधता से है,या कह सकते हैं उस अभिनेता के रुप में जो कोई भी भूमिका में अपनी छाप छोड सकता है।'एजेंट विनोद' के रा एजेंट और 'लक' के शातिर अपराधी को देख कर कैसे यकीन किया जा सकता है कि इसकी बुनियाद अभी भी भोजपुरी सिनेमा पर ही टिकी है।
दांत पीस कर और गले फाडकर संवाद बोलते और नायिकाओं के लंहगे को रिमोट से उठाते रवि किशन को देख कर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि सिर्फ भाषा बदलने  के साथ किसी अभिनेता का अभिनय  ही नहीं,उसका संपूर्ण व्यक्तित्व भी इस कदर किस तरह बदल सकता है। हिन्दी  सिनेमा में रवि की सिर्फ भाषा ही नहीं बदलती लुक से लेकर जेश्चर पोश्चर तक में एक नए रवि दिखाई देते हैं,जो इमरान खान के बरक्स श्रुति हसन जैसी आधुनिका को प्रभावित करने की कोशिश करता है। स्वभाविक सवाल उठता है आखिर रवि किशन अपना उत्कृष्ट हिन्दी के लिए बचा कर क्यों रखते हैं।क्यों नहीं उसका एकांश भी भोजपुरी सिनेमा में प्रदर्शित कर उसे समृद्ध करने की कोशिश करते हैं। जब भोजपुरी में सीजंड निर्देशक किरण कांत वर्मा के साथ रवि किशन 'हमार देवदास' में देवदास की भूमिका में अवतरित हुए तो हर कोई को उम्मीद थी कि भोजपुरी सिनेमा के लिए यह एक प्रस्थान विन्दु बन सकेगा । लेकिन देवदास की कहानी के बावजूद रवि इसे भोजपुरी की सामान्य फिल्म से बेहतर नहीं बना सके।
यह बात सही है कि रवि किशन ने शुरुआत हिन्दी फिल्म से ही की थी, वह भी काजोल जैसी अभिनेत्री के अपोजिट,जितेन्द्र जैसे अभिनेता के साथ, फिल्म थी 'उधार की जिन्दगी'। फिल्म हिट भी हुई लेकिन रवि के लिए मददगार साबित नहीं हुई। रवि को वास्तविक पहचान मिली भोजपुरी सिनेमा से ही । यह संयोग ही कहा जा सकता है कि रवि किशन जब हिन्दी सिनेमा से निराश हो चुके थे, भोजपुरी सिनेमा को सदी के आखिरी दशक में हिन्दी सिनेमा की वह जमीन मिल गई जो डेविड धवन और गोविन्दा की जोडी के साथ कायम भदेशपन के हाशिए पर जाने से खाली हुई थी। यह वह समय था जब हिन्दी सिनेमा एन आर आई  दर्शकों को लुभाने के दवाब में भव्यता को समर्पित होते जा रही थी। स्वभाविक था हिन्दी के मूल दर्शकों को भोजपुरी में थोडा अपनापन दिखा। भोजपुरी फिल्में बनने की गति भी तेज हुई और उसकी सफलता का प्रतिशत भी। इसी जमीन पर उदय हुआ रवि का। उत्तर प्रदेश के जौनपुर से मुम्बई पहुचने वाले रवि के लिए यह सहज भी था। अभिनेता के रुप में रवि की पहचान को भोजपुरी सिनेमा भले ही मजबूत  नहीं कर सकी,एक ब्रांड के रुप में स्टैबलिश होने में रवि को देर नहीं लगी।
लेकिन हिन्दी सिनेमा से शुरुआत करने वाले रवि किशन अपनी क्षेत्रीय पहचान से संतुष्ट नहीं हो सकते थे। भोजपुरी में लोकप्रियता के चरम पर रहते हुए ही उन्हे जब 'बिग बास' में आने का आफर मिला ,तो बेहिचक उन्होंने हामी भर दी ,यह जानते हुए भी कि उनके स्थापित कैरियर के लिए यह खतरनाक हो सकता है। रवि के आत्म विश्वास ने उसका साथ भी दिया और दर्जन भर सेलिब्रेटी के बीच उसने अपने दर्शकों को याद करवा दिया,'जिंदगी झंड बा,फिर भी घमंड बा'।बिग बास के फाइनल तक पहुंचे रवि के व्यक्तित्व और एट्टीट्यड ने हिन्दी सिनेमा को उसे एक बार फिर करीब से जानने का मौका दिया। और फिर रवि ने मिल रहे एक एक अवसर का, चाहे वह छोटा हो या बडा, शिद्दत के साथ उपयोग किया।जो भी चुनौती मिली उसे स्वीकार किया,चाहे वह चितकबरे में नंगे खडे होने का हो या,'4084' में अतुल कुलकर्णी,नसीरूद्दीन शाह, के के मेनन जैसे सीजंड अभिनेताओं के सामने उतरने का,या फिर मेरे डैड की मारुति और तनु वेडस मनु जैसी फिल्मों की छोटी भूमिकाओं में अपनी उपस्थिती दर्ज करवाने का। उल्लेखनीय है कि हिन्दी में लगातार सशक्त होती पहचान के बीच भी रवि भोजपुरी से परहेज करते नहीं दिखते। आज भी रवि किशन की भोजपुरी रिलीज हो रही है,और यहां रवि उसी फूहडता का निर्वाह करते दिखाई देते हे,जिसके लिए भोजपुरी फिल्म जानी जाती है। रवि कहते हैं, सिनेमा एक सामूहिक निर्माण प्रक्रिया है।वह किसी एक के बेस्ट देने से बेस्ट नही हो सकती।कलाकार का अभिनय कई बातों पर निर्भर करता है,पटकथा,निर्देशन, साथी कलाकारों का अभिनय...भोजपुरी सिनेमा की जैसी निर्माण प्रक्रिया है,एक अभिनेता उसे बहुत प्रभावित नहीं कर सकता।जाहिर भोजपुरी में भोजपुरी के व्याकरण में ही मुझे भी काम करना होता है।जबकि जब आप श्याम बेनेगल के साथ काम कर रहे होते हैं या सामने नासिर साहब जैसे महान अभिनेता के सामने होते हैं तो आप स्वयं अपने को बेहतर करने के लिए तैयार कर लेते हैं।

     वाकई हिन्दी सिनेमा में रवि किशन की सफलता कहीं न कहीं भोजपुरी सिनेमा को मुंह चिढाती दिखती है। मराठी,बांग्ला,मलयालम,असमिया..जिस भी भाषा में फिल्म बन रही है,उसके पास अपने अभिनेता हैं,तो अपनी कहानी भी,जिसके बल पर वे फिल्में राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मान तक हासिल कर रही हैं। लेकिन भोजपुरी शायद एकमात्र ऐसी भाषा होगी जिसके अभिनेता को अपना श्रेष्ठ दिखाने के लिए दूसरी भाषा के शरण में जाना पडता हो।सवाल रवि किशन नहीं,भोजपुरी के सामने है,क्या उसके पास भी कभी कोई वेलकम टू सज्जनपुर हो सकेगा,जहां कोई भी अभिनेता अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को उत्साहित हो सके।

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

आजादी की नई परिभाषा गढती -शुद्ध देशी रोमांस



गीता श्री की कहानी प्रार्थना के बाहर की नायिका कहती है, मेरे लिए कोई एक व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं।महत्वपूर्ण है मेरा रास्ता,मेरी पसंद, मेरा आनंद, और आनंद का कोई चेहरा नहीं होता,जो जितनी दूर साथ चले,चलो, नहीं तो भाड में जाओ। स्त्री यौनिकता की आजादी की जो पृष्ठभूमि साहित्य ने तैयार की थी,शुद्ध देशी रोमांस के साथ अब हिन्दी सिनेमा भी अपनी दखल दर्ज करती दिख रही है। यहां भी नायिका गायत्री सेक्स के पहले नहीं सोचती, शादी के नाम पर कन्फ्यूज हो जाती है, तैयार मंडप से भाग जाने की हद तक। जितनी सहजता से वह नायक के साथ काफी पीने तैयार हो जाती है, उतनी ही सहजता से सेक्स के लिए भी। सुप्रीम कोर्ट ने लीव इन को वैधानिकता प्रदान की,जाहिर है इस पर अब विमर्श की गुंजाइश नही। कहने को शुद्ध देशी रोमांस भी लीव इन की ही वकालत करती है,लेकिन मुश्किल यह कि परदे पर जो दिखता है वह कैजुअल सेक्स की कथा ज्यादा लगती है, मतलब सेक्स के लिए किसी इमोशन की जरुरत नहीं,बस इच्छा होनी चाहिए। फिल्म में नायक नायिका कुछ मिनट पहले मिलते हैं,बात शुरु होती है और देखते देखते वे किस में लिप्त हो जाते हैं। दर्शकों के लिए लीव इन जैसे विषय को जिस गंभीरता से लेने की जरुरत थी,कहीं न कहीं जयदीप साहनी इसमें चूकते दिखते हैं।वास्तव में विवाह संस्था कोई कानून के द्वारा लागू की गई चीज नहीं है कि उसे कानून के द्वारा खारिज किया जा सके।वह सभ्यता के साथ सामाजिक अनुशासन के लिए समाज ने स्वयें परिकल्पित की।आश्चर्य नहीं कि किसी न किसी रुप में विवाह संस्था समस्त मानवीय समाज में स्वीकार्य रही।दुनिया भर में आधुनिकता ने बहुत कछ बदला,जरुरतें बदली, मानवीय स्वभाव भी बदले, आशाएं,आकांक्षाएं बदलीं,लेकिन विवाह संस्था अपनी तमाम खूबियों खामियों के साथ कायम रही।जाहिर है सदियों से जो मानवीय आसुरी प्रवृतियों को नियंत्रित करने का साधन ही नहीं,सभ्यता के विस्तार का भी कारण रही हो,उस पर सवाल खडे करना सहज नहीं हो सकता।लेकिन शुद्ध देशी रोमांस के लेखक जयदीप साहनी और निर्देशक मनीष शर्मा जिस हल्के अंदाज में इस विषय को उठाते हैं,एक इमानदार विमर्श के आधार के बजाय एक अराजक समाज की पूर्व पीठिका बन कर रह जाती है।कहते हैं मानव स्वभाव से जानवर होता है, व्यक्ति के रुप में उसे समाज तैयार करता है।समाज शास्त्री भी मानते हैं कि समाज को व्यवस्थित रखने में सामाजिक नियंत्रण की अहम् भूमिका होती है।यही व्यक्ति को रिश्तों की सीख देता है, जवाबदेही का अहसास देता है, संवेदनाएं देता है।
   शुद्ध देशी रोमांस की नायिका गायत्री(परिणति चोपडा) अपने को पारिवारिक अनुशासन से मुक्त करने के लिए गौहाटी में नौकरी कर रहे अपने पिता को अकेले छोड कर पढाई का बहाना बना कर पहले कोटा आती है,फिर जयपुर  शिफ्ट हो जाती है,सिर्फ आजादी के लिए,दूसरा कोई उद्देश्य या लक्षय उसका नहीं दिखता।अंग्रेजी बोल सकने के कारण भाडे पर बारातियों में शामिल होने के काम से वह संतुष्ट दिखती है।उसके लिए आजादी का मतलब दिखता है, सिगरेट शराब और सेक्स। अद्भुत है आजादी की यह ललक जो अपना सब कुछ खोकर पायी जाती है।गायत्री चेन स्मोकर के रुप में दिखती है,परदे पर वह जब भी आती है, सिगरेट स्मोकिंग इज इंजूरियस टू हेल्थ का केप्शन साथ आता है,अफसोस नायिका को सिगरेट पीने के लिए कोई सिर्फ एकबार रोकते दिखता है,जब भाडे के बारातों में शामिल होने का काम देने वाला मैरेज प्लानर बुजुर्ग गोयल(ऋषि कपूर) उसे रोकते हुए कहता है सिगरेट पीते पीते मर जाएगी।यह सुनने में जरुर अच्छा लगता है कि हर किसी को अपनी जिंदगी जीने का अधिकार है,लेकिन कितना अजीब लगता है,जब जिंदगी में कोई गलत को गलत बताने वाला न हो।
रघु(सुशांत सिंह राजपूत) के माता पिता नहीं हैं,वह रजिस्टर्ड टूरिस्ट गाईड है,लेकिन परदे पर जब भी टूरिस्ट के साथ दिखता है, उन्हे ठगते हुए। शादियों के सीजन में रघु भी गोयल के तय बारातों में भाडे पर शामिल होता है।वह अपनी शादी से ठीक वरमाला के पहले भाग खडा होता है क्योंकि उसे बस में एक दूसरी लडकी पसंद आ चुकी है। कमाल यह कि यहां कोई अरेंज मैरेज का मामला नहीं, शादियां वे अपनी इच्छा से तय करते हैं और फिर ऐन शादी के समय भाग जाते हैं।ऐसा ही नयिका भी करती है।उसे लगता है नायक उसके अतीत को जानते हुए उसका साथ नहीं निभा पाएगा। नायक भी अफसोस नहीं करता,और जब उसकी पुरानी पसंद सामने आती है तो उसके पीछे लग लेता है। हो सकता है यह किसी रघु,किसी गायत्री, किसी तारा की कथा हो..लेकिन मुश्किल तब होती है जब इनकी कथित आजादी को फार्मुलेट करने की कोशिश की जाती है।अंतिम दृश्य में नायक नायिका दोनो ही मंडप छोड कर भाग खडे हुए है, नायक कहता है रिश्तों के दरवाजे खुले क्यों नहीं रखे जाते कि जबतक अच्छा लगे साथ रहे,जब चाहे तब निकल लिए। मनीष शर्मा यह स्पष्ट नहीं करते फिर रिश्तों की जरुरत ही कहां रह जाती है।
यूं रिश्तों के प्रति उनका असम्मान पहले दृश्य से ही दिखने लगता है जब गोयल नायिका के बारे में रघु से कहता है कि बारात में यह तुम्हारी बहन बन कर जाएगी,और वहां बहन की रातों की रेट की बात कर मजाक उडाया जाने लगता है।जैसे इतना ही काफी नहीं हो,बहन बन कर जा रही नायिका के साथ बस में ही नायक की चुम्मा चाटी भी शुरु हो जाती है,और हद यह कि बस से उतरने के बाद फिर बहन कह ही परिचय कराया जाता है। रिश्तों के प्रति विद्रुपता की हद यहीं समाप्त नहीं होती, नायक नायिका का रिश्ता जब सेक्स तक पहुंच जाता है,और लीव इन में दोनों साथ रहने लगते हैं तब भी बाहर वे अपने आपको  भाई बहन बताने में संकोच नहीं करते। क्या वाकई लेखक जयदीप या निर्देशक मनीष मानते हैं कि भारतीय समाज में अब कोई रिश्तों के लिए कोई जगह नहीं।यदि हां तो इस विषय पर कम से कम माजाकिया फिल्म तो नहीं ही बनायी जा सकती थी।
गौरतलब है कि रिश्तों की धज्जियां उडाती शुद्ध देशी रोमांस की पृष्ठभूमि में जयपुर जैसे पांपरिक शहर को रखा गया है।नायक का नाम रघुराम है, एक नायिका का गायत्री और दूसरी का तारा।इस उत्तर आधुनिक प्रेमकथा में ये पारंपरिक नाम चौंकाते अवश्य हैं,लेकिन वास्तव में ये लेखक की समझ का साथ देते हैं। निश्चय ही यह कथा मुम्बई या बंगलोर की पृष्ठभूमि में रहती तो शायद कम चौंका पाती। जयपुर,रघु राम,गायत्री और तारा दर्शकों को यह मनवाने की कोशिश है कि यह कहानी किसी दूर देश की कथा नहीं,तुम्हारी है,तुम्हारे पास की है।आश्चर्य नहीं कि रघु और गायत्री जब छत पर शराब के साथ खुशियां मनाते हैं तो गुदगुदी पटना और भागलपुर के युवाओं को भी होती है,जब नायक काम पर निकलने के बजाय नायिका के बटन खोलने लगता है तो सीटियां छोटे शहरों में ज्यादा गूंजती हैं।

जहां आए दिन प्रेम के मायने बदल रहे हों,एकतरफा प्रेम में तेजाब फेंकने से लेकर हत्या तक की खबरों से समाज आतंकित हो।जहां रिश्तों की मर्यादा खतरे में हो, वहां प्रेम को,आजादी को सेक्स का पर्याय बना देने की यह कोशिश वाकई डराती है। अफसोस ड्रग्स के नशे की तरह यह डर भी आनंदित करती है।

शनिवार, 7 सितंबर 2013

विखंडित समाज की व्यथा कथा


' कम उम्र में मां बाप की मृत्यु किसी धोखे की तरह लगती है', अजय बहल की फिल्म 'बी ए पास' का पहला संवाद शायद यही है।वास्तव में यह छोटा सा संवाद इस बात की पूर्व पीठिका है कि मां बाप के बाद दुनिया में सिर्फ धोखे ही शेष रह जाते हैं। जिस संस्कृति में अभी भी संयुक्त परिवार की अवधारणा के प्रति सम्मान कायम हो,जहां टेलिविजन पर अभी भी परिवार के नाम पर 15 से 20 लोगों का समूह दिखाया जा रहा हो,वहां यह सुनना अकल्पनीय लग सकता है ।लेकिन 'बी ए पास' अपने कथा विस्तार में इस स्थिति को सिर्फ दिखाती ही नहीं, इस पर शिद्दत से यकीन भी करवा जाती है। अंतिम दृश्यों में दर्शक हतप्रभ स्थिति में अपने को पाता है, जब शहर से अनजान दो युवा बहनें दिल्ली के बस स्टाप पर अपने भाई की प्रतिक्षा करते हुए बार बार मोबाईल पर फोन कर रही होती है,और भाई पुलिस से बच कर भागते भागते फोन बंद कर उंची इमारत से छलांग लगा देता है।परदे पर तो फिल्म खत्म हो जाती है,लेकिन दर्शकों के मन में चलते रहती है, आखिर क्या गुजर रहा होगा उन लडकियों पर जब भाई का फोन अचानक बंद आने लगा होगा, क्या हुआ होगा उन दो युवा लडकियों का ,कहां गयीं होंगी वे... वाकई बी ए पास उस विखंडित समाज की व्यथा कथा है,जहां लोगों की भीड तो है लेकिन उन्हें एक दूसरे से जोडने वाला भरोसा नहीं है।
अंग्रेजी कथाकार मोहन सिक्का के कथा संग्रह दिल्ली नायर में संग्रहित द रेलवे आंटी पर आधारित बी ए पास आर्थिक दवाब से चरमराते रिश्तों को बेबाकी से रेखांकित करती है। मुकेश (शादाब कमल) के मां-पिता की मौत पर शोक व्यक्त करने परिवार के लोगों का आना जाना लगा है,उसकी बहनें सबों के लिए लगातार चाय बनाने में व्यस्त है,मुकेश चाय बनाने के लिए मना करते हुए कहता है,इन्हें टेसुए बहाने के लिए भी चाय चाहिए। शोक का दौर निकल चुका है और अब परिवार व्यवहारिक जमीन पर उनके बारे में विचार कर रहा है, जिनके सर पर से मां बाप की छाया छिन चुकी है।  तमाम रिश्तेदारों की अपनी मजबूरियां,अपनी व्यस्ततायें हैं।चाचा, मामा वगैरह  कोई भी न तो आर्थिक जवाबदेही उठाने के लिए तैयार होता है,न ही उनकी देखभाल के लिए। दादा आगे आते हैं,वे मुकेश की आर्थिक जवाबदेही का भार उठाने का आश्वासन देते हुए बुआ को उसके बी ए पास करने तक दिल्ली में अपने घर रखने के लिए तैयार कर लेते हैं और दोनो बहनों को अपनी देखभाल में रख लेते हैं। लेकिन जरुरतों से किसी को उम्र तो नहीं मिल जाती, दादा की भी मौत हो जाती है, और एक बार फिर सवाल उठता है अब दोनो बहनों का क्या ..।सारे रिश्ते एकबार फिर निर्रथक हो जाते हैं, तय होता है जब तक मुकेश इनकी जवाबदेही उठाने लायक नहीं हो जाता इन्हें कस्बे के ही हास्टल में रख दिया जाय । वास्तव में अजय बहल उस समाज की अनिवार्यता रेखांकित करने की कोशिश करते है जहां परिवार का दायरा सिर्फ खून के रिश्ते तक ही सीमित नहीं हो।
मुकेश अपनी बुआ के पास दिल्ली आ गया है, बी ए की पढाई करने। इस उम्मीद पर कि बी ए पास कर वह अपनी बहनों की जवाबदेही उठाने के लायक हो सके। यहां भी अजय बहल चरमराते रिश्तों को रेखांकित करने से नहीं चूकते। कभी समय था जब एकल परिवारों में किसी हमउम्र का आना किसी उत्सव से कम नहीं होता था,यहां स्कूल जाने वाला उसके बुआ का बेटा उससे नफरत करता दिखता है, उसकी बुआ भी बात बात पर उसे जलील करने से बाज नहीं आती।आमतौर पर उनका व्यवहार उसके साथ नौकरों वाला ही रहता है। मुकेश के फूफा रेलवे में एक कनिष्ठ अधिकारी हैं।वे रेलवे कालोनी के छोटे से क्वार्टर में रहते हैं। कोलोनियों की आम परंपरा के अनुसार जब उसकी बुआ किटी पार्टी आयोजित करती है, तब उसका काम और भी बढ जाता है। बगैर चेहरे पर शिकन डाले मुकेश महिलाओं के लिए चाय बनाता ही नहीं,उसे सर्व भी करता है,महिलाओं की ओछी टिप्पणियों और भद्दे मजाक को सहते हुए भी।
इन्ही महिलाओं में हैं सारिका आंटी(शिल्पा शुक्ला) भी,बास की पत्नी होने के कारण उनके बीच उनका खास महत्व भी है। वे बुआ से मुकेश को घर पर भेजने कहती हैं, और बुआ उनके बारे में सब कुछ जानते हुए भी मुकेश को लगभग जबरन उसके घर भेजती हैं।यहां से मुकेश के जीवन का एक नया अध्याय आरंभ होता है। वह पहले मुकेश को अपने बिस्तर तक ले जाती है,फिर अपनी कथित सहेलियों के लिए उसे सुलभ बना देती हैं। वास्तव में अजय यह दिखाने में संकोच नहीं करते कि सारिका के लिए यह कमाई का जरिया है। अंधाधुंध कमाई में लगे पतियों की ऐसी असंतुष्ट पत्नियों की कमी नहीं। यह असंतोष जितना शारिरिक जरुरतों को लेकर दिखता है,उतना ही भावनात्मक भी।शायद अपनी कथित यौनिक आजादी का संघर्ष भी।आश्चर्य नहीं कि तमाम महिलाएं मुकेश के साथ सिर्फ अपनी शारिरिक जरुरते पूरी करती नहीं दिखती,अपने सेक्सुअल फैंटेसियों को इंज्वाय करती दिखती हैं। शुरुआती हिचक के बाद मुकेश को भी यह कमाई रास आने लगती है,जो उसके बढते आत्मविश्वास में झलकने लगता है।अब जब बुआ का बेटा उसे अपने घर में रहने का उलाहना देता है तो वह पहले की तरह चुप नहीं रहता, पलट कर जवाब देता है।
उसे जब पता चलता है कि उसकी बहनों के हास्टल में कुछ गलत हो रहा है। वह उनसे मिलने ही नहीं जाता उनके लिए मोबाइल फोन भी लेकर जाता है, और उसे रखने की इजाजत देने के लिए भ्रष्ट वार्डन को पैसे भी देता है।वह उन्हें शीघ्र अपने साथ दिल्ली रखने का आश्वासन है। अद्भुत है रिश्तों का यह खेल कि जहां एक ओर हरेक रिश्ते लाभ लोभ में डूबे दिखते हैं,वहीं एक रिश्ता यह भी है जहां भाई खुद अपने शरीर का सौदा कर अपनी बहन का भविष्य सुरक्षित बनाना चाहता है।लेकिन तब बहुत कुछ बदल जाता है जब सारिका के पति को उसके धंधे की जानकारी मिलती है। वह सारिका से मारपीट ही नहीं करता बल्कि मुकेश की बुआ को उसके पति के प्रमोशन का लालच देकर उसे घर से निकालने के लिए भी तैयार कर लेता है।
घर से निकाले जाने के बाद वह अपने दोस्त जानी के घर आ जाता है। कब्र खोदने वाले जानी की एकमात्र महत्वाकांक्षा मारिशस के सैर की है। जो उसकी सीमित कमाई में शायद ही कभी संभव हो सकता था,लेकिन एक दिन मुकेश जानी को सारिका के पास अपने जमा पैसे लाने भेजता है ताकि अपनी बहनों के लिए घर ले कर उन्हें हास्टल से बुला सके।लेकिन हाथ में पैसे आते ही जानी मारिशस भाग जाता है,और इधर मुकेश को लगता है सारिका ने धोखा दिया, गुस्से में उसके हाथों सारिका की हत्या हो जाती है।बी ए पास सिर्फ मुकेश की कहानी नहीं,किसी भी युवा की कहानी लगती है जो अपना और अपनी बहनों के सुनहरे भविष्य का ख्वाब समेटे दिल्ली आया है। लेकिन जो वह चाहता है,वह उसकी जिंदगी में होता नहीं और जो नहीं चाहता,उसे वह स्वीकार करना पडता है।वह ट्यूशनढूंढने के लिए पर्चे छपवाने के लिए बुआ से पैसे मांगता है ताकि अपनी जरुरतें मेहनत से पूरी कर सके लेकिन पैसे नहीं मिलते उसे। पैसे मिलने पर जब पर्चे छपवा कर वह ट्यूसन ढूंढने की कोशिश करता है तो उसके पास एक भी इंक्वायरी तक नहीं आती।यह कहना आसान लगता है कि वह चाहता तो मजदूरी कर सकता था,लेकिन सामने जब पैसा आसानी से दिख रहा हो तो कैसे किसी युवा से अच्छे बुरे के पहचान की उम्मीद की जा सकती है ,वह भी तब जबकि उसके सामने अच्छे बुरे की कोई परिभाषा ही नहीं हो।  
दिल्ली के पहाडगंज की नियोन लाइट्स के बीच फिल्मायी गयी बी ए पास, समय की चमकार के पीछे छिपे अंधेरे तक दर्शकों को ले जाती है,जहां सिर्फ धोखा है,लालच है,लालसा है,अविश्वास है,और इसका कारण एक ही है,हमारी अंतहीन भूख। यह भूख किन किन रुपों में हमारे सामने परोसी जा रही है,हम शायद समझ भी नहीं पा रहे। जानी की भूख उसके टूटे घर की दिवारों पर लगी मारिशस की तस्वीरों में दिखती है,बुआ की भूख अपने पति के प्रमोशन की है,सारिका को पैसे की भूख है तो उसकी एक सहेली (दिप्ती नवल) ऐसी भी है,जो अपने कोमा में पडे पति की लगातार सेवा की एकरसता दूर करना चाहती है।यह ऐसी भूख है जिसने हमारी मानवीय संवेदना,मानवीय पहचान ही खत्म कर दी है।इसी असीम भूख ने भीड के बावजूद हर व्यक्ति को अकेला कर दिया है। सारिका की हत्या कर मुकेश पडोसियों के सामने भाग निकलता है और सारे लोग देखते रह जाते हैं। अपने सरकारी क्वार्टर में वह नियमित रुप से लडकों को बुलाते रहती है लेकिन कोई कुछ नहीं कहता। उसकी बूढी सास सबों को उसके बारे में बताने की कोशिश भी करते रहती है,लेकिन न तो किसी को उनकी बात सुनने की फुर्सत दिखती है,न यकीन करने की इच्छा। सारिका मुकेश का लगातार उपयोग करते दिखती है शारिरिक ही नहीं,आर्थिक दृष्टि से भी। लेकिन पल भर उसे नहीं लगता मुंह मोडते, जब पति के सामने उसकी सच्चाई सामने आ जाती है,वह खुद से ही उसे दूर नहीं करती,उसके तमाम ग्राहकों से भी उसे दूर कर देती है।कहने को बी ए पास के सारे पात्र संवेदना विहीन दिखते हैं,लेकिन पूरी फिल्म का प्रभाव दर्शकों की संवेदना को कुरेदने का सामर्थ्य रखता है।
अजय बहल मूलतः छायाकार है,कैमरे से इमोशन बयान करना शायद इसीलिए हो भी पाया उनसे। उनका कैमरा चमत्कृत करता है जब लांग शाट में मेट्रो आती दिखती है और धीरे धीरे खिडकी के सीसे से पार मुकेश पूरे डब्बे में अकेला खडा दिखता है।निश्चित रुप से बी ए पास एक खास समय,एक खास समाज की कथा कहती है।लेकिन अजय बहल की यह कुशलता है कि दर्शक इसे सिर्फ कथा की तरह नहीं देख सकता।यह फिल्म डराती है कि यदि इच्छाओं की भूख पर मानवीय नियंत्रण हमने नही सीखा तो कल यह कथा हमारे समाज की भी हो सकती है,किसी के भी समाज की।