बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

बलात्कार में उत्प्रेरक बनता है सिनेमा



मुम्बई हो या नासिक,लडकी तो लडकी है,पटेगी ही,पटाने वाला चाहिए।....जब हिन्दी सिनेमा के प्रतिष्ठित अधेड अभिनेता अनिल कपूर अपने प्रशंसकों के सामने अपनी आने वाली फिल्म का यह डायलाग बोलते हुए मंच पर लाइव अवतरित होते हैं तो कोई शंका नहीं बच जाती कि महिलाओं को लेकर हिन्दी सिनेमा के नजरिए में कोई तब्दीली नहीं हुई है। वास्तव में हिन्दी सिनेमा में महिला पहले भी मात्र पटने वाली वस्तु थी,अभी भी महिला प्रधान फिल्मों के लाख शोर के बावजूद उसकी अहमियत बस पटने भर तक की ही रखी जाती है। डर्टी पिक्चर, हिरोइन, फैशन, हेट स्टोरी, जिस्म2, काकटेल जैसी फिल्मों में परदे पर महिलाएं तो दिखती हैं,लेकिन उनकी ताकत नहीं दिखती, उनके प्रति संवेदना नहीं दिखती, उनके प्रति सम्मान नहीं दिखता, दिखती है उनकी औकात, जो हिन्दी सिनेमा ने तय कर रखी है। यदि गिनती के कुछ अपवादों को छोड दें तो हिन्दी की शत प्रतिशत फिल्मों का कथानक महिला को किसी न किसी तरह हासिल करने पर केन्द्रित रहा है। यह किसी न किसी तरह, पैसा, प्यार, भय, छेडखानी ये लेकर बलात्कार तक कुछ भी हो सकता है। सिनेमा ने यह स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोडी है कि असली पुरुषत्व महिला को समर्पित करवाने में,जबकि नारी जीवन की सार्थकता समर्पित हो जाने में। 90 के दशक में आयी अनिल कपूर, जूही चावला अभिनीत बेनाम बादशाह शायद आज भी कुछ दर्शकों को याद हो, जिसमें शहर के दादा बने अनिल कपूर जूही चावला के साथ बलात्कार करते हैं, और जूही चावला किसी कानूनी कारवाई के बजाय उसके पीछे शादी करने के लिए लग जाती है, और अंततः नायिका के समर्पण से प्रसन्न नायक शादी कर भी लेता है। ऐसी एक नहीं सैकडों हिन्दी फिल्में हैं जिसमें बलात्कार को मात्र भूल के रुप में सामाजिक स्वीकार्यता देने की कोशिश की गई है। आज भले ही बलात्कार के लिए फांसी की सजा की मांग की जा रही हो,लेकिन सच यही है कि वास्तविक जीवन में भी बलात्कार को छेडखानी का विस्तार ही माना गया,इसीलिए इस क्रूर अपराध के लिए नामालूम सी सजा का ही प्रावधान भी भारतीय दंड संहिता में किया गया, आश्चर्य नहीं कि आज भी एक भरी पूरी जिंदगी को समाप्त कर देने अपराध की गंभीरता को स्वीकार करने में हिलहवाले निःसंकोच जारी हैं। जब समाज ने बलात्कार के अपराध की गंभीरता समझने की कोशिश नहीं की तो सिनेमा से भला क्या उम्मीद की जा सकती है।
          सिनेमा के परदे पर बलात्कार दिखाने का यदि कोई औचित्य हो सकता है तो सिर्फ यही कि इस समस्या के प्रति दर्शक मानवीय दृष्टि से विचार करने को विवस हो सकें।1978 में मानिक चटर्जी ने रेखा, विनोद मेहरा को लेकर एक फिल्म बनायी थी,घर।जिसमें नवदंपति बने रेखा और विनोद मेहरा का नाइट शो में फिल्म देख कर लौटते हुए गुंडों से सामना हो जाता है, वे विनोद मेहरा को पीटकर बेहोश कर देते हैं और रेखा को  सामूहिक बलात्कार झेलना पडता है। नायक इसे हादसा मानकर भूलना चाहता है लेकिन नायिका उस शर्मिंदगी को नहीं भूल पाती। एक बलात्कार पीडिता पत्नी के दर्द और पति के सहयोग की विलक्ष्ण कहानी कहती थी घर, जिसमें नायक गुंडों से पिटने के बावजूद बहाहुर दिखता था। यह समस्या सिर्फ दिखाती नहीं थी उसे महसूस करने को विवश करती थी।लेकिन घर जैसी कुछ गिनी चुनी फिल्मों को छोड दिया जाय तो शायद ही कोई फिल्म इस कसौटी पर खरी उतर सके। बलात्कार वाकई कहानी का हिस्सा हो सकता है। संक्रमण का दंश झेलती हमारी संस्कृति और उदारीकरण वैश्वीकरण के दौर से गुजरते समाज के युवा वर्ग में सब कुछ पा लेने की अंतहीन ललक बढी है, जो अंततः उन्हें कुंठा के गर्त में धकेल देता है, और बलात्कार जैसे हादसे सामने आते हैं। वर्षों पहले मुंबई लोकल ट्रेन में घटी एक घटना पर मेहुल कुमार ने 90 के दशक में जागो बनाई थी, इस तरह की कहानियां यदि दिखाई जा रही है तो इस पर आपत्ति की भी नहीं जा सकती। घाव यदि है तो उसे दिखाना भी जरुरी है।लेकिन उसके दिखाने की सीमा है, हर जगह हर वक्त घाव का खुला प्रदर्शन उसे नासूर ही बना देती है। क्रूरता और विकृति की यह पराकाष्ठा ही मानी जा सकती थी कि एक स्कूल जाने वाली नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार का दृश्य  पूरे इतमिनान से फिल्माया गया, तीन बलात्कारी और तीनों के विस्तारित दृश्य दर्शकों के सामने परोसे जाते हैं, परोसे इस अर्थ में कि दर्शकों की नजर से कुछ छूट न जाय।      
         प्रकाश झा के चक्रव्यूह की चाहे लाख आलोचना करें लेकिन नि-संकोच कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा के लिए इसका बलात्कार दृश्य किसी पाठ से कम नहीं। प्रकाश झा न तो इसे विद्रुपता से फिल्माते हैं, न ही रोचकता प्रदान करते हैं,यह मात्र एक दुर्घटना की तरह दर्शकों तक पहुचती है। कह सकते हैं, हिन्दी सिनेमा में बलात्कार का यह एकमात्र दृश्य होगा, जिसमें बलात्कार होते नहीं दिखाया जाता, बावजूद इसके बलात्कार के दर्द से दर्शक रु ब रु होते है। इसके बरक्स भ्रष्टाचार से लेकर हेट स्टोरी तक के बलात्कार के विस्तारित दृश्यों में दर्द कहीं गुम सा हो जाता है। निश्चय ही फिल्मकार का उद्देश्य भी यही होता है। भ्रष्टाचार के बलात्कार दृश्य को,परदे पर बलात्कार को रोचक बनाने के घृणित उदाहरण के रुप में याद किया जा सकता है,अंधी युवती की भूमिका में शिल्पा शिरोडकर के साथ पालिटिशयन बने अनुपम खेर का बलात्कार दृश्य खासतौर पर रिवाल्विंग बेड पर स्लोमोशन में फिल्माया गया था।कुछ इस तरह कि दर्शक अपने को बलात्कार में शामिल महसूस कर सकें। यह थोडा अति अवश्य हो लेकिन यह भी सच है कि बलात्कार जब भी विषय बना हिन्दी सिनेमा ने ऐसी ही कोशिशे की हैं। चाहे वह बी आर चोपडा कि इंसाफ का तराजू ही क्यों न हो। कतई आश्चर्य कि बलात्कार दृश्य के नाम पर  बैंडिट क्वीन के शेखर कपूर से लेकर जख्मी औरत के अवतार भोगल तक  एक ही हमाम में दिखाई देते हैं।वास्तव में फिल्म की कहानी की जरुरत कभी भी बलात्कार दिखाने की नहीं हो सकती।एसे विस्तारित दृश्य बलात्कारी के प्रति गुस्सा और भुक्तभोगी के प्रति हमदर्दी जगाने के बजाय उनमें आनंद की अनुभूति ही पैदा करते हैं। और कहीं न कहीं परदे पर दिखते बलात्कारियों के पौरुष के साथ अपने को जोड कर देखने को भी तैयार करती हैं।
     वास्तव में 70 के दशक के बाद की कोई फिल्म याद करना वाकई कठिन है, जिसमें महिला को उसके शरीर से अलग कर देखने की कोशिश की जा सकी हो। बलात्कार तो हिन्दी सिनेमा में महिलाओं के असम्मानजनक प्रस्तुती का सिर्फ अंश भर है।आमतौर पर हिन्दी सिनेमा में प्रेम की शुरुआत छेडखानी से शुरु होती है। जाहिर है जब परदे पर नायिकाओं को नायक की मर्दानगी पर मर मिटते देखा जाता है  तो क्यों न युवाओं में  फ्रस्ट्रेशन हो कि ये मेरे साथ क्यों न हो रहा।आज अचानक जब कथित प्रेम के अस्वीकार के बाद  चेहरे पर तेजाब फैंकने से लेकर हत्या, बलात्कार तक की खबरे आम हो गई हैं तो कहीं न कहीं सिनेमा की उत्प्रेरक की भूमिका से कोई इन्कार नहीं कर सकता।वास्तव में यह सच है कि हालिया वर्षों में परदे पर बलात्कार की सीधी प्रस्तुती कम हो गई है, लेकिन बलात्कार की प्रवृति को जिस अभिजात्य अंदाज में फिल्माने की नई शुरुआत सिनेमा ने की है, वह अधिक घातक दिख रहा है। हिरोइन और डर्टी पिक्चर से लेकर काकटेल और जिस्म2 तक अपने दर्शकों को सीधा यह संदेश दे रही हैं कि महिलाएं सहज उपलब्ध हैं, बगैर किसी वर्जना के बस आपके चाहने की देर है।जब महेश भट्ट जैसे फिल्मकार दर्शकों को सुख पहुंचाने पोर्न स्टार तक को लाने में संकोच नहीं कर रहे तो समझा जा सकता है,हिन्दी सिनेमा अपने लिए कैसे दर्शक तैयार करने की कोशिस कर रही है।सिनेमा यह कह कर बरी नहीं हो सकती कि दर्शकों की पसंद की चीजें परोसना उसकी बाध्यता है, या आमिर खान की तरह यह सफाई भी काफी नहीं हो सकती कि कहानियां तो समाज से ही ली जा रही हैं।सिनेमा को समझना होगा कि काकटेल और जिस्म के परे भी नहीं,परे ही भारतीय समाज है।जिसके प्रति उसकी बडी जवाबदेही है।क्योंकि लोग रहेंगे तभी सिनेमा रहेगा। यदि हमारे सौंदर्यबोध पर इसी तरह आक्रमण की कोशिशें जारी रहें तो कल लोग सीधे सनी लियोनी को सनी लियोनी की ही फिल्म में देखना पसंद करेंगे,महेश भट्ट की फिल्म में नहीं।

अमेरिका के लिए लडता हमारा विश्वरुप


अफगानिस्तान के किसी इलाके में अलकायदा के आतंकियों ने अमरीकियों को बंधक बना रखा है। नाटो की फौज हवाई हमला करती है। जमीन से अलकायदा के मुजाहिदीन भी हेलिकाप्टर से चल रही गोलियों का जवाब देते हैं।विश्वरुप के इस लम्बे युद्द दृश्य में एक छोटा सा दृश्य आता है, जिसमें जमीन पर बुरके में भागती औरतें अमेरिकी हेलिकाप्टर से चल रही गोलियों की शिकार हो जाती हैं। यह स्वभाविक दृश्य, तब अस्वभाविक दिखने लगता है जब अगले शाट में अमेरिकी सैनिक का चेहरा दिखता है, जिसमें अफसोस से वह गरदन झटकाता दिखता है। लाख मानवीय ही कोई क्यों न हो,युद्ध में हो रही मौत पर कोई सेना कभी अफसोस नहीं करती, वह भी अमेरिका कमल हासन की तमिल फिल्म विश्वरुपम और हिन्दी में विश्वरुप चाहे भले ही किसी का विरोध नहीं करती दिख रही हो, अमेरिका के पक्ष में जरुर में दिखती है। फिल्म में एक संवाद भी है,अमेरिकी बच्चों और महिलाओं को नहीं मारते। अमेरिका के पक्ष में सहानुभूति तब और घनी हो जाती है,जब हिंसाग्रस्त अफगानिस्तान में अमेरिकी महिला डाक्टर आतंकी की पत्नी का भी इलाज करती दिखती है,जो अफगानिस्तानियों का इलाज करते हुए अमेरिकी हमले में मारी भी जाती है। कमल हासन की विश्वरुप में जेम्सबांड की शैली का प्रभाव दिखता है,जहां सब कुछ ब्लैक एंड व्हाइट में है। हिंसक आतंकियों का परमाणु बम से अमेरिका को नष्ट करने की विभत्स मंशा और मुकाबले में सामने  एक अकेला नायक। वाकई इस विश्वरुप में तो यह रहस्य नहीं खुल पाता कि एक भारतीय एजेंट क्यों अमेरिका को बचाने में लगा है,शायद अगले विश्वरुप में खुले,क्योंकि फिल्म कमिंग सून विश्वरुप 2 की घोषणा के साथ खत्म होती है, अगली विश्वरुप की कहानी भारत की ही सरजमीन पर चलेगी कमल हासन इसकी भी झलक देते हैं,जब अंतिम दृश्य में एक आतंकी भारत को निशाना बनाने की धमकी का विडियो रिकार्ड बनाता दिखता है।
तब तक  कमल हासन की इस बात से असहमत होने का कोई कारण नहीं बनता कि इस फिल्म से हिन्दुस्तान के मुस्लिमों के नाराज होने की कोई वजह नहीं। कमल हासन की लगभग सवा दो घंटे लम्बी 'विश्वरुप', अमेरिका और अफगानिस्तान की पृष्ठभूमि में है, हिन्दुस्तान का संदर्भ अवश्य है,लेकिन आश्चर्य जनक रुप से मात्र प्रधानमंत्री की आवाज के रुप में जब वे एक सफल मिशन के लिए अपने एजेंट को बधाई दे रहे होते हैं। अलकायदा की चर्चा जरुर है,लेकिन किसी धर्म विशेष पर कोई टिप्पणी नहीं है। यह जरुर है कि 'विश्वरुप' में अलकायदा के साथ इस्लाम और कुरान के भी संदर्भ हैं। लेकिन जिस धार्मिक कट्टरता की जमीन पर अलकायदा का उदय होता है,वहां इससे बचना कमल हासन के लिए संभव था भी नहीं। जब अलकायदा की चर्चा होगी तो मस्जिद, मदरसे और कुरान से कैसे बचा जा सकता है। वास्तव में जिन मुद्दों पर विश्वरुप विरोध की हकदार थी,तात्कालिक विरोध ने उन महत्वपूर्ण मुद्दों को गौण कर दिया।बगैर कलाकार को अवसर दिए हम अपने निर्णय मानने को बाध्य करते हैं। वास्तव में कला कोई सरकारी सर्कुलर नहीं होता कि उसे वैधानिक रुप से सही होना अनिवार्य हो,कला कलाकार की निजी अभिव्यक्ति होती है,हो सकता है,वह अतिरंजित हो, गलत हो, विमर्श उसे पूर्णता और शुद्धता देते हैं। लेकिन आमतौर पर कला को विमर्श की कसौटी तक पहुचने का हम अवसर ही नहीं देना चाहते।    
विश्वरुप में जो आपत्तिजनक है ,आपत्ति उस पर नहीं होती ,उस पर होती है जो है ही नहीं।फिल्म की शुरुआत ही इस कैप्सन के साथ होती है कि फिल्म में हिंसा के कुछ बेचैन करने वाले दृश्य हैं ,जो अभी तक न्यूजचैनलों में ही दिखाए जाते रहे हैं। वाकई फिल्म में हिंसा के विद्रुपतम रुप हैं। शरीर से कट कर गिरी बांह में पिस्तौल दिखना या क्रेन से लटका कर सार्वजनिक रुप से फांसी देने का लम्बा दृश्य देखना आमतौर पर सहज नहीं होता लेकिन इस फिल्म में ये दृश्य बेचैन नहीं करते।कमल हासन इस हिंसा को जायज ठहराने के लिए ऐसा कथा वितान रचते हैं,जिसके भ्रम में सबकुछ सामान्य और जायज लगने लगता है। फिल्म की शुरुआत एकदम ही कोमल और पारिवारिक वातावरण में होती है। अमेरिका में एक भरतनाट्यम का गुरु विश्वा और ग्रीन कार्ड की महात्वाकांक्षा में उसकी उम्र को नजरअंदाज कर उसके साथ ब्याह कर आयी न्यूक्लियर साइंटिस्ट निरुपमा।ग्रीन कार्ड मिल जाने के बाद निरुपमा अपने बास से जुडने के लिए विश्वा से अलग होना चाहती है। वह एक वैध बहाने की खोज के लिए विश्वा के पीछे जासूस लगा देती है।जासूस जब विश्वा की सच्चाई के पास पहुंचता है तो कहानी पारिवारिक से आतंकवाद और उससे मुकाबले की लडाई में बदल जाती है। बिरजू महाराज के नृत्य से शुरु हुए फिल्म में आगे सिर्फ धमाके और मौत ही दिखते हैं। फिल्म में एक लाइव कामिक सेंस के साथ एक्शन,सस्पेंश और थ्रिल भी है,जो दर्शकों को ठहर कर सांस भरने का भी अवसर नहीं देती। कहानी का ताना बाना कमल हासन ने कुछ ऐसा बुना है कि फिल्म का विचार पक्ष, यदि कोई है भी तो दर्शक कम से कम फिल्म देखते हुए उसे तवज्जो नहीं दे पाते।
 यदि कहें तो विश्वरुप विचार की भूमि पर आतंकियों की हिंसक दुनिया की विद्रुपतम तस्वीर रखती है।जहां धर्म का चित्रण अपने फैनेटिक रुप में है, जो अपने अनुयायिओं को सिर्फ जान लेने और जान देने के लिए तैयार करती है। वाकई यदि धर्म व्यक्ति के विचार और सोच को कुंद कर देती है उससे बडा दुर्भाग्य मानव का नहीं हो सकता।फिल्म में अपने शरीर पर बम बांध कर अमेरिकी टैंक उडाने वाले आतंकी भी दिखते हैं तो ऐसे लोगों के समूह को फिल्मकार खासतौर से रेखांकित करता है जो धर्म के नाम पर रेडियेशन झेल तिल तिल मरने को तैयार है।सिर्फ वर्चस्व के लिए धर्म का यह स्वरुप चिंतित कर सकता था,लेकिन कमल हासन अपनी तेज गति की विश्वरुप में इसका अवसर नहीं देते। कमल हासन अफगानिस्तान से निर्देशित हो रहे आतंकवाद की कई परते खोलने की कोशिश करते हैं, पाकिस्तान सीमा पर सेना के सहयोग से अवैध आवाजाही, अफीम का कारोबार, व्यवसायिको और उद्योगपतियों का आर्थिक सहयोग, वास्तव में बदलते हालात में आतंकवाद को वे एक जिद के रुप में देखते हैं।ऐसी जिद जो विकल्प के बावजूद आतंकवाद के दहशत में जीना पसंद करने के तैयार करती है।आतकी सरगना ओमर अपने बेटे की मौत पर कहता भी है,काश मैं उसे डाक्टर बना पाता ।कमल दिखाते हैं कि अब अफगानिस्तानियों के सामने विकल्प खुले हैं,ओमर का बेटा अंग्रेजी पढ रहा है, पूछने पर कहता है कि मैं डाक्टर बनना चाहता हूं,लेकिन ओमर उसे जेहादी बनाने की कोशिश में है,क्यों.....सिर्फ धर्म।क्या कोई धर्म वाकई इतना क्र्रूर हो सकता है, या धर्म का यह विद्रुप रुप हमने तैयार किया है।
वही इस्लाम विश्वा को सभ्यता की रक्षा के लिए तैयार करती है और वही इस्लाम सभ्यता को समाप्त करने के लिए प्रेरित कर रही है, विश्वरुप वाकई एक बडी फिल्म है, लेकिन निश्चित रुप से कमल की भी कोशिश बडी बातों से फिल्म को बोझिल करने की नहीं रही,थ्रिल और ऐक्शन की प्रबलता विचार को आने के पहले ही किनारे करते रही।बाकी की कमी विवादों ने पूरी कर दी, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लडाई में  व्यापक बहस की सारी संभावना ने दम तोड दिया।