गुरुवार, 15 नवंबर 2012

चक्रव्यूह में नक्सलवाद

खबरों में है कि अर्जुन रामपाल प्रकाश झा से नाराज हैं, इसलिए कि उन्होंने चक्रव्यूह के लिए इशा गुप्ता के साथ खासतौर पर फिल्माए गए उनके स्टीमी लव सीन को फिल्म से हटा दिया। आज जब तथाकथित इंटरटेनमेंट के नाम पर हिन्दी सिनेमा में सिर्फ और सिर्फ सेक्स बेचने की कोशिशें सर्वस्वीकार्य हो चुकी हों, ऐसे में बावजूद आयटम नंबर के प्रकाश झा की सिर्फ इसलिए प्रशंसा की जा सकती है कि सफलता के लिए वे अपने विषय पर इस कदर यकीन रखते हैं। हिन्दी सिनेमा में बलात्कार दृश्य दिखते रहे हैं, बलात्कार चक्रव्यूह में भी है, लेकिन निसंकोच कह सकते हैं कि हिन्दी सिनेमा के लिए यह बलात्कार दृश्य किसी पाठ से कम नहीं। प्रकाश झा न तो इसे विद्रुपता से फिल्माते हैं, न ही रोचकता प्रदान करते हैं,यह मात्र एक दुर्घटना की तरह दर्शकों तक पहुचती है। कह सकते हैं, हिन्दी सिनेमा में बलात्कार का यह एकमात्र दृश्य होगा, जिसमें बलात्कार होते नहीं दिखाया जाता, बावजूद इसके बलात्कार के दर्द से दर्शक रु ब रु होते है।
प्रकाश झा हिन्दी सिनेमा के ऐसे फिल्मकारों में रहे हैं, जिन्होंने सिनेमा की अपनी परिभाषा ही नहीं गढी, उसे लोकप्रियता की कसौटी पर भी सही साबित किया। उन्होंने जब भी फिल्में बनायीं,हिन्दी सिनेमा के आमफहम विषय से एकदम हटकर। आम हिन्दी सिनेमा जहां प्रेम और परिवार के बीच विचरण करती रही, प्रकाश झा सामाजिक –राजनीतिक द्व्न्द के के बीच से अपने लिए विषय का चुनाव करते रहे हैं। हमेशा उनके कथानक के मूल में कोई न कोई मुद्दा रहा है। आश्चर्य नहीं कि फिल्म इंडस्ट्री में अभिनय के 40 साल बिता चुके अमिताभ बच्चन भी उनके साथ काम कर मानते हैं कि मुद्दे पर आधारित फिल्म में काम करने का वह उनकी जिंदगी का पहला अवसर था। दामुल से लेकर चक्रव्यूह तक उनकी सभी फिल्मों में प्रेम और परिवार सामाजिक जीवन के मात्र एक अंश के रुप में दिखता है। अपहरण में अजय देवगण और विपाशा बसु की एक प्रेम कथा भी थी कितने लोग याद कर सकते हैं।चक्रव्यूह में भी प्रेम की एक महीन सी धारा चलती है, लेकिन प्रकाश झा के लिए मुद्दा महत्वपूर्ण होता है, उनका प्रेम दर्शकों को मुद्दा से दिकभ्रमित नहीं कर पाता।
चक्रव्यूह में मुद्दा नक्सलवाद है, जिसे प्रकाश झा एक आकर्षक आवरण में प्रस्तुत करते हैं। आकर्षक इसलिए कि दिल और दिमाग की जंग भारतीय दर्शकों को सदा से आकर्षित करता रहा है। अमिताभ बच्चन की अधिकांश फिल्मों की सफलता का राज ही इमोशन और कर्तव्य का द्वन्द रहा है। चक्रव्यूह में भी यह द्व्न्द अपने चरम रुप में दिखता है। दो विपरीत स्वभाव के मित्र, कबीर और आदिल। संतुलित और महत्वाकांक्षी आदिल सफलता की सीढियां चढता आइ पी एस अधिकारी बनता है। जबकि कबीर अपनी आइ पी एस की ट्रेनिंग अधूरी छोड, इलेक्ट्रोनिक्स पढता है,मोबाइल बनाने का काम शुरु करता है और लगातार असफल होता है। नक्सलियों के नेटवर्क के सामने निरंतर पिछडते जाने के बाद जब आदिल की प्रतिष्ठा पर आंच आती है तो कबीर उसके सहयोग के लिए आगे आता है। वह नक्सलियों के नेटवर्क में शामिल ही नहीं होता, उनका विश्वास भी जीत लेता है। आदिल को नक्सलियों के नेटवर्क को तोडने में सफलता मिलने लगती है।लेकिन इसी दरम्यान कबीर को नक्सलियों की लडाई की वास्तविकता और राज्यसत्ता के दमनकारी स्वरुप का बोध होता है, और वह पुलिस के सामने नक्सलियों के लिए ढाल बन कर खडा हो जाता है। लेकिन चक्रव्यूह सिर्फ दोस्ती और विश्वासघात की कहानी नहीं कहती।
कथानक के इस लोकप्रिय आवरण में प्रकाश झा अपने मुद्दे को केन्द्र में रखते हैं, और पुलिस, राजनेता, उद्योगपति के गठजोड के बरक्स नक्सल आंदोलन की इमानदारी और जीवट को रेखांकित करते हैं, मुश्किल यह है कि इसके साथ वे कोशिश विश्लेषण की भी करते हैं। मुश्किल यहीं होती है, नक्सलवाद भारतीय समाज के लिए इतना संवेदनशील मुद्दा है कि  इसका विश्लेषण हमेशा ही तलवार की धार पर चलने जैसे संतुलन की मांग करता है। प्रजातंत्र में अपने अधिकारों की लडाई के लिए हिंसक आंदोलन की वकालत नहीं की जा सकती, न ही राज्यसत्ता की हिंसक और दमनकारी नीतियों की की जा सकती है। लेकिन यह भी सच है कि भारतीय प्रजातांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था और नक्सलवाद दोनों में से किसी एक के ही साथ हम हो सकते हैं। चक्रव्यूह में प्रकाश झा एक मुश्किल संतुलन साधने की कोशिश करते हैं, और अंततः नक्सलवादी आंदोलन को समझने में हुई आरंभिक गडबडियां बाद में उनके कदम डगमगा देती है।
प्रकाश झा बिहार से रहे हैं, आंदोलन को उन्होंने करीब से देखा भी है।आश्चर्य होता है जब नक्सलवादी आंदोलन को वे आदिवासियों के आंदोलन के पर्याय के रुप में मनवाने की कोशिश करते हैं। न तो सभी नक्सलवादी आदिवासी हैं, न ही सभी आदिवासी नक्सलवादी। चक्रव्यूह में नक्सलवाद को औद्योगिकीकरण और सेज जैसे मुद्दे के साथ जोड कर देखने की कोशिश की गई है, बार बार खदान पर अधिकार की बाते होती हैं, जब कि नक्सलवाद के सामान्य विद्यार्थी को भी पता है कि नक्सलवाद मूलतः भूमि संघर्ष से जुडा रहा है। कतई आश्चर्य कि पूरी फिल्म में भूमि संघर्ष की बात कहीं नहीं आती। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रकाश झा अपने बिहार के दर्शकों को नाराज नहीं करना चाहते, जिनके लिए भूमिसंघर्ष सबसे संवेदनशील मुद्दा रहा ही नहीं,आज भी है, इतना संवेदनशील कि नीतीश कुमार तक को भूमि सुधार की बात कह कर उसे तुरंत वापस ले लेनी पडती है।
चक्रव्यूह में नंदी घाट और महान्ता जैसे नामों का इस्तेमाल इसे समकालीन तो बनाते हैं, लेकिन मुद्दे से भ्रमित भी करती हैं। फिल्म में बार बार इस सवाल को उठाया जाता है कि विकास का लाभ आदिवासियों तक नहीं पहुच रहा है। अब जब उद्योग आप स्थापित होने ही नहीं देना चाहते, इस पूर्वाग्रह के साथ कि इसका सारा लाभ उद्योगपतियों को मिलेगा। आखिर कैसे विकास हो सकता है। पुल आप ध्वस्त कर देंगे, स्कूल उडा देंगे, अस्पताल बनने नहीं देंगे, यह तो ऐसा ही है कि कमरे को बंद कर लें फिर कहें कि कोई हमें रोशनी क्यों नहीं दे रहा। अधिकार की लडाई तो तब वाजिब मानी जा सकती थी, जब उद्योग लग जाने के बाद उन्हें उनका लाभ नहीं मिल पाता। गांव उजाडने की वकालत किसी भी कीमत पर नहीं की जा सकती , लेकिन गांव यदि लोहे के खदान पर या तेल के कुएं पर बसा हो तो क्या विकास के लिए जिद की बजाय सुलह का रास्ता नहीं निकाला जाना चाहिए।
कई सवाल हैं,जिसका जवाब ढूंढने की कोशिश चक्रव्यूह नहीं करती। लेकिन अफसोस कि बगैर जवाब ढूंढे ही अधिकार के कथित हिंसक आंदोलन को जायज ठहराने की हडबडी में भी दिखती है। फिल्म में महान्ता के बेटे का अपहरण भी दिखाया जाता है, जबकि सच यही है कि आज तक नक्सल आंदोलन ने निजी तौर पर न तो किसी उद्योगपति को निशाना बनाया है, न ही बडे जमिंदारों को, आमतौर पर नक्सलियों के निशाने पर उद्योगपतियों ,ठेकेदारों के कारिन्दे और छोटे किसान ही रहे हैं। चक्रव्यूह इन सवालों का भी जवाब ढूंढने की कोशिश नहीं करती कि नक्सल आंदोलन के नाम पर पैसेंजर ट्रेनों को उडा कर सैकडों यात्रियों की जान ले लेना किस तरह आंदोलन का हिस्सा हो सकता है। फिल्म यह भी स्पष्ट नहीं करती कि नक्सलवादियों को आधुनिक हथियारों की खेप आखिर आ कहां से रही है,ये हथियार बाजार में तो बिकते नहीं कि पैसे से खरीदे जा सकें। सबसे बडी बात नक्सलवादियों का मांगे आखिर हैं क्या, ये अभी तक तो अमूर्त हैं, फिल्म भी इसे स्पष्ट नहीं करती। ये बात तो समझ में आती है कि विकास में हिस्सेदारी आदिवासियों को भी मिलना चाहिए, लेकिन सवाल है उस हिस्सेदारी का अनुपात क्या होगा,कैसे होगा,क्या उसकी जवाबदेही जनताना अदालत उठायेगी। वास्तव में नक्सलवादियों की एक, और एकमात्र मांग है राज्यसत्ता में हिस्सेदारी, इससे शायद ही कोई इन्कार कर सके। सवाल है प्रजातंत्र की कीमत पर क्या हम इसके लिए तैयार हैं।काश. चक्रव्यूह इसका भी जवाब ढूंढ पाती.संतोष सिर्फ इतना है कि सिनेमा के परदे पर लाल सलाम और टैंगो चार्ली जैसी फिल्मों की जगह नक्सलवाद पर एक गंभीर विमर्श की शुरुआत तो प्रकाश झा ने की।

अमिताभ के दौर में सिनेमा

ख्वाजा अहमद अब्बास को भी शायद अहसास नहीं होगा कि गोवा की आजादी की पृष्ठभूमि पर बनने वाली अपनी फिल्म के लिए सात हिन्दुस्तानियों के समूह में उन्होंने जिस एक हिन्दुस्तानी का चयन किया है, उसमें से सबसे अलग, सबसे लम्बा ,इतना कि कैमरा भी समेटने में संकोच करे, वह हिन्दी सिनेमा के सबसे लम्बे या कहें अंतहीन लगते दौर का केन्द्र बनेगा।सात हिन्दुस्तानी 1969 में आयी,  और यह 2012, इन 43 सालों में अमिताभ की फिल्में आयीं या नहीं, फर्क नहीं पडा, अमिताभ हिन्दी सिनेमा के केन्द्र में रहे। शायद राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के उस वक्त की जूरी को इस बेडौल से लगते नौजवान में भविष्य के अमिताभ की झलक दिख गई थी। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ नवागन्तुक अभिनेता के रुप में सात में से इसी एक हिन्दुस्तानी का चयन किया, पहचान मिली, अमिताभ बच्चन। लेकिन हिन्दी की मुख्य धारा के सिनेमा के लिए इस पहचान का कोई अर्थ नहीं था। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और हिन्दी सिनेमा उस समय लगभग एक दूसरे के लिए अप्रसांगिक थे। अमिताभ बच्चन को अपनी दूसरी और घटिया सी भूमिका वाली फिल्म परवाना के लिए दो साल की प्रतीक्षा करनी पडी। कहते हैं उस दौर में अमिताभ फिल्मकारों से मिलने स्टूडियो जाते तो कहा जाता, हो गया गोवा आजाद, अब घर जाओ। लेकिन हिन्दी सिनेमा को अमिताभ बच्चन मिलना था, बगैर किसी चयन के जो भी भूमिकायें मिली, कैमरे के सामने वे पूरी शिद्दत से उतरे। चाहे संजोग में कलक्टर माला सिन्हा के क्लर्क पति की दब्बू भूमिका हो या बाम्बे टू गोवा में महमूद का साथ भर देने की। अधिकांश फिल्मों में नायक होने के बावजूद नायिका या सहनायक से उनकी भूमिका कमतर ही रखी जा रही थी,चाहे वह शत्रुघ्न सिन्हा के साथ रास्ते का पत्थर हो या मुमताज के साथ बंधे हाथ। वास्तव में राजेश खन्ना की चमक में जब देव आनंद, राजेन्द्र कुमार,धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र जैसे सारे बडे और पुराने सितारे गुम हो चुके थे, अमिताभ के लिए यही बडी उपलब्धि थी कि आनंद के बाबू मोशाय को दर्शक याद कर ले रहे थे। हृषिकेश मुखर्जी (अभिमान) और शुभेन्दु राय (सौदागर) जैसी फिल्म परिकल्पित कर रहे थे, तो अमिताभ को केन्द्र में रखने लगे थे। लेकिन यह अमिताभ के दौर की शुरुआत नहीं थी। उसकी पूर्व पीठिका भर थी।
वाकई यह प्रकाश मेहरा की विलक्षणता ही थी कि इन्हीं दब्बू भूमिकाओं में छिपे आक्रामक युवा की उन्होंने पहचान कर ली, और जंजीर में परिवार की हत्या का बदला लेने वाले युवा की भूमिका उन्हें सौंपी। कहा जाता है कानून के दायरे से बाहर जाकर अपराध से मुकाबला करने वाले इस पुलिस इंस्पेक्टर के प्रकाश मेहरा की पहली पसंद देव आनंद थे। देव आनंद के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद जंजीर में अमिताभ बच्चन की जगह देव आनंद की कल्पना से ही हंसी आती है। देव आनंद ही नहीं किसी भी दूसरे अभिनेता को उस स्थान पर रख कर देखना संभव नहीं, अपने अभिनय से अमिताभ ने ऐसे नए नायक की नींव रखी,जो सिर्फ प्रस्तुती में ही नहीं,शील, स्वभाव में भी हिन्दी सिनेमा के परंपरागत नायकों से नितान्त अलग था।
वास्तव में मौके तो मेहनत ही दिला सकती है, लेकिन सिनेमा में सफलता समय और समाज के साथ फिल्मकार की परिकल्पना पर ही मिलती है। 1973 में जंजीर की सफलता कहीं न कहीं इस बात का संकेत थी कि मौजूदा व्यवस्था से लोगों का विश्वास डगमगा रहा है। वे ऐसे नायक पसंद करने लगे हैं जो व्यवस्था से बाहर जाकर समस्या का निदान ढूंढने के लिए तैयार हो। याद करें तो एक ओर 1971 भारत की जयगाथा के लिए याद की जाती है, दूसरी ओर नक्सलवाद की शुरुआत के लिए भी। कतई आश्चर्य ही था कि एक ओर जहां देश आत्म गौरव में झूम रहा था, वहीं देश के एक कोने में असंतोष के हिंसक निदान की राह तलाश की जा रही थी, यह कोना छोटा भले ही था, लेकिन इसकी धमक ने देश के बडे बुद्धिजीवी तबके को आत्मगौरव से दमकते चेहरे के पीछे छिपे झुर्रियों को देखने के लिए बाध्य कर दिया। विचारों के इस प्रभाव से सिनेमा भी अपने आपको बचाए नहीं रख सका। आश्चर्य नहीं कि समस्या के निदान की एक राह अमिताभ सुझा रहे थे, प्रकाश मेहरा के साथ तो दूसरी ओर श्याम बेनेगल अपने तरीके से उसे प्रतिविम्बित कर रहे थे, अंकुर और निशांत जैसी फिल्मों में।1969 में बनी भुवन शोम जैसी संवेदनशील फिल्मों की नई धारा को श्याम बेनेगल ने 71 के बाद एक नया अर्थ दिया, जिसकी एक स्वतंत्र परंपरा बनी। हालांकि ये फिल्में खास दर्शक वर्ग के लिए बन रही थी, लेकिन कहीं न कहीं इसके सामाजिक और बौद्धिक सम्मान ने अमिताभ के कथित विद्रोही भूमिकाओं की स्वीकार्यता के लिए भी जमीन तैयार की।
आखिर कोई तो वजह होगी कि 1975 के बाद राजेश खन्ना महाचोर, शशिकपूर फकीरा और तो और मनोज कुमार भी दस नंबरी बनने का निर्णय लेते हैं, तभी जब कि दीवार में अमिताभ बच्चन एक अलग समाज के युवा आक्रोश को आकार देने में सफल होते हैं।वास्तव में इसकी पूर्व पीठिका 1967 में राज्यों में संविद सरकारों के गठन के बाद ही बननी शुरु हो गई थी। यह आम जनता का कांग्रेस से मोह भंग या कहें आजादी की खुमारी के दौर से निकलने का प्रतीक था।जनता को आजादी अब बेमानी लगने लगी थी। जाहिर है राजनीतिक अस्थिरता बढी, इसी के साथ जनता का विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से भी मोहभंग हुआ,जिसकी अभिव्यक्ति को विभिन्न कला माध्यमों ने स्वीकार किया,सिनेमा ने भी, अपने तरीके से। यही वह समय था जब कृषि के प्रति निरपेक्षता की मजबूरी और विकास की धुंधली रोशनी की आश में लोग शहर की ओर भागे। देखते देखते हिन्दुस्तान के हर शहर के भीतर एक अवांछित शहर बन कर तैयार हो गया। जिनके पास थी तो सिर्फ सपने और अपने आपको बचाए रखने की जद्दोजहद। खास बात यह कि हिन्दी सिनेमा के लिए यह सबसे बडा दर्शक वर्ग था।गांवों के अपने भरे पूरे समाज और लोक संस्कृति को छोड कर आए लोगों को मनोरंजन सस्ते मनोरंजन की जरुरत थी,जिसे सिनेमा पूरी कर रहा था। लोग चवन्नी में सिनेमा देखते थे, और खुश होते थे तो परदे पर इकन्नी लुटा देते थे। उसे परदे पर दोनों ही चीजें अच्छी लगती थी अपने सपने भी और अपने संघर्ष भी। अमिताभ में इन्होंने अपने आपको देखा। 1973 में जंजीर की सफलता में भारतीय संवैधानिक ढांचे के चरमराने की आवाज भर सुनाई दे रही थी,दीवार में वह स्पष्ट दिखने लगी। हिंसा दिखाने के लिए फिल्मकारों को अब धर्मात्मा की तरह काल्पनिक कथा की जरुरत नहीं थी, परदे पर आम जीवन और उनके बीच की हिंसा दिखाने की शुरुआत हो गई थी।
अमिताभ को सफल होना ही था। इस सफलता में कहीं न कहीं थोडा योगदान अमिताभ के व्यक्तित्व का भी था। उंचा कद जो कभी हिन्दी सिनेमा के नायकों के लिए असामान्य माना जाता था,वही अमिताभ के लिए यू. एस. पी. बन गया, शायद उनके दर्शकों को अपने नायक का सामान्य हिन्दुस्तानियों से अलग दिखना संतोष देता था। अमिताभ तो वही बंशी बिरजू थे, लेकिन उनकी फिल्में बदल गई थी। दीवार, शोले, जमीर, हेरा फेरी, अदालत, खून पसीना, परवरिश, त्रिशूल, डान, मुकद्दर का सिकन्दर, मि.नटवर लाल, सुहाग, शान, लावारिस, कालिया.....अमिताभ के 1975 से 1990 के बीच की फिल्मों के  अधिकांश किरदार उसी हाशिए पर पडे शहर से जुडे दिखते हैं। दीवार में उनकी भूमिका की शुरुआत डाकयार्ड के कुली से होती है जो बाद में अपनी हैसियत ऐसी बना लेता है कि कह सके, 'मेरे पास गाडी है, बंगला है, पैसा है, तुम्हारे पास क्या है'। अमिताभ यह सवाल भले ही परदे पर अपने पुलिस अधिकारी भाई से करते दिखते हैं, लेकिन लोगों को लगता है उनके बीच का कोई व्यक्ति पूरे अभिजात्य समाज से रु ब रु है। शोले में अमिताभ सहृदय चोर की भूमिका में हैं, कालिया में टैक्सी ड्राइवर, नसीब में वेटर, मुकद्दर का सिकन्दर में अनाथ,जो बाद में स्मगलरों को पकडवा कर उनकी कमाई से अमीर बनता है।
अमिताभ के दौर को यदि 1990 में आयी अग्निपथ तक के रुप में याद करें तो कुली, मर्द, नास्तिक, नमकहलाल, खुद्दार अमिताभ की सफलता उनके निभाए चरित्र में समाहित दिखती है। आश्चर्य नहीं कि कि लावारिस, कालिया, और तूफान जैसी फिल्मों की सफलता आज भी सिनेमा के जानकारों के लिए किसी तिलिस्म से कम नहीं। इसके बरक्स यदि 1975 के पहले की फिल्मों को याद करें तो वे सामाजिक समन्वय की कथा बयान करती थी। उसमें परिवार दिखता था, मां बाप ही नहीं, चाचा, मामा से लेकर फूफी मौसी तक का कहानी में अहम किरदार रहा करते थे। कहानियां परिवार में विचरण करती थी और सामाजिक नियंत्रण का निर्वाह करती समाप्त हो जाती थी। अमिताभ सिनेमा को उस बंधे बंधाये दायरे से बाहर निकाल लाये। अमिताभ की फिल्मों में मां तो दिखती थी, लेकिन पिता या तो रहता ही नहीं,यदि रहा भी तो अमजद खान सरीखा। आज का अर्जुन में तो अमिताभ अपने मामा अमरीश पुरी से ही मुकाबला में उतरते दिखते हैं। शायद बदलते समय की यही मांग थी। आश्चर्य नहीं कि अमिताभ ही नहीं, राजेश खन्ना और जीतेन्द्र जैसे रोमांटिक माने जाने वाले अभिनेताओं को भी 'जुझाडू' भूमिकाओं में उतरने को बाध्य होना पडा। राजेश खन्ना की कोशिश तो आमतौर पर असफल रही, लेकिन जीतेन्द्र ने मेरी आवाज सुनो और ज्योति बने ज्वाला जैसी फिल्मों के साथ जरुर हस्तक्षेप करने की कोशिश की।
चूंकि अमिताभ के पहले की फिल्मों की कहानी सामाजिक संदर्भों के साथ बनती थी,इसीलिए एक मूल कथा के साथ कई उपकथाएं भी साथ चलती थी,राजेन्द्र कुमार माला सिन्हा की कहानी का एक ट्रैक रहता था तो महमूद अरुणा इरानी का दूसरा ट्रैक समानान्तर चलता था।ढेर सारे सह अभिनेताओं की भीड देखी जाती थी। अमिताभ की व्यक्ति केन्द्रित कहानियों से समाज का संदर्भ कटा तो पात्र भी कटे। लेकिन सिनेमा को हास्य जाहिए,थोडा नाच गाना चाहिए...अमिताभ ने सारी जवाबदेही अपने कंधे पर उठा ली। राजेश खन्ना को कोई नहीं तो अपने साथ जूनियर महमुद भी चाहिए था, अमिताभ वन मैन आर्मी बन कर उभरे, वही हंसाते थे,वही रुलाते थे, उन्हीं का आयटम भी होता था,उन्हीं का स्टन्ट भी।वास्तव में वे उस वर्ग के नायक थे जिसे अपनी सारी लडाई खुद लडनी थी।
अमिताभ के दौर का सबसे ज्यादा खामियाजा यदि किसी कलाकार को भुगतना पडा तो वे थे संजीव कुमार, आज भी हिन्दी सिनेमा के सबसे प्रतिभाशाली अभिनेताओं की सूची बनायी जायेगी तो उसमें संजीव कुमार शीर्ष पर होंगे। अमिताभ के दौर में संजीव कुमार की सक्रियता इस बात की प्रतीक है कि उस समय अमिताभ के सिनेमा के साथ सिनेमा की एक समानान्तर धारा भी चल रही थी। वास्तव में भारतीय समाज की विविधता के अनुरुप सिनेमा अपने विविध रुपों में हर काल में उपस्थित रहा है,जब बिमल राय  सिनेमा बना रहे थे,उसी समय दारा सिंह और शेख मुख्तार की भी फिल्में आ रही थी। आज यह याद करना भी दिलचस्प लगता है कि जिस साल 'दीवार' रीलिज हुई, उसी साल राजकपूर ने 'बाबी' के साथ हिन्दी दर्शकों को प्रेम का एक नया आस्वाद भी दिया था। 'खेल खेल में', 'रफूचक्कर' जैसी फिल्मों के साथ ऋषिकपूर युवतम दर्शकों में क्रेज बन कर उभरे ,जिनके पास न तो कोई सामाजिक जवाबदेही थी,न ही सामाजिक चिन्ता। 1981 में जब याराना, कालिया, लावारिस, नसीब जैसी फिल्मों के साथ अमिताभ चरम पर दिख रहे थे,उसी समय राजेन्द्र कुमार ने अपने बेटे को लांच करने के 'लव स्टोरी' बनायी, हालांकि बेटा कुमार गौरव नहीं चल सका लेकिन लव स्टोरी उस समय खूब चली। इसी समय मनोज कुमार भी 'क्रांति' के साथ देश प्रेम की अपनी आखिरी लडाई लड रहे थे। जीतेन्द्र ने दक्षिण भारतीय फिल्मकारों के साथ 'हिम्मतवाला', 'तोहफा' के रुप में मनोरंजन और इमोशन का एक अलग खजाना खोला।अमिताभ से मुकाबले के लिए उसी समय मल्टी स्टारर फिल्मों की भी शुरुआत हुई, और मनोरंजन की एकरसता से ऊबे दर्शकों ने उसे स्वीकार भी किया।
लेकिन इस सबके बावजूद यदि 75 से 90 के काल को अमिताभ बच्चन के दौर के रुप में याद किया जाता है तो उसकी वजह है कि अधिकांश कलाकारों की लोकप्रियता अपने सीमित दर्शक वर्ग में थी, दक्षिण भारतीय फिल्में महिलाओं के बीच पसंद की जा रही थी, तो मल्टी स्टारर मध्य वर्ग को लुभा रही थी। अमिताभ एक मात्र ऐसे नायक थे जिनकी स्वीकार्यता सर्वमान्य थी। उनकी फिल्मों की कथा भूमि उन्हें शहरी सर्वहारा से जोडती थी, संवेदना महिलाओं को छूती थी, उनका सहज हास्य मध्य वर्ग को लुभाता था।तो उनका संपूर्ण व्यक्तित्व और संवाद शैली उन्हें क्लास देता था। अमिताभ को भी अपनी इस क्षमता का अहसास था यही कारण है कि अमिताभ का दौर 'कालिया' , 'दीवार' के लिए जितना याद किया जाता है उतना ही 'चुपके चुपके', 'कभी कभी', 'बेमिसाल' और 'सिलसिला' के लिए भी।

भट्ट जी,सेक्स नहीं,समाज पसंद है दर्शकों को

हिन्दी सिनेमा के स्वनाम धन्य बुद्धिजीवी महेश भट्ट मानते हैं कि भारतीय दर्शक सेक्सुअल फिल्मों को अधिक तरजीह देते हैं इसलिए पारिवारिक फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं होती हैं।  भारतीय दर्शकों के मनोविज्ञान का विश्लेषण करते हुए वे यह भी दावा करते हैं कि भारतीय दर्शकों को फिल्मों में अगर सेक्स परोसा जाए तो वे ज़्यादा संतुष्ट होते हैं, हालांकि भारतीय दर्शक कभी भी यह मानने को तैयार नहीं हैं। उनका मानना है कि कामुकता भारत में एक बीमारी की तरह फैल रही है। महेश भट्ट ने हालिया वर्षों में अपने सामाजिक बयानों से चाहे जो छवि बनायी हो, परदे पर मर्डर, ‘राज और जिस्म सीरीज की फिल्मों से सेक्स आधारित फिल्म बनाने वाले फिल्मकार की छवि बनाने से कतई संकोच नहीं किया। जाहिर है अपनी इस तरह के बयानों से समय समय पर वे सेक्स परोसने की अपनी विद्रुप कोशिशों को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं। महेश भट्ट कहते हैं कि भारतीय दर्शक सेक्स के भूखे होते हैं, लेकिन बाहर से दिखाते नहीं है और अगर उन्हें पारिवारिक फिल्में परोसी जाए, तो वे फ्लॉप हो जाती हैं, क्योंकि दर्शकों को जिस्म, मर्डर, राज टू जैसी बोल्ड फिल्में  ही भाती हैं।
महेश भट्ट इतने पर ही बस नहीं करते वे आगे कहते हैं,  इस ज़माने के लोगों का टेस्ट बदल चुका है। वे बात करने से ज़रुर कतराते हैं। पर देखने में बिलकुल नहीं शर्माते। अब लोगों को फिल्म में कहानी के साथ-साथ सेक्स का तड़का चाहिए। पोर्न फिल्मों की अभिनेत्री सनी लियोनी के लिए हिन्दी सिनेमा में जगह बनाने की कोशिशों पर महेश भट्ट कहते हैं कि जब जिस्म 2’ के लिए सन्नी लियोन को लेने की बात हुई थी, तब काफी बवाल हुआ था। लेकिन 6 करोड़ की फिल्म ने 36 करोड़ का बिजनेस किया, जिससे यह साबित होता है कि भारतीयों को क्या पसंद है। महेश भट्ट की मजबूरी पर वारि वारि जाने का मन करता है जब वे मजबूरी जाहिर करते हुए कहते हैं कि आज के लोगों को सेक्स का तड़का चाहिए इसलिए सेक्स वाली फिल्में बनानी पड़ती है। हिन्दी सिनेमा में इस मान्यता को प्रचारित करने वाले महेश भट्ट अकेले नहीं हैं, अभी तक एक भी सफल फिल्म नहीं दे सकने वाली अभिनेत्री नेहा धूपिया ने हाल में एकबार फिर कहा कि हिन्दी सिनेमा में दो ही चीजें बिकती हैं, सेक्स और शाहरुख। इसी तरह बीते तीन वर्षों से ट्वीटर और विभिन्न सोशल साइट्स पर अपनी नग्न तस्वीरें परोस कर पहचान बनाने की कोशिश में जुटी पूनम पांडेय अपनी पहली सी ग्रेड फिल्म नशा को न्यायोचित ठहराते हुए कहती हैं यहां के लोग छुप-छुप कर सेक्स देखते हैं। इसलिए उन्होंने एडल्ट फिल्म साइन की है।
महेश भट्ट अपनी स्थापना का आधार इस बात को मानते हैं कि उनकी 6 करोड में बनी सनी लियोनी अभिनीत जिस्म 2 ने 36 करोड की कमाई की। 36 करोड मतलब 36 लाख दर्शक। यदि महेश भट्ट के ही गणित से चलें और 36 करोड को एक हफ्ते का कमाई मानें, तो 100 रुपये की टिकट दर से देश भर में एक दिन में यह फिल्म मात्र 50 हजार लोगों ने देखी। सवा अरब के मुल्क में 50 हजार दर्शकों के आधार पर क्या किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है, लेकिन महेश भट्ट जैसे कथित विद्वानों की यही खासियत है वे निर्णय पर पहले पहुच जाते हैं, तर्क बाद में गढ लेते हैं। हिदी सिनेमा के दर्शक फिल्मकारों की यह मनमानी झेलते रहे हैं। मनमोहन देसाई से लेकर सुभाष घई और डेविड धवन तक अपनी हर घटिया फिल्मों को इस तर्क के साथ ही परोसते रहे कि वे वही बनाते हैं जो दर्शक चाहते हैं, अफसोस कि आज तक जब हिन्दी सिनेमा अपनी शताब्दी मना रही है दर्शकों की पसंद जानने का कोई मैकनिज्म विकसित नहीं कर पाई। फिल्म की सफलता को दर्शकों की पसंद से जोड कर देख लिया जाता है अति तो तब हो जाती है जब आम तौर पर इसे भारत की पसंद भी मान ली जाती है। भाई मेरे, जिस मुल्क में दर्शकों की तदाद ही एक प्रतिशत हो, वहां किसी एक फिल्म के कुछ दर्शकों के देख भर लेने से कैसे उस आधार पर आम भारतीय का स्वभाव निर्धारित किया जा सकता है।
 इतना ही नहीं,यदि महेश भट्टों की तरह सिर्फ सिनेमा की सफलता को ही आधार मान कर चलें तब भी हिन्दी सिनेमा की सफलता का इतिहास दर्शकों के कुछ और ही स्वभाव को रेखांकित करता है। इतिहास में न भी जायें और खुली अर्थ व्यवस्था के बाद दर्शकों की बदलती आदतों और स्वभाव को आधार बनाएं, तब भी लगान और गदर- एक प्रेम कथा की अभूतपूर्व सफलता को भुलाया नहीं जा सकता।वास्तव में चाहे और जो कुछ हो सेक्स हिन्दी सिनेमा में कभी लोकप्रियता की वजह नहीं रही। जब भी सेक्स को केन्द्र में रख कर फिल्में बनी निःसंकोच उसे सी ग्रेड का दर्जा दे कर एक खास दर्शक वर्ग के लिए छोड दिया गया। मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, कुछ कुछ होता है, दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे, कभी खुशी कभी गम की सफलता हो सकता है महेश भट्ट के लिए बीते दिनों की बात हो गई हो, सलमान खान की हालिया सफलता को कैसे भूला जा सकता है, जिसमें सेक्स तो क्या नायिका के करीब होने के दृश्य भी मुश्किल से मिलते हैं।दबंग भदेस भले ही मानी जा सकती है, मलायिका के मुन्नी बदनाम के बावजूद उसकी सफलता को सेक्स से जोडकर नहीं देखा जा सकता।
सलमान की फिल्में वांटेड, रेडी, बाडीगार्ड और एक था टाइग की चाहे हम जितनी आलोचना कर लें, लेकिन सेक्स प्रदर्शन के मामले में सलमान के अति सचेत रुख से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता। बेडसीन की तो बात ही दूर है, सामान्य माने जाने चुम्बन दृश्य भी सलमान की फिल्मों में नहीं देखे जा सकते, यह सलमान के दर्शकों को भी पता है, तब भी सलमान का मतलब 100 करोड की गारंटी है, जो नग्नता की तमाम सीमाएं पार करने के बाद भी हेट स्टोरी नहीं दे सकती। महेश भट्ट 36 करोड की कमाई कर भले ही सेक्स की अपनी सफलता से खुश हो रहे हों ,सच यही है कि भारत में 100 करोड का व्यवसाय करने की क्षमता उन्हीं फिल्मों में रही हैं जिन्होंने सेक्स से परहेज रखा है।
आश्चर्य कि हिन्दी सिनेमा में एक भरी पूरी जिंदगी गुजार देने के बाद भी महेश भट्ट यह नहीं समझ सके कि भारतीय दर्शकों की पहली पसंद सेक्स नहीं, समाज है, समाज की कहानियां हैं। रोहित शेट्टी और प्रियदर्शन की फिल्मों की सफलता पर गौर किया जाय तो हास्य जरुर दिखता है, लेकिन उसके साथ ही दिखती है पात्रों की भीड भी। ढेर सारे पात्र और उनकी जद्दोजहद के बीच से निकलते हास्य के पल। राजेन्द्र कुमार और राजेश खन्ना की कथित सामाजिक फिल्में भले ही आज नहीं दिखाई दे रही हों, लेकिन दबंग, रेडी, सिंघम, बोलबचन और अग्निपथ में जो दिखता है वह समाज से परे भी नहीं दिखता। महेश भट्ट जैसे लोगों को समझने में सहुलियत होगी यदि बीते वर्षों में 100 करोड का आंकडा पार करने वाली कुछ फिल्मों पर एक उडती नजर भी डाल लेंगे, गजनी, गोलमाल, रा वन, डान2, राउडी राठौड, जोधा अकबर, माइ नेम इज खान, सिंह इज किंग....  आखिर इनमें से किसकी कमाई का श्रेय सेक्स को दिया जा सकता है, इसके बरक्स यदि सेक्स की सफलता की बात करें तो शायद ही कोई फिल्म 20 करोड की भी कमाई कर सकी हो। महेश भट्ट जी 6 करोड से 36 करोड की कमाई कर आप खुश हों,अच्छी बात है, इस कमाई से उत्साहित होकर आप सनी के साथ पोर्न फिल्म के धंधे में लग जाएं और अच्छी बात, लेकिन कृपा कर  उसे दर्शकों के स्वभाव से जोडने की कोशिश न करें, आप मान लें कि आपका विकृत मस्तिस्क अब जख्म और सारांश जैसी फिल्में नहीं सोच सकता, दर्शकों को दोष न दें, वे अभी भी तारे जमीन पर और 3 इडियट्स देखने के लिए पलकें बिछाए है।