गुरुवार, 29 अगस्त 2013

हिन्दी की पहली राजनीतिक थ्रिलर मानी जा सकती है-मद्रास कैफे


जिन्हें आयटम नंबरों और जेम्स बांड की फिल्मों की तरह शयन कक्ष के दृश्यों के बगैर भी थ्रिलर देखने में रुची हो,मद्रास कैफे उनके लिए भी है।सारे इतिहास और राजनीति से परे एक कथा की तरह भी यह फिल्म देखें तो निःसंदेह सांस रोक कर देखे जा सकने वाले एक बेहतरीन थ्रिलर का यह आस्वाद देती है। लेकिन उल्लेखनीय है कि यह सिर्फ थ्रिलर नहीं है, कुछ दिन पहले एक साक्षात्कार में सुजीत सरकार ने कहा था, ऐतिहासिक संदर्भों को जाने बगैर इस फिल्म को समझना कठिन हो सकता है। जिन्हें पता नहीं कि 80-90के दशक में देश किस अवांछित संकट से गुजर रहा था, वे इस फिल्म की गंभीरता का अहसास ही नहीं कर सकते। वाकई आश्चर्य कि हिन्दी सिनेमा के अधिकांश निर्देशक जहां अपने दर्शकों से दिमाग छोड कर फिल्म देखने की अपील करते रहे हैं,वहां सुजीत दर्शकों को इतिहास समझकर सिनेमा घर में आने की चुनौती देते हैं। वास्तव में सुजीत को यह हिम्मत की विषय के प्रति शोध और उसे प्रस्तुत करने की इमानदारी से मिलती दिखती है,जो मद्रास कैफे को थ्रिलर से आगे एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रुप में स्वीकार्य बनाती है।
कहने को हिन्दी में राजनीतिक फिल्में बनती रही हैं। आंधी से लेकर माचिस और फिर रंग दे बसंती,राजनीति,आरक्षण तक,एक लम्बी श्रंखला ऐसी फिल्मों की रही है, जो हमारी राजनीतिक समझ को गुगगुदाती रही है। गुदगुदाना इस अर्थ में कि इन कुछ फिल्मों में राजनीतिक सवाल कहानी और इमोशन की चासनी से इस कदर पगे रहे कि उन सवालों की कडवाहट शायद ही कभी दर्शकों को बेचैन कर सकी। मद्रास कैफे में सुजीत सरकार एक ऐतिहासिक संदर्भ को यथावत रखने की कोशिश करते हैं। यदि प्रकाश झा की दामुल और अमृत नाहटा की इमरजेंसी की दौर में बनी किस्सा कुर्सी का को हम याद कर सकें तो इसके राजनीतिक तेवर को उसी क्रम में देख सकते हैं। यहां सुजीत अपनी टिप्पणियां नहीं देते, स्थितियां रखते हैं।लेकिन निरपेक्ष रहते हुए भी वे यह कहने से नहीं चूकती कि किसी भी समस्या का समाधान हिंसा नहीं हो सकता।फिल्म में युद्ध के विद्रुप रुप को दिखाने की कोशिश है जो बाकी युद्ध फिल्म की तरह दर्शकों को उत्तेजित नहीं करता,चिंतित करता है।
वास्तव में इतिहास के जिन पन्नों को सुजीत उठाते हैं,वहां टिप्पणियां संभव भी नहीं।कुछ वर्ष पहले अमिताभ बच्चन अभिनीत एक फिल्म आयी थी ,दीवार,यश चोपडा वाली दीवार नहीं,यह वह दीवार थी जिसमें पाकिस्तान के जेल में बंद 14 कैदियों को छुडाने की मुहिम में नायक पाकिस्तान जाता है और उन कैदियों को छुडा कर लाता है।उसकी मुहिम में एक पाकिस्तानी हिन्दु भी उसके साथ खडा होता है। फिल्म में देखना यह जरुर अच्छा लगता है,लेकिन किसी पाकिस्तानी नागरिक का,चाहे वह हिन्दु ही क्यों न हो,अपनी ही सरकार के खिलाफ षडयंत्र में शामिल होने का क्या समर्थन किया जा सकता है, भले ही वह अपने देश के हित में हो। 80-90 के दशक में जातीय हिंसा की आग में झुलस रहे श्री लंका और भारत की स्थिती भी कमोबेश ऐसी ही रही होगी। श्री लंकाई तमिल अलगाववादी अपनी ही सरकार के खिलाफ मजबूत और हिंसक हो रहे थे, भारतीय तमिल खुश हो रहे थे, बगैर यह महसूस किए कि कल इस सवाल से उन्हें भी जूझना पड सकता है।
हालांकि फिल्म में कहीं भी तमिल अलगाववादियों से भारतीय नेताओं की सहानुभूति रेखांकित नहीं की गई है।बावजूद इसके आज भी यदि मद्रास कैफे को तमिलनाडु में इस आधार पर प्रतिबंधित कर दिया जाता है कि इसमें तमिलों को आतंकवादी के रुप में चित्रित किया गया है तो मानना पडता है हम राष्ट्रवाद को सिर्फ एकांगी रुप में ही स्वीकार कर रहे हैं। ऐसा नहीं हो सकता,राष्ट्रवाद की जो परिभाषा हमारे लिए सही है,वही किसी के लिए भी हो सकती है। यदि हिंसक युद्ध के माध्यम से तमिल अलगाववादी श्री लंका को टुकडे कर एक अलग मुल्क की मांग कर रहे थे तो लाख भाईचारे के कैसे उनके समर्थन में खडा हुआ जा सकता था। लेकिन हम खडे थे। एक ओर एक स्वतंत्र राष्ट्र की संप्रभुता दूसरी ओर जातीय संबंध।
और इसी दुविधा में कहानी की तलाश करती है सुजीत सरकार।भारतीय सरकार की दुविधा, पहले तो उसने राजनीतिक दवाबों में विरोधियों की मदद की, और मामला जब हाथ से बाहर होते दिखा तो सैन्य हस्तक्षेप के लिए तैयार हो गई। मेजर विक्रम सिंह (जॉन अब्राहम)को रॉ के एक ऑपरेशन को कामयाब बनाने के मकसद से श्रीलंका भेजता है। यहां विक्रम को पहले से इसी एजेंसी के लिए काम कर रहे अपने सीनियर सहयोगी बाला की मदद से विद्रोही एलटीएफ हेड अन्ना भास्करन (अजय रत्नम) को शांति वार्ता में शामिल होने और तुरंत युद्ध विराम का ऐलान करने के लिए राजी करना है। अन्ना और उसका संगठन शांति सेना का विरोध करता है,कल तक श्रीलंकाई सेना से मुकाबला कर रहे तमिल अलगाववादी अब भारतीय सेना से आर पार का मुकाबला करते है। अन्ना को वहां रहने वाले तमिलों की पूरी आजादी और उनके लिए अलग मुल्क चाहिए। जाफना आने के बाद विक्रम उस वक्त हैरान रह जाता है, जब उसे पता चलता है कि उसका ऑपरेशन नाकाम होने की वजह अपने कुछ लोगों का एलटीएफ ग्रुप के साथ मिला होना है। विक्रम गुरिल्ला वॉर को कवर करने के लिए लंदन से यहां आई हुई वॉर जर्नलिस्ट जया साहनी (नरगिस फाखरी) की मदद लेता है। इसी ऑपरेशन के दौरान विक्रम को एलटीएफ द्वारा विदेशी शक्तियों के साथ मिलकर देश के पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या करने की साजिश का पता चलता है। विक्रम के हाथ कुछ ऐसे पुख्ता सबूत लगते हैं जो पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश को बेनकाब करने के लिए बहुत है। सरकारी कायदे-कानूनों की आड़ में सुरक्षा एजेंसियां इस साजिश की जानकारी मिलने के बावजूद पूर्व प्रधानमंत्री को सुरक्षा कवर देने को राजी नहीं होतीं।
इतिहास का फिल्मांकन शायद आसान भी होता हो क्योंकि इतिहास में खुद के घुसपैठ की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है।यहां इतिहास नहीं सच है। जिससे रु बरु होने वाली पीढी की याददाश्त भी अभी कमजोर नहीं पडी।जाहिर है सुजीत के सामने चुनौतियां बडी थी। आश्चर्य नहीं कि लगभग आधे समय तक यह डाक्यू-ड्रामा की झलक देती है।सच और सच कहने की जिद पूरी फिल्म में महसूस की जा सकती है,यहां भारतीय सेंसर की सीमा पर अवश्य अफसोस होता है कि चरित्रों के वास्तविक नाम नहीं लिए जा सकते। आखिर हरेक दर्शक जब चरित्रों को पहचान रहा होता है कि यह लिट्टे की चर्चा है,यह प्रभाकरण है,ये राजीव गांधी हैं..तो हम ऩाम नहीं बता कर धोखा किसे दे रहे होते हैं।वास्तव में जब सिनेमा प्रौढ हो रहा है,दर्शक प्रौढ हो रहे हैं तो अब समय आ गया है कि सेंसर भी अपनी प्रौढता दिखाए।

सुजीत सरकार की यह खासियत है कि यहां वे दर्शकों को सप्रयास इंटरटेन करने की कोशिश नहीं करते। उनका उद्देश्य दर्शकों को उस कठिन दौर का अहसास कराना दिखता है।पूरी फिल्म एक ग्रे कलरटोन में चलती है।बारुद के करीब लगता यह कलरटोन हमेशा युद्ध के तनाव में जकडे रखने में कहीं न कहीं सहायक होता है।फिल्म में कई परिचित जवाबदेह चेहरे हैं जो फिल्म की गंभीरता को कायम रखते हैं,निश्चय ही सुजीत का यह निर्णय सायास ही होगा।

शनिवार, 17 अगस्त 2013

शाहरुख खान भी हुए ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ पर सवार


आखिरकार शाहरुख खान भी चेन्नई एक्सप्रेस पर सवार हो गए। हिन्दी सिनेमा के लिए दक्षिण भारतीय जमीन जिस तरह सफलता के खदान में तब्दील होती जा रही थी, शाहरुख के लिए लम्बे समय तक धौर्य रख पाना संभव भी नहीं था। क्यों कि शाहरुख जैसे सितारों को अपनी पहचान अंततः बाक्स आफिस सफलता में ही सुरक्षित दिखायी देती है।यह बात सही है कि हिन्दी के तमाम वरिष्ठ सितारों में शाहरुख ही एकमात्र बच रहे थे जिन्होंने सफलता के लिए दक्षिण के आगे हाथ नहीं पसारे थे। लेकिन लगता है कमाई में आगे निकलते सितारों ने कहीं न कहीं अपने मैनरिज्म पर उनके विश्वास को कमजोर किया है,कि रोहित शेट्टी और दक्षिण, सफलता के पर्याय बन चुके दो गारंटेड ब्रांड को उन्हें अपने साथ लेना पडा। जाहिर है जिसका असर भी दिखा, कहते हैं पहले तीन दिनों में ही 100करोड की कमाई कर चेन्नई एक्सप्रेस ने इतिहास रच दिया,जबकि शाहरुख की रा वन और जब तक है जान दोनों ही फिल्मों को 100 करोड पार करने में पसीने छूट गए थे।जाहिर है हिन्दी सिनेमा में दक्षिण की लोकप्रियता एक बार फिर स्थापित हो गई। लेकिन क्या वाकई हिन्दी समाज में इसे दक्षिण की लोकप्रियता का प्रतीक माना जा सकता है।

सच यही है कि दक्षिण भारतीय फिल्मों के रिमेक के रुप में आयी अधिकांश फिल्मों को सप्रयास उनकी वास्तविक पहचान से बचाकर रखने की कोशिश की जाती है,सिर्फ एक्शन दृश्यों को छोड दें तो उन्हे किसी भी सामान्य हिन्दी फिल्म से अलग नहीं किया जा सकता,यहां साजिद खान की हिम्मतवाला जरुर अपवाद है जिसमें सीन दर सीन कापी करने की कोशिश की गई थी,और ऐतिहासिक रुप से असफल हुई। शाहरुख की चेन्नई एक्सप्रेस दक्षिण से प्रभावित बाकी फिल्मों से इस अर्थ में अलग है कि जहां गजनी, बाडीगार्ड, राउडी राठौड, सिंघम जैसी फिल्मों में दक्षिण भारत ढूंढना भी मुश्किल होता है, वहीं चेन्नई एक्सप्रेस में रिमेक नहीं होने के बावजूद सिर्फ और सिर्फ दक्षिण भारत ही दिखता है। कथकली से लुंगी तक,नायिका के खूबसूरत गजरे से नारियल काटने वाला गंडासे लेकर भागते बदसूरत एक्सट्रा तक,यहां दक्षिण भारत की हरेक पहचान को स्थापित करने की कोशिश की गई है। कह सकते हैं रिमेक के नाम पर जहां पहले दक्षिण को उसकी जमीन से काट कर हिन्दी सिनेमा तक लाने की कोशिशें हुई थी,यह पहली बार है जब हिन्दी सिनेमा को दक्षिण की जमीन पर ले जाने की कोशिश दिख रही है।ठीक वैसै ही जैसे आमतौर पर इसे पंजाब और कभी कभी बंगाल ले जाने की कोशिश दिखती है।

चेन्नई एक्सप्रेस की कहानी उत्तर भारत से शुरु होती है,और दक्षिण भारत में पूरी होती है।वास्तव में यह उत्तर दक्षिण के नाभिनाल संबंध को स्थापित करती है,अपने रोचक अंदाज में। यह हर उस दादा दादी की कहानी हैजिसे देश को एक समझने के लिए किसी राष्ट्रीय एकता के नारे की जरुरत नहीं। वह राजनीतिक विभाजन नहीं जानता,न जानना चाहता है,वह रामेश्वरम, तिरुपति, पांडिचेरी, हरिद्वार, द्वारिका,वैष्णोदेवी जानता है,उसे फर्क नहीं पडता कि ये तेलांगना में है कि उत्तराखंड में। वह जन्म लेता है मुम्बई में और अस्थि विसर्जन चाहता है हरिद्वार और रामेश्वरम में। राहुल(शाहरुख खान) के मां बाप बचपन में ही गुजर चुके हैं। दादा दादी ने उसे पाला है। दादा दादी की देखभाल में उसकी उम्र के 40 वर्ष निकल जाते हैं,वह न तो प्यार के लिए समय निकाल पाता है,न ही उसकी शादी हो पाती है। अपने जीवन की एकरसता दूर करने वह दोस्तों के साथ गोवा जाने का प्रोगाम बनाता है,कि तभी उसके दादा की मौत हो जाती है,और उसकी दादी उसे दादा की अस्थियों को रामेश्वरम में विसर्जित करने की जवाबदेही सौंपती है। राहुल यह मान कर निकलता है कि अस्थियों को गोवा में ही विसर्जित कर देगा,लेकिन ट्रेन में उसकी मुलाकात संयोगवश मिनियम्मा(दीपिका)से होती है,जो जबरन विवाह के डर से अपने पिता के चंगुल से भाग निकली थी,लेकिन भाइयों द्वारा पकडे जाने के बाद अपने गांव लौट रही होती है। राहुल भी मिनियम्मा के साथ उसके गांव पहुंच जाता है। जहां उसके पिता का राज चलता है। हमेशा की तरह ताकत और इमोशन की लडाई चलती है,और अंततः इमोशन की जीत होती है। कहानी भले कुछ खास नहीं लगती हो,लेकिन इसके साथ जुडे तत्व चलते चलते ढेर सारे मुद्दों को उकेरते चलते हैं,जो कहीं न कहीं रोहित शेट्टी की फिल्म में बोनस की तरह दिखता है।क्योंकि रोहित शेट्टी से और चाहे जितनी उम्मीद रख लें,किसी मैसेज की उम्मीद तो नहीं ही रख सकते हैं।लेकिन यहां रोहित कई जगहों पर ठोस मैसेज के साथ दिखते हैं।इसका अंदाजा गाने के इस बोल से लगाया जा सकता है...मैं कश्मीर,तू कन्या कुमारी,नार्थ साउथ की देखो मिट गई दूरी ही सारी।..एक तरफ झगडा है,साथ तो फिर भी तगडा है। दो कदम चलते हैं तो लगता है आठ। दो तरह के फ्लेवर हैं,सौ तरह के तेवर। दरबदर फिरते हैं जी,फिर भी अपना ठाठ है। .....महत्वपूर्ण है कि यदि आखिरी दृश्य में शाहरुख के इमोशनल भाषण को छोड दें तो ये मैसेज फिल्म में काफी सहजता से आते हैं,जिसे तत्काल हम भले ही हंसी में उडा देते हैं,लेकिन कहीं न कहीं वे अवचेतन में जगह बनाने का सामर्थ्य रखती हैं।

फिल्म के अंतिम दृश्य में राहुल का लंबा संवाद है,जिसमें वह आजादी की 66 वी वर्षगांठ में लडकियों की आजादी को जरुरी भी बताता है।लेकिन यह सारा व्याख्यान हास्यास्पद हो जाता है,जब मिनियम्मा को जीतने के लिए उसे पिता द्वारा पसंद किए गुंडे से युद्ध भी करना होता है। और आश्चर्य कि जीतने के बाद ही नहीं,उस गुंडे द्वारा अनुमति दिए जाने के बाद ही वे अपनी बेटी का हाथ छोडते है। फिल्म के आखिरी दृश्यों में सामने खडी लडकी और उसे हासिल करने के लिए दो लोगों के बीच जंग देख ऐया लगता है शानदार दावत के आखिरी निवालें में कंकड आ गया हो। शानदार दावत इस अर्थ में कि पूरी फिल्म में दक्षिण भारत की विलक्ष्ण खूबसूरती कहीं पलक झपकाने का अवसर नहीं देती,कह सकते हैं और कुछ नहीं तो दक्षिण भारत के विहंगम प्राकृतिक सौंदर्य के लिए ही यह फिल्म कई बार देखी जा सकती है।वास्तव में चेन्नई एक्सप्रेस देखते हुए अहसास होता है,देश के आधे हिस्से से किस कदर दूर हैं हम। फिल्म में मिनियम्मा तमिल और हिन्दी के साथ मराठी भी बोलती है,जब नायक उसके मराठी बोलने पर चकित होता है,तो वह बोलती है,जब तुम तमिल सीख सकते हो तो मैं मराठी क्यों नहीं सीख सकती। फिल्म में लगभग आधे संवाद तमिल में हैं।जिसे कभी कभी मिनियम्मा अनुवाद कर बताती है,लेकिन अधिकांश स्थानों पर भाव से अर्थ निकाल लेते हैं।वास्तव में चेन्नई एक्सप्रेस तब सवाल करते लगती है,जब वहां दक्षिण के धुर देहात में हिन्दी बोलने समझने वाले लोग दिख जाते हैं,जबकि मुम्बई से गया राहुल नायिका और उसके पिता के नाम का भी उच्चारण नहीं कर पाता।

चेन्नई एक्सप्रेस में रोहित शेट्टी यही स्थापित करने की कोशिश में दिखते हैं कि भौगोलिक,राजनीतिक और भाषायी स्तर पर हम भले ही अलग दिखते हों,संवेदना और संस्कृति की एक जमीन है,जहां हम एक हो जाते हैं।राहुल और मिनियम्मा गुंडों से बच कर भाग रहे होते हैं, राहुल को याद भी नहीं कि उसके दादा का अस्थि कलश पीछे ही छूट गया है,तभी मिनियम्मा अपनी सारी चिन्ता छोड अस्थियां लाने दौड जाती है। इतना ही नहीं फिल्म में और भी बहुत कुछ है जो उत्तर-दक्षिण को एक जमीन पर दिखाने की कोशिश करता है।मिनियम्मा के पिता का अपने गांव कोंबन के इलाके में तूती बोलती है।मजा आता है जब देखते हैं चेन्नई एक्सप्रेस को दो स्टेशनों के बीच ठीक गांव के सामने चेन खींच कर रोक लिया जाता है,और मिनियम्मा सहजता से बोलती है,हमलोग तो ऐसा ही करती,जहां हम खडा हो जातीस्टेशन वहीं से शुरु होती है।अभीतक हिन्दी सिनेमा में अपराधिक इलाके के रुप में मोतिहारी,लालगंज और रामगढ ही दिखाया जाता रहा है,पहली बार रोहित शेट्टी दक्षिण भारत के किसी कोंबन को दिखाते हैं,जहां या तो गुंडे हैं या गुंडों का साथ देने वाले,जहां अपराध का राज इस कदर चलता है कि पुलिस भी पनाह मांगती है।

उम्मीद है चेन्नई एक्सप्रेस हिन्दी सिनेमा को दक्षिण तक ले जाने में सफल हो सकेगी और हिन्दी दर्शकों को अपने ही देश के एक बडे हिस्से को और भी करीब से जानने का अवसर मिल सकेगा।

शनिवार, 3 अगस्त 2013

बाबा नागार्जुन और ओ हेनरी के बावजूद महत्वपूर्ण होती लुटेरा


 

 
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

नायिका अपने जमीन्दार पिता को कविता सुना रही होती है।नायक कविता पूरी करते हुए दृश्य में प्रवेश करता है,
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

और कविता के बारे में ही नहीं,कविता के रचयिता बाबा नागार्जुन के बारे में भी विस्तार से बताता है।उनके मैथिली उपनाम वैद्यनाथ मिश्र यात्री तक।किसी भी फिल्म के लिए बाबा नागार्जुन की यह कविता यू एस पी या कहे विशिष्ट आकर्षण हो सकती थी। जैसा बाबा की मंत्र कविता संजय झा की अल्प चर्चित फिल्म स्ट्रिंग्स में थी।इसी मंत्र कविता को लेकर संजय झा को अदालत तक का सामना करना पडा और अंततः फिल्म प्रदर्शित नही हो सकी।लेकिन जहां कहीं भी कुंभ मेले पर केंद्रित फिल्म स्ट्रिंग्स देखी गई,बाबा के मंत्र को फिल्म की विशिष्टता के रुप में स्वीकार किया गया।

यूं तो आमतौर पर हिन्दी कविता और हिन्दी सिनेमा में छत्तीस का ही रिश्ता रहा है, लेकिन यह भी सच है कि परदे पर जब भी हिन्दी कविता ध्वनित हुई है,लंबे समय तक याद ही नहीं रखी गई,फिल्म की प्रतिष्ठा में भी इजाफा हुआ है,चाहे वह अर्धसत्य में ओम पुरी की आवाज में दिलीप चित्रे की कविता का पाठ हो या सिलसिला में अमिताभ बच्चन की गंभीर आवाज में हरिवंश राय बच्चन की कविता का पाठ।लेकिन लुटेरा में पाखी(सोनाक्षी सिन्हा) और वरुण(रणबीर सिंह) द्वारा बाबा नागार्जुन की अकाल कविता का पाठ हिन्दी भाषियों को थोडी देर के लिए गुदगुदाता अवश्य है,लेकिन अंततः पटकथा में पैबन्द का ही अहसास देती है।1953 के बंगाल के एक छोटे से जमींदार के घर में बाबा नागार्जुन के कविता संग्रह की उपस्थिती जहां सहज स्वीकार्य नहीं होती,वहीं बंगाल के एक गांव में रहने वाली युवती से खरी हिन्दी में कविता पाठ भी निर्देशक द्वारा मेहनत से तैयार किए गए बंगाल के वातावरण को बाधित करता है।  यह सवाल तो अपनी जगह है ही कि जब 1953 के पीरिएड को फिल्म में पूरी तरह से स्थापित किया जा रहा था,लगभग उसी वर्ष रचित कोई हिन्दी कविता बंगाल के किसी गांव तक कैसे पहुंच जा सकती थी।यह सही है कि उस समय बंगाल और मिथिला में सांस्कृतिक निकटता थी,लेकिन निश्चित रुप से वह निकटता इस हद तक तो नहीं ही थी कि बंगाल के गांव में रवीन्द्र संगीत के स्थान पर बाबा नागार्जुन की कविता पढी जा सके।

चेखव ने लिखा था,यदि नाटक के पहले दृश्य में दिवार पर बंदूक टंगी दिखाई जा रही हो तो निश्चित रुप से उसे अंतिम दृश्य तक चलनी चाहिए।विक्रमादित्य मोटवाणे लुटेरा के शुरुआती दृश्य में ही बाबा नागार्जुन की कालजयी कविता अकाल का उपयोग तो कर लेते हैं,लेकिन क्यों ,यह अंत तक स्थापित नहीं हो पाता। यदि नायिका के हिन्दी अध्ययन की पृष्ठभूमि के रुप में या पूर्वपीठिका के रुप में इस पाठ को दिखाया जाता तब भी इस पाठ की सार्थकता समझी जा सकती थी। फिल्म के शुरुआती दृश्यों में जब बंगाल और 1953 को स्थापित करने की कोशिश निर्देशक कर रहा होता है,शायद रवीन्द्र संगीत या शरत साहित्य की चर्चा दृश्य को ससक्त बनाने में सहायक हो सकती थी।लेकिन यह चूक दाल में कंकड की तरह खटकती अवश्य है,शानदार तडके के साथ बनी दाल के स्वाद को प्रभावित नहीं कर पाती।

सिनेमा के जिस परदे पर दो हफ्ते पहले ये जवानी है दिवानी गुजर चुकी हो,वहां लुटेरा जैसी दुखांत प्रेमकथा की उपस्थिती ही विस्मित करती है। उल्लेखनीय है कि विक्रमादित्य ने इस प्रेमकथा को ओ हेनरी की प्रसिद्ध कहानी द लास्ट लीफ से भी जोडने की कोशिश की है,हालांकि इसकी झलक फिल्म के आखिरी हिस्से में ही मिलती है। फिल्म आजादी के बाद हिन्दुस्तान,खासकर बंगाल के जमीन्दारों की बिगडते हालातों को रेखांकित करते शुरु होती है। यह विक्रमादित्य का निर्देशकीय कौशल ही है कि जमींदार की हवेली में मन रहे दुर्गापूजा के बीच ही वे अवसाद की रचना करते हैं,जो शुरुआत से ही फिल्म के मूड को स्थापित कर देता है।परदे पर दुर्गापूजा की भीडभाड भी होती है,रामलीला भी, लेकिन सिर्फ लाइट और रंग पर नियंत्रण रख वे दर्शकों को इसके लिए तैयार करते हैं कि आगे उन्हें त्योहार का उत्साह नहीं,जीवन के दुख से रु ब रु होना है। रामलीला देखते देखते ही जमींदार की बेटी पाखी की सांस खिंचने लगती है,उसे अपने कमरे तक ले जाने के क्रम में हवेली का असीम विस्तार जहां जमींदारी के समृद्ध दिनों की ओर इशारा करता है वहीं उसका सूनापन और अंधेरा आने वाले दुर्दिन को भी स्थापित कर देता है।

उनके जीवन के सूनेपन में वरुण उत्साह के झोंके के साथ आता है।पुरातत्वविद के रुप में आया वरुण बताता है कि सरकार के आदेश पर वह गांव में खुदाई करने आया है।उसकी बातों से प्रभावित होकर जमींदार खुदाई के लिए मजदूरों की ही व्यवस्था नहीं कर देता,बल्कि उसे भी अपनी हवेली में रोक लेता है। वरुण के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर पाखी उससे प्यार कर बैठती है।जमीन्दार विवाह को भी राजी हो जाता है,लेकिन तब पता चलता है कि वे पेशेवर चोर थे।इस धोखे से आहत जमींदार की मौत हो जाती है और पाखी अकेले बंगाल के हिल स्टेशन डलहौजी के अपने बंगले में रहने चली आती है।टी बी से ग्रसित होने के बाद भी जब डाक्टर उसे किसी गर्म स्थान पर जाने की सलाह देते हैं तो वह साफ इन्कार कर देती है।वास्तव में अपने प्यार को न तो वह भूल पाती है,न ही भूलना चाहती है।अपने आपको वह अपने आखिरी दिनों के लिए तैयार कर चुकी है,तभी पुलिस से भागते भागते वरुण भी अपने दोस्त के साथ डलहौजी पहुंच जाता है।वरुण और पाखी का सामना होता है।एक ओर अपने पिता की मौत और अपनी बरबादी का अहसास, दूसरी ओर प्रेम, और सिर्फ प्रेम।पाखी के लिए जीवन और कठिन हो जाता है जब वरुण पुलिस की गोली से घायल होकर उसी के घर में शरण लेता है। पाखी चाहते हुए भी उसे पुलिस के हवाले नहीं कर पाती, और वरुण अवसर मिलने पर भी पाखी को छोड कर भाग नहीं पाता। दोनों में बीते प्रेम को लेकर कोई गिले शिकवे नहीं होते,न ही आने वाले दिनों के लिए कोई आश्वासन लेकिन फिर भी दर्शकों को दोनों के बीच के मजबूत होते इमोशन को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती।

शायद इसलिए कि दर्शक प्रेम की यह गाथा 1953 की पृष्ठभूमि में देख रहे होते हैं। आज की तारीख में प्रेम का वह उच्चतर स्वरुप संभव ही नहीं। समय के साथ प्रेम की परिभाषा भी बदली है और प्रेम की प्रस्तुती भी।प्रेम के प्रति यह शिद्दत आज उपभोक्तावाद के दवाब में संभव ही नहीं।विक्रमादित्य को पता है कि शिद्दत की इस प्रेमकथा से दर्शकों को जोडने के लिए जरुरी है कि पहले उन्हें 1953 में ले जाया जाय।वे 1953 को स्थापित करने में कोई कमी नहीं छोडते।वस्त्र विन्यास से लेकर कलाकारों के बाडी लैंग्वेज तक में समय की पहचान देखी जा सकती है।फिल्म में रेडियो जैसी प्रापर्टी का विक्रमादित्य ने बखुबी इस्तेमाल किया है। जहां रेडियो पर बजते जिंदगी पर इक दांव लगा ले जैसे गाने अगले दृश्य की भूमिका के रुपाते हैं वहीं नायक नायिका के संवादों में आए तत्कालीन सिनेमा के संदर्भ उनके एक सामान्य युवा होने का भी संकेत देते हैं।संवाद अनुराग कश्यप ने लिखे हैं,और उनका अनुभव संवादों में सुना भी जा सकता है।अधिकांश संवाद सामान्य बातचीत के रुप में हैं जो सीधे पात्रों से जुडने में मदद करती हैं।निश्चित रुप से विक्रमादित्य के सामने सबसे बडा टास्क 2013 के दर्शक को 1953 में ले जाना  रहा होगा,लेकिन शुरुआती दृश्यों से ही दर्शकों को वे अपने कथा समय में ले जाने में सफल होते हैं,जिससे कहानी कहना उनके लिए सहज हो जाता है।दर्शकों को समय से जोडे रखने के लिए ही वे फिल्म की गति को भी नियंत्रित रखते हैं।50 के दशक की फिल्मों की तरह लुटेरा भी आराम से चलती है,एक एक दृश्यों के साथ ठहर कर बात करते हुए।लंबे शाट्स जो अब हिन्दी सिनेमा में आमतौर पर नहीं देखे जाते,शायद आशुतोष गोवारीकर की स्वदेश आखिरी फिल्म थी,जिसमें लंबे शाट्स देखे गए थे,यहां भी हैं।

इस तरह की इन्टेन्स प्रेमकथा का सबसे अनिवार्य तत्व अभिनय होता है। यहां मुगलेआजम की तरह संवाद नहीं हैं।पात्रों के पास अपनी बातें या भावनाएं व्यक्त करने का एकमात्र साधन अपना चेहरा और अपनी आंखें हैं।सुखद है कि सोनाक्षी पाखी के दर्द को पूरी तरह स्वीकार करती है।आमतौर पर कोई भी समझदार निर्देशक अभिनेता के क्लोजअप का जोखिम तभी उठाता है जब उसे उसके अभिनय पर विश्वास हो। सोनाक्षी का बार बार दिखता क्लोजअप निर्देशक के विश्वास का ही प्रतीक लगता है।वास्तव में पूरी फिल्म में शायद ही कहीं दर्शक सोनाक्षी को याद कर पाते हैं,उनके सामने पाखी राय चौधरी ही  होती है। बगैर मेकअप के क्लोजअप में दिखने का जोखिम उठाकर सोनाक्षी मुख्यधारा की अभिनेत्रियों के सामने एक चुनौती रखती दिखायी देती है।फिल्म में अभिनेताओं की कोई भीड नहीं है,जितने लोगों की जरुरत होती है आमतौर पर परदे पर वही दिखते हैं।कहीं कहीं यह सन्नाटा अजीब भी लगता है,खास कर डलहौजी का सूनापन।तर्क की दृष्टि से यह भले ही अटपटा हो लेकिन फिल्म के इमोशन में यह सूनापन कहीं न कहीं सहायक होता है।रही बात तर्क की तो माना जा सकता है कि 1953 में वर्फबारी के दौरान डलहौजी जैसा हिल स्टेशन वीरान ही हो जाता हो।क्योंकि डलहौजी जैसी जगह में तब का जीवन बहुत आसान तो नहीं ही रहता होगा।

वास्तव में लुटेरा एक ऐसी प्रेमगाथा लेकर आती है जिसे हम सिर्फ किताबों में पढना पसंद करते हैं।वह दर्द हमें द्रवित करता है,लेकिन उसे उठाने के लिए हम तैयार नहीं होते।लुटेरा हमें अपने अंदर झांकने को बाध्य करती है कि इन 60सालों में कितने बदल चुके हैं हम,कितनी बदल चुकी है हमारी संवेदनाएं।